मुकेश नौटियाल
मां ने पंखों से रेत हटाकर गड्ढा बनाया। फिर गड्ढे में अंडे दे दिए। एक दो नहीं, पूरे पचास-पचपन अंडे। अंडे देकर मां समंदर में चली गई और फिर कभी नहीं लौटी। उसका काम समाप्त हो गया था।
हर सुबह सूरज मुस्तैदी से आता, धरती पर ताप बरसाता और सांझ ढलने पर समंदर के बीच कहीं उतर जाता। तट पर रेत तपती रही ,अंडों को सेती रही और एक दिन अचानक रेत में हलचल होने लगी। कुछ ही देर बाद एक नन्हे कछुए ने रेत से बाहर गर्दन निकाली ,आश्चर्य से इधर-उधर नजरें दौड़ाई और फुर्ती से अपने मांसल पंखुड़े घसीटता हुआ समंदर की ओर भागा। फिर दूसरे, तीसरे, चौथे और दर्जनभर कछुओं ने ऐसा ही किया। पहली बार उन्होंने धरती देखी थी ,पहली बार आकाश। वहां ना उनकी मां थी, ना पिता। पता नहीं किसने उनको बताया कि जीना है तो समंदर की ओर दौड़ो। वे सभी समंदर की ओर दौड़ने लगे। जहां मां ने अंडे दिए थे वहां से समंदर कोई सौ मीटर दूर रहा होगा पर सौ मीटर का फासला भी किसी नवजात कछुए के लिए कम तो नहीं। तब तो हरगिज़ नहीं जब बीत्ते भर के इस सफर में कई ख़तरे मौजूद हों। नन्हे कछुओं की समंदर के तट पर दौड़ क्या शुरू हुई ,आकाश में चीलें मंडराने लगीं। शिकारियों का जत्था आ पहुंचा। शिशु कच्छप उनका निवाला बनने लगे। चीलों को देखकर केकड़े भी सक्रिय हो गए। समंदर छोड़ तट पर आकर वह नन्हें कछुओं को अपने पंजों में दबोचने लगे। समंदर का शांत तट कोलाहल और हलचल से भर गया। शिकारी भूख से बिलबिला रहे थे, शिकार बचाव के लिए छटपटा रहे थे।
आखिरकार युद्ध समाप्त हुआ। कई शिशु कच्छप समंदर तक पहुंचे। जितने समंदर तक पहुंचे उतने ही चीलों और केकड़ों के शिकार हुए। लेकिन एक कछुआ था जो न समंदर तक पहुंचा, न ही किसी का शिकार बना। वह सबसे कमजोर कछुआ था। जब मां ने अंडे दिए थे तभी एक अंडा बाकियों से अलग, गड्ढे के अकेले कोने पर जा लगा था। ढेर में तो अंडों को एक दूसरे का ताप मिलता रहा इसलिए सभी एक साथ परिपक्व हुए। अकेला अंडा आखिर में चटका और उसके अंदर से निकला शिशु कच्छप बाकियों से दुर्बल निकला। जब उसने रेत से बाहर अपनी गर्दन निकाली तो समंदर के तट पर कोहराम मचा था। उसने अपने सहोदरों को चीलों की चोंचों में छटपटाते देखा, केकड़ों की गिरफ्त में जाते देखा। वह समझ गया कि केवल दौड़ना काफी नहीं है। कब दौड़ना है – यह ज्यादा जरूरी है। जब माहौल एकदम शांत हो गया तब उसने अपने शरीर को रेत से बाहर निकाला और धीरे-धीरे समंदर की ओर बढ़ने लगा। समंदर के करीब पहुंचने के बावजूद वह दूर था। कमजोरी के चलते वह हांफने लगा। जब लगा कि दम निकल जाएगा तब वह सुस्ताने बैठ गया। कुछ देर आराम करने के बाद उसने दोबारा डग भरने शुरू किए और अंततः वह समंदर के गीले तट तक पहुंच गया। सूखी रेत पर दौड़ना, फिसलना, लुढ़कना आसान था लेकिन गीली रेत पर चलना खासा मुश्किल होता है। उसने प्रतीक्षा करना बेहतर समझा। वह जहां था वहीं ठहर गया ।
सूरज का लाल गोला समंदर में उतरने लगा। ढलती सांझ के साथ लहरें विकराल होने लगी। ज्वार बढ़ने के साथ लहरों का विस्तार भी बढ़ने लगा और अंततः उसकी प्रतीक्षा सफल हुई। एक लहर आई और उसको बहा कर समंदर में ले गई ।
यह तीन सौ साल पुरानी बात है। समंदर के तट पर जो बूढ़ा कछुआ धूप सेंकता दिखाई दे रहा है यह वही कछुआ है जो उस दिन आखिर में समंदर तक पहुंचा था।
गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर ऐतिहासिक पहल कर चुके उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत इस मुद्दे पर फ्रंट फुट पर खेलते दिखाई दे रहे हैं। आज स्वतंत्रता दिवस के मौके पर मुख्यमंत्री ने पहले अस्थाई राजधानी देहरादून और फिर ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण में विधान भवन में ध्वजारोहण कर इतिहास ही नहीं रचा, अपितु गैरसैंण को लेकर ताबड़तोड़ घोषणाएं कर विपक्षियों पर भी बढ़त कायम कर ली। त्रिवेंद्र ने आज गैरसैंण को लेकर की गईं घोषणाओं और वहां ध्वजारोहण कर राजधानी के मुद्दे को लेकर अपने इरादों को भी साफ़ कर दिया है।
उल्लेखनीय है कि, उत्तराखण्ड राज्य के गठन से पहले से ही गैरसैंण को प्रदेश की राजधानी बनाए जाने की मांग उठती रही है। उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के समय भी गैरसैंण को ही राज्य की प्रस्तावित राजधानी माना गया। गैरसैंण को तब अधिक महत्व मिला, जब वर्ष 1991 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार गठित हुई और कल्याण सरकार ने गैरसैंण में अपर शिक्षा निदेशक के कार्यालय का उद्घाटन किया। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कल्याण सिंह सरकार ने ही उत्तराखंड पृथक राज्य निर्माण के संबंध में उत्तर प्रदेश विधान सभा में संकल्प प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा था।
अलग राज्य निर्माण को लेकर उत्तराखंड के साथ कई अजीब विडंबना भी जुड़ी रही हैं। वर्ष 1994 में उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह यादव सरकार ने प्रस्तावित राज्य की राजधानी निर्माण के मुद्दे का राजनीतिक लाभ लेने के लिए अपने कैबिनेट मंत्री रमाशंकर कौशिक की अध्यक्षता में एक समिति गठित की। इस समिति ने गैरसैंण को प्रस्तावित राज्य की राजधानी के रूप में अपनी संस्तुति दी। मुलायम सरकार ने एक ओर जहां राज्य निर्माण के बिना ही राजधानी मामले में अपनी सक्रियता प्रदर्शित की, वहीं दूसरी तरफ राज्य निर्माण की मांग को लेकर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली जा रहे आंदोलनकारियों के साथ मुजफरनगर में जघन्य व घृणित कांड को अंजाम दिया।
केंद्र में अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में सरकार के गठन के बाद उत्तराखंड राज्य के गठन का मार्ग प्रशस्त हुआ। 9 नवम्बर, 2000 को उत्तराखण्ड को अलग राज्य के रूप में मान्यता मिली। केंद्र सरकार ने राजधानी के मुद्दे पर जन भावनाओं और आधारभूत ढांचे को ध्यान में रखकर देहरादून को अस्थाई राजधानी के रूप में घोषित किया। मगर राज्य निर्माण के बाद गैरसैंण को स्थाई राजधानी घोषित करने की मांग विभिन्न स्तरों पर उठती रही।
वर्ष 2001 में उत्तराखंड की नित्यानंद स्वामी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने जस्टिस वीरेंद्र दीक्षित की अध्यक्षता में राजधानी के मुद्दे को लेकर एक आयोग का गठन किया। अगले वर्ष प्रदेश में पहली बार विधान सभा चुनाव हुए। चुनाव के बाद कांग्रेस की सरकार गठित हुई। कांग्रेस सरकार के पूरे पांच साल के दौरान आयोग विस्तार पाता रहा और उसने कोई रिपोर्ट नहीं दी। वर्ष 2007 के विधान सभा चुनावों में प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी। एक सदस्यीय दीक्षित आयोग ने राजधानी पर अपनी रिपोर्ट प्रदेश सरकार को सौंपी, जिसे 17 अगस्त 2008 को विधानसभा में पेश किया गया। दीक्षित आयोग ने देहरादून तथा काशीपुर को राजधानी के लिए योग्य पाया था।
मगर जन भावनाओं के चलते दीक्षित आयोग की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में चली गई। गैरसैंण को राजधानी बनाने के पक्षधर यह मानते हैं कि पहाड़ी राज्य की राजधानी अगर पहाड़ में स्थित होगी तो वहां के विकास को नयी गति मिलेगी। गैरसैंण भावनात्मक मुद्दा होने के साथ ही राजनीतिक रंग भी लेता रहा। वर्ष 2012 में प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने गैरसैंण में एक कैबिनेट बैठक का आयोजन किया। इसके बाद बहुगुणा सरकार ने गैरसैंण से लगभग 12 किमी दूर स्थित भराड़ीसैंण में विधानसभा भवन, सचिवालय, ट्रांजिट हॉस्टल और विधायक आवास का शिलान्यास किया। विधान सभा आदि के निर्माण के बावजूद गैरसैंण को लेकर असमंजस बरक़रार रहा। इस बीच वहां विधान सभा के सत्र भी आयोजित होते रहे।
गैरसैंण के इतिहास में इस वर्ष 4 मार्च का दिन ऐतिहासिक बन गया, जब प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने विधानसभा में बजट सत्र के दौरान उसे राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी के रूप में घोषित कर दिया। गैरसैंण में ही आयोजित हुए बजट सत्र में जब मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र ने गैरसैंण को राजधानी बनाने की घोषणा की थी तो उन्होंने भावुक होकर कहा था कि “ये फैसला काफी सोच-समझकर लिया गया है”। मुख्यमंत्री की घोषणा के अनुरूप विगत 8 जून को प्रदेश सरकार ने ग्रीष्मकालीन राजधानी को लेकर अधिसूचना भी जारी कर दी। त्रिवेंद्र ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने के साथ- साथ इसे ई-राजधानी के रूप में विकसित करने की योजना भी बनाई है, ताकि गैरसैंण में विधान सभा सत्र के आयोजन के दौरान फाइलों को अनावश्यक रूप से इधर-उधर नहीं ढोना पढ़े।
इस बीच कोरोना महामारी के कारण उपजी परिस्थितियों के चलते प्रदेश सरकार गैरसैंण को लेकर अपनी योजनाओं को गति नहीं दे सकी, तो कांग्रेस ने मौके का फायदा उठाते हुए मुद्दे को लपकने की कोशिश की। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव व प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने गैरसैंण की यात्रा कर भाजपा सरकार पर सवाल दागे। मगर तब मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र ने अपने अंदाज में उनसे यही सवाल किया कि जब हरीश रावत मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने राजधानी के विषय पर कोई निर्णय क्यों नहीं लिया ? मगर आज स्वतंत्रता दिवस के दिन त्रिवेंद्र ने गैरसैंण व आसपास के क्षेत्रों में अवस्थापना सुविधाओं व अन्य तमाम घोषणाएं कर राजनीतिक तौर पर बढ़त हासिल कर दी है। मुख्यमंत्री ने गैरसैण को लेकर घोषणाएं राजधानी देहरादून में आयोजित मुख्य कार्यक्रम में की और इसके बाद वे विधान सभा अध्यक्ष प्रेम चंद्र अग्रवाल समेत अन्य प्रमुख लोगों के साथ गैरसैंण पहुंचे। गैरसैंण में विधान सभा भवन के सम्मुख ध्वजारोहण कर उन्होंने कई योजनाओं का शिलान्यास व लोकार्पण किया।
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र ने आज ट्वीट कर इस अवसर को ऐतिहासिक बताया। मुख्यमंत्री ने गैरसैंण को लेकर जो प्रमुख घोषणाएं की, उनमें प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र गैरसैंण में 50 बेड्स के सब डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल की स्थापना, विधानसभा परिसर में मिनी सचिवालय की स्थापना, स्थानीय हॉस्पिटल में टेलीमेडिसिन की सुविधा, क्षेत्र में पंपिंग पेयजल पाइप लाइन का निर्माण, जियो ओएफसी नेटवर्किंग का विस्तार, कोल्ड स्टोरेज की स्थापना आदि प्रमुख हैं।
जय सिंह रावत, वरिष्ठ पत्रकार
पिछड़ापन, आर्थिक असमानता, गरीबी, लाचारी और सर्वसुलभ न्याय दुर्लभ होने के कारण अब भी भारत की आजादी को अधूरी मानने वाले लोगों से हम सहमत हो या नहीं, मगर इतना तो मानना ही पड़ेगा कि 15 अगस्त 1947 को हमें जो आजादी मिली थी वह सचमुच अधूरी ही थी, क्योंकि आजादी की घोषणा केवल ब्रिटिश भारत के लिए की गई थी और लगभग 562 रियासतों वाले शेष भारत का भविष्य तब भी अधर में लटका हुआ था।
देखा जाए तो जिस 15 अगस्त के दिन अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई मुकाम तक पहुंची। उसी दिन से देशी शासकों के अधिपत्य वाले रियासती भारत में आजादी की निर्णायक जंग शुरू हुई, जो कि 1975 में सिक्किम के विलय तक जारी रही। मानने वाले तो 5 अगस्त 2019 को संविधान की धारा 370 और 35 ए के प्रावधानों की समाप्ति को ही आजादी के समय शुरू हुई विलय की प्रक्रिया की सम्पूर्णता मानते हैं। 15 अगस्त 1947 को जब भारत में नए लोकतांत्रिक युग का सूत्रपात हुआ उस समय भारत में दो तरह की शासन व्यवस्थाएं थीं। इनमें से एक देशी रियासतों की सामंती व्यवस्था और दूसरी ब्रिटिश शासन व्यवस्था थी।
ब्रिटिश भारत भी बंगाल, मद्रास और बंबई प्रेसिडेंसियों तथा पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान समेत भारत के 17 प्रोविन्सों में बंटा हुआ था। उस समय लगभग 562 देशी राज्य थे जिनमें कुल 27 की जनसंख्या वाली बिलबाड़ी रियासत भी थी, तो इटली देश से बड़ी हैदराबाद रियासत भी थी। जिसकी जनसंख्या उस समय 1.40 करोड़ थी। इनमें वे 35 हिमालयी रियासतें भी थीं जिनसे बाद में हिमाचल प्रदेश बना। एक अनुमान के अनुसार इन सभी रियासतों का क्षेत्रफल लगभग 7,12,508 वर्गमील या 11,40,013 वर्ग किमी था।
कैबिनेट मिशन स्पष्ट कर चुका था कि देशी राज्यों को पौरामौंट्सी संधि के तहत आंतरिक और बाह्य सुरक्षा की जो गारंटी ब्रिटिश सरकार ने दे रखी है, वह 15 अगस्त 1947 को संधि के समाप्त होने पर स्वतः ही समाप्त हो जाएगी। सन् 1857 की गदर के बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी से छीन कर अपने हाथ में लिए जाने के बाद जब 1876 के अधिनियम के तहत ब्रिटिश साम्राज्ञी को ‘‘क्वीन एम्प्रेस ऑफ इंडिया’’ या भारत की महारानी घोषित किया गया और राज्यहरण की नीति त्याग कर देशी रियासतों को आंतरिक और बाह्य सुरक्षा की गारंटी दी गई तो बदले में उनकी सार्वभौम सत्ता ब्रिटिश क्राउन में सन्निहित हो गई थी।
इसमें देशी राज्यों के रक्षा, संचार, डाक एवं तार, रेलवे एवं वैदेशिक मामले ब्रिटिश हुकूमत में निहित हो गए थे। इसलिए सरदार पटेल और वीपी मेनन ने बहुत ही होशियारी से सबसे पहले देशी राज्यों को भारत संघ में मिलाने से पहले उनसे ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर करा कर स्वतंत्र निर्णय लेने के मामले में कानूनी तौर पर उनके हाथ बांध दिए थे। इसके बाद चरणबद्ध तरीके से उन सबका भारत संघ में विलय करा दिया गया। इस प्रक्रिया में उड़ीसा के 36 राज्यों का विलय 15 दिसंबर 1947 को तो कोल्हापुर और दक्कन ऐजेंसी के 17 राज्यों का विलय 8 मार्च 1948 को हुआ। सन् 1948 में ही सौराष्ट्र और काठियावाड़ की रियासतों का विलय हुआ।
बुंदेलखंड और बाघेलखंड की 35 रियासतों का 13 मार्च 1948, राजपूताना की 19 रियासतों का विलय भी मार्च 1948 में, जोधपुर, जैसलमेर, जयपुर, एवं बीकानेर का 19 मार्च 1948 को, इंदौर, ग्वालियर, झाबुआ एवं देवास का जून 1949 में, पंजाब की 6 रियासतों का 1948 में, उत्तर पूर्व के मणिपुर का 21 सितंबर 1948 में, त्रिपुरा का 9 सितम्बर 1949 में, कूच बिहार का 30 अगस्त 1949 में विलय हुआ। बड़े राज्यों में से हैदराबाद का पुलिस कार्यवाही के बाद 18 सितंबर 1948 को अधिग्रहण किया गया। जबकि त्रावनकोर-कोचीन 27 मई 1949, कोल्हापुर फरबरी 1949 तथा मैसूर का विलय 25 नवंबर 1949 को तथा हिमालयी राज्य टिहरी का विलय 1 अगस्त 1949 को हुआ। हिमाचल प्रदेश का गठन करने से पहले 1948 में ही वहां की 27 रियासतों का संघ बना कर उसे केंद्रीय शासन के तहत लाया गया।
ब्रिटिश भारत में जहां कांग्रेस आजादी के लिए लड़ रही थी, वहीं रियासतों में कांग्रेस के ही दिशा-निर्देशन में प्रजामंडल सक्रिय थे। इन प्रजामंडलों का संचालन सन् 1927 में बंबई में गठित अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद (ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कान्फ्रेंस) कर रही थी। इसकी कमान पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सन् 1939 में स्वयं संभाली, जो कि 1946 तक इसके अध्यक्ष रहे। नेहरू के बाद डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने परिषद की कमान संभाली जो कि 25 अप्रैल सन् 1948 में लोक परिषद के कांग्रेस में विलय के समय तक इसके अध्यक्ष रहे। इसी लोक परिषद के तहत पंजाब हिल्स की टिहरी समेत हिमाचल की 35 रियासतों के प्रजामंडलों के दिशा-निर्देशन के लिए हिमालयन हिल स्टेट्स रीजनल काउंसिल का गठन किया गया।
दरअसल, देशी रियासतें ब्रिटिश हुकूमत के लिए बफर स्टेट्स के समान थी। सन् 1857 की गदर के दौरान देशी शासकों ने अंग्रेजों का साथ देकर उन्हें अहसास दिला दिया था कि भारत पर शासन करना है तो राज्य हरण की नीति पर चलने के बजाय उनसे मिलकर चलने में ही अंग्रेजी हुकूमत की भलाई है। अंग्रेजों का इन पर नियंत्रण भी था और इनके प्रति सुरक्षा के अलावा कोई खास जिम्मेदारी भी नहीं थी। अंग्रेजी हुकूमत ने पैरामौंटसी हासिल कर देशी शासकों को दंडित करने और उनके उत्तराधिकारी के चयन का अधिकार अपने पास रख कर सार्वभौमिकता साथ ही उनकी वफादारी भी गिरवी रख दी थी।
सन् 1921 में माउटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार के तहत देशी शासकों को अपनी जरूरतों और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए चैम्बर ऑफ प्रिंसेेज का गठन हो चुका था, जिसे नरेंद्र मंडल भी कहा जाता था। इसके पहले चांसलर बिकानेर के महाराजा गंगा सिंह बने। जवाहर लाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत का संविधान बनाने के लिए जब देशी राज्यों से संविधान सभा में अपने प्रतिनिधि भेजने की अपील की तो भोपाल के नवाब, जो कि उस समय नरेंद्र मंडल के चांसलर भी थे, ने अपील ठुकरा दी। जबकि बीकानेर के महाराजा ने सबसे पहले अपना प्रतिनिधि संविधान सभा के लिए मनोनीत कर दिया। उसके बाद पटियाला, बड़ोदा, जयपुर और कोचीन के प्रतिनिधियों के संविधान सभा में शामिल होने से इन राज्यों की नई व्यवस्था के साथ चलने की शुरुआत हो गई।
तत्कालीन गर्वनर जनरल माउंटबेटन ने चैम्बर ऑफ प्रिंसेज की बैठक में साफ कह दिया था की राज्यों का अपना अलग अस्तित्व बनाए रखना अब व्यवहारिक नहीं रह गया है। इसलिए इन राज्यों को भारत या पाकिस्तान में से किसी के साथ भौगोलिक सम्बद्धता के अनुसार मिल जाना चाहिए। चूंकि जितने देशी राज्य उतने प्रांत बनाना संभव नहीं था। इसलिए पूर्ण रूप से भारत संघ में इनके विलय से पहले एकीकरण की कार्यवाही की गई और विलीनीकरण या मर्जर से पहले इंस्ट्रूमेण्ट ऑफ एक्सेशन पर देशी शासकों से हस्ताक्षर करा कर पटेल और मेनन ने एक तरह से उनकी सार्वभौमिकता हासिल कर ली, जिसके तहत देशी राज्यों ने सुरक्षा, यातायात और वैदेशिक मामलों के अधिकार भारत संघ को सौंप दिए मगर उनकी आंतरिक स्वायत्तता बरकरार रही। 15 अगस्त 1947 तक हैदराबाद, भोपाल और कश्मीर को छोड़कर 136 राज्यों ने विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे।
इस तरह भारत संघ में मिलने वाले 554 देशी राज्यों में से 551 तो इंस्ट्रूमेण्ट ऑफ एक्सेशन पर हस्ताक्षर के बाद शांतिपूर्ण ढंग से भारत संघ में विलीन हो गए। लेकिन हैदराबाद और भोपाल के विलय में मामूली बल का प्रयोग करना पड़ा। जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान में मिलने की घोषणा कर पाकिस्तान भाग गया था और उसकी रियासत को जनमत के आधार पर भारत में मिलाना पड़ा। कश्मीर के शासक ने भी स्वतंत्र रहने की घोषणा की थी, लेकिन जब 1948 में पाकिस्तान की ओर से उस पर कबाइली हमला हुआ तो उसने भी इंस्ट्रूमेण्ट ऑफ एक्सेशन पर हस्ताक्षर कर लिए। उस समय 216 छोटे राज्यों को निकटवर्ती प्रांतों से जोड़ कर उन प्रांतों को पार्ट-ए में रखा गया। उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के 39 राज्यों को सेंट्रल प्रोविन्स और उड़ीसा में जोड़ा गया जबकि गुजरात के राज्य बंबई में मिलाए गए।
इसी तरह के 61 छोटे राज्यों का एकीकरण कर उन्हें पार्ट-सी की श्रेणी में तथा कुछ राज्यों के पांच संघ बना कर उन्हें पार्ट-बी में रखा गया। इनमें संयुक्त प्रांत पंजाब राज्य संघ राजस्थान संयुक्त प्रांत त्रानकोर-कोचीन आदि शामिल थे। सन् 1956 में संविधान के सातवें संशोधन से पार्ट-बी श्रेणी समाप्त कर दी गया।आजादी के बाद भी सन् 1975 में सिक्किम का भारत संघ में विलय हुआ, जबकि 5 अगस्त 2019 को भारत की संसद ने जम्मू-कश्मीर के लिए विशेषाधिकार वाली संविधान की धारा 370 और 35 को समाप्त कर उस राज्य की भारत संघ में पूर्ण विलय की जो प्रक्रिया 1948 में अधूरी रह गई थी उसे पूरा कर लिया। इसलिए देखा जाए तो 15 अगस्त का दिन स्वतंत्रता दिवस के साथ ही अखंड भारत के संकल्प का दिवस भी है।
डा. वंदना गांधी समाजशास्त्र की शिक्षिका हैं। समाज में चल रही गतिविधियों और उनके पीछे के एजेंडे को वह बहुत बारीक से समझती हैं। जब उन्होंने प्रेम की आड़ में चल रहे ‘लव जिहाद’ की नब्ज़ टटोलने की कोशिश की तो उनका सामना ऐसे सच से हुआ, जो बहुत डरावना है। अपने कहानी संग्रह ‘एक मुखौटा ऐसा भी’ में उन्होंने 15 सच्ची कहानियों के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि कैसे प्रेम का मुखौटा लगा कर हिन्दू युवतियों को निशाना बनाया जा रहा है। उनका जीवन बर्बाद किया जा रहा है। इनमें छह कहानियां मध्यप्रदेश की हैं और शेष भारत के विभिन्न हिस्सों से ली गई हैं। लेखिका का कहना है कि वह कई परिवारों और पीड़ित युवतियों से प्रत्यक्ष मिली हैं और उनके दर्द को समझने का प्रयास किया है।
धरती पर सबसे अधिक पवित्र कुछ है तो वह प्रेम है। प्रेम के सभी रूप मनुष्य के जीवन को सुंदर बनाते हैं। यह शाश्वत सत्य है कि जिसको किसी प्रकार जीतना संभव न हो, उसे प्रेम जीता जा सकता है। प्रेम में एक-दूसरे पर अटूट भरोसा हो जाता है। इस अटूट भरोसे के कारण ही कई बार प्रेम के मुखौटे के पीछे छिपी घिनौनी सूरत को हम देख नहीं पाते हैं। जब यह मुखौटा हटता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। कहानीकार डॉ. वंदना गांधी की पुस्तक निश्चित ही बहुत देर होने से पहले ऐसे घिनौने चेहरों से मुखौटे नौंचने का कार्य करेगी। उनकी यह पुस्तक हिन्दू युवतियों को सावधान करती है कि उन्हें जरा एक बार अच्छे से पड़ताल करनी चाहिए कि वह जिसे प्रेम समझ रही हैं, वह वास्तव में प्रेम ही है या कुछ और।
डॉ. वंदना गांधी की यह कहानियां बताती हैं कि यह सिर्फ प्रेम में धोखे की दास्तां मात्र नहीं है, बल्कि सामाजिक ताने-बाने को छिन्न करने वाला पूरा एक षड्यंत्र है। अब यह कोई छिपा हुआ षड्यंत्र नहीं है कि हिन्दू युवतियों का धर्मांतरण करने के लिए सुनियोजित ढंग से ‘लव जिहाद’ शुरू किया गया है। तथाकथित प्रगतिशील लोग इसे भाजपा और आरएसएस का राजनीतिक एजेंडा कह कर खारिज कर सकते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा या आरएसएस से भी पहले ‘लव जिहाद’ शब्द का उपयोग वर्ष 2009 में न्यायमूर्ति केटी शंकरन ने किया था। केरल हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति केटी शंकरन ने मुस्लिम लड़के और हिन्दू युवती की शादी के मामले की सुनवाई करते समय कहा था कि देश में लव जिहाद चल रहा है। बाद में, केरल से चर्चा में आए लव जिहाद के मामले देश के कई हिस्सों से भी सामने आए, जो स्पष्टतौर पर न्यायमूर्ति केटी शंकरन के कहे को सत्य सिद्ध करते हैं। यह पुस्तक भी लव जिहाद की ऐसी कहानियां का संग्रह है। पुस्तक यह स्पष्ट करती है कि यह किसी का राजनीतिक एजेंडा हो या न हो, किंतु यह एक सामाजिक संकट जरूर है। इस पर राजनीतिक बहस कम और सामाजिक दृष्टि से विमर्श अधिक होना चाहिए।
मुस्लिम समाज भी कोरी कल्पना कह कर ‘लव जिहाद’ नकार नहीं सकता। यथार्थ में क्या है? यह भी मुस्लिम समाज को देखना होगा। घटनाएं और मुस्लिम समाज का व्यवहार तो यही बयां करता है कि मुस्लिम समाज का कट्टरपंथी धड़ा ‘लव जिहाद’ की अवधारणा पर काम तो कर रहा है। वरना क्या कारण है कि मुस्लिम युवक से विवाह करने वाली प्रत्येक लड़की को इस्लाम कबूल करना पड़ता है? मुस्लिम लड़का क्यों नहीं हिन्दू धर्म अपनाता? यह कैसा प्रेम है कि हिन्दू लड़की को ही अपने धर्म का त्याग करना पड़ता है? हिन्दू लड़की के सामने इस्लाम अपनाने के अलावा कोई रास्ता नहीं छोडऩा, लव जिहाद नहीं तो क्या है? यह तो स्पष्टतौर पर धर्मांतरण का तरीका है। ज्यादातर मामलों में यह भी देखने में आता है कि युवक अपनी मजहबी पहचान छिपा कर हिन्दू लड़की से मुलाकात बढ़ाता है। झूठ की बुनियाद पर बनाया गया संबंध प्रेम कतई नहीं हो सकता।
पुस्तक ‘एक मुखौटा ऐसा भी’ निश्चित तौर पर अपने उद्देश्य को पूरा करने में सफल होगी। एक षड्यंत्र के विरुद्ध जागरूकता लाने में यह पुस्तक सहायक सिद्ध होगी। डॉ. गांधी कहती हैं कि लव जिहाद की खौफनाक हकीकत सामने लाकर उन्हें बहुत संतोष है। यह किताब कॉलेज छात्राओं के लिए गीता साबित होगी। हर युवती को इस किताब को जरूर पढ़ना चाहिए। अर्चना प्रकाशन को साधुवाद कि उसने ऐसे विषय पर पुस्तक प्रकाशित करने का साहस दिखाया, जिस पर दुर्भाग्यपूर्ण राजनीति हो रही है। इस संबंध में अर्चना प्रकाशन के ट्रस्टी ओमप्रकाश गुप्ता कहते हैं कि लव जेहाद की सच्ची घटनाओं पर देश में यह पहली किताब है। इस किताब में उन युवतियों की पीड़ा को उजागर किया गया है, जो गलत कदम उठाने के बाद अब पछता रही हैं। दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में विमोचित इस कृति ने पर्याप्त चर्चा प्राप्त की है।
पुस्तक : एक मुखौटा ऐसा भी (लव जिहाद पर केंद्रित कहानी संग्रह)
लेखक : डॉ. वंदना गांधी
मूल्य : 80 रुपये (पेपरबैक)
पृष्ठ : 86
प्रकाशक : अर्चना प्रकाशन,
17, दीनदयाल परिसर, ई-2, महावीर नगर, भोपाल
दूरभाष – 0755-2420551
समीक्षक – लोकेन्द्र सिंह, स्वतंत्र टिप्पणीकार (विसंके)
पीएम स्ट्रीट वेंडर्स आत्म-निर्भर निधि (पीएम स्वनिधि) योजना के तहत ऋण देने की प्रक्रिया के शुरू होने के 41 दिनों के भीतर पांच लाख लोगों ने ऋण के लिए आवेदन किया है, जबकि एक लाख लोगों को ऋण उपलब्ध कराया जा चूका है। पीएम स्वनिधि योजना को केंद्रीय आवास एवं शहरी कार्य मंत्रालय ने ‘आत्म-निर्भर भारत अभियान’ के तहत लॉन्च किया था।
आवास एवं शहरी कार्य मंत्रालय के अनुसार इस योजना के तहत २ जुलाई से ऋण देने की प्रक्रिया शुरू की गयी थी। इसका उद्देश्य शहरी क्षेत्रों और उसके आसपास के अर्द्ध-शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों के लगभग 50 लाख स्ट्रीट वेंडर (रेहड़ी वाले छोटे व्यापारियों) को कोविड-19 लॉकडाउन के बाद फिर से अपना कारोबार शुरू करने के लिए बिना किसी की गारंटी के एक साल की अवधि के लिए 10,000 रुपये तक के कार्यशील पूंजी ऋण की सुविधा देना है। इसके तहत ऋण के नियमित किश्त चुकाने पर प्रोत्साहन के रूप में प्रति वर्ष 7 प्रतिशत की ब्याज सब्सिडी दी जाएगी। इसके आलावा निर्धारित डिजिटल लेनदेन करने पर सालाना 1,200रुपये तक का कैशबैक और आगे फिर से ऋण पाने की पात्रता भी प्रदान की गई है।
पीएम स्वनिधि योजना में व्यावसायिक बैंकों- सार्वजनिक एवं निजी, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों, सहकारी बैंकों, स्वयं सहायता समूह (SHG) बैंकों आदि के अलावा ऋण देने वाली संस्थाओं के रूप में गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFC)और लघु वित्तीय संस्थानों (MFI) को योजना से जोड़कर इन छोटे उद्यमियों के द्वार तक बैंकों की सेवाएं पहुंचाने का विचार किया गया है। डिजिटल भुगतान प्लेटफॉर्म पर इन विक्रेताओं को लाना इनके क्रेडिट प्रोफाइल का निर्माण करने के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटक है ताकि इन्हें औपचारिक शहरी अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनने में मदद मिल सके।
इस योजना को लागू करने की जिम्मेदारी भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (SIDB) को दी गई है। रेहड़ी-खोमचे वालों को उधार देने के लिए इन ऋणदाता संस्थानों को लघु एवं मध्यम उद्योगों के लिए क्रेडिट गारंटी फंड ट्रस्ट (CGTMS) के माध्यम से प्रोत्साहित करने हेतु इनके पोर्टफोलियो के आधार पर एक ग्रेडेड गारंटी कवर प्रदान किया जाता है।
सड़कों पर रेहड़ी लगाकर व्यापार करने वाले ज्यादातर विक्रेता बहुत कम लाभ पर अपना व्यवसाय करते हैं। इस योजना के तहत ऐसे विक्रेताओं को लघु ऋण से न केवल बड़ी राहत मिलने की उम्मीद है,बल्कि उन्हें आर्थिक प्रगति करने में भी मदद मिलेगी।
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत द्वारा मंगलवार को सचिवालय की व्यवस्थाओं को लेकर की गई समीक्षा बैठक को कई मायनों में अहम जा सकता है। मुख्यमंत्री ने शासन के “पावर हाउस” की ओवरहालिंग की जो कवायद शुरू की है, उसकी जरुरत लम्बे समय से महसूस की जा रही थी। जनाकांक्षाओं का केंद्र समझे जाने वाले सचिवालय की कार्यप्रणाली कई बार “जन” से दूर होकर अधिकारियों-कर्मचारियों की गुटबाजी, राजनीति, अपनी मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन व कई अन्य विवादों तक ही सिमट कर रह जाती है। बेवजह फाइलों को दबाए रखना और उन्हें घुमाना जैसे आरोप सचिवालय की कार्यप्रणाली के लिए सामान्य बात है।
उत्तराखंड के सचिवालय की यह कार्यप्रणाली मुख्यमंत्री को भी खटक गयी है। मुख्यमंत्री ने कहा कि सचिवालय जन आकांक्षाओं का भी केन्द्र होता है। जनहित से जुड़ी योजनाओं की स्वीकृति में तेजी आने से उसका लाभ आम आदमी को समय पर मिल सकेगा और जन कल्याण के लिये समर्पित सरकार का सन्देश आम जनता तक पहुंचेगा। मंगलवार को मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र ने सचिवालय में मुख्य सचिव ओम प्रकाश, अपर मुख्य सचिव मनीषा पंवार के साथ ही सभी सचिवों एवं प्रभारी सचिवों के साथ सचिवालय की कार्य प्रणाली में सुधार एवं ई- फाइलिंग आदि से सम्बन्धित विभिन्न विषयों पर व्यापक चर्चा की तथा इस सम्बंध में सभी से सुझाव भी प्राप्त किये।
फाइल लटकाने वालों के खिलाफ कार्रवाई
समीक्षा बैठक के दौरान मुख्यमंत्री ने सचिवालय के विभिन्न अनुभागों में पत्रावलियों के निस्तारण में आवश्यक विलम्ब के लिये उत्तरदायी कार्मिक के विरूद्ध कठोर कार्रवाई करने के निर्देश उच्चाधिकारियों को दिए। मुख्यमंत्री ने ऐसे प्रकरणों में मात्र स्थानान्तरण को ही पर्याप्त नहीं बताया, बल्कि कार्रवाई भी जरुरी बताई। सचिवालय में पत्रावलियों का निस्तारण समयबद्धता के साथ हो, इसके लिये मुख्यमंत्री ने लोक निर्माण, सिंचाई, आवास, खनन, आबकारी एवं पेयजल जैसे मलाईदार अनुभागों में निर्धारित अवधि से अधिक समय तक कार्यरत कार्मिकों को एक सप्ताह के अन्दर स्थानान्तरित करने के निर्देश सचिव सचिवालय प्रशासन को दिये।
उच्च स्तर से सीधे अनुभाग में जाएगी फाइल
अनावश्यक देरी से बचने के लिए मुख्यमंत्री ने निर्देश दिए कि फाइल अनुभाग स्तर से निर्धारित प्रक्रिया के तहत उच्चाधिकारियों को प्रस्तुत की जाए। मगर वापसी में फाइल को उच्च स्तर से सीधे सेक्शन को सन्दर्भित कर दिया जाए। एक अनुभाग अधिकारी एवं समीक्षा अधिकारी को एक ही विभाग का कार्य सौंपा जाए। कार्मिकों को सभी विभागों की कार्य प्रणाली की जानकारी रहे। इसकी व्यवस्था करने के भी निर्देश मुख्यमंत्री ने सम्बन्धित अधिकारियों को दिये हैं।
शुरू होगी ई-फाईलिंग
मुख्यमंत्री ई- फाईलिंग को सीएम डैशबोर्ड से लिंक किये जाने, लम्बित प्रकरणों का निर्धारित समय सीमा के अन्दर निस्तारण करने के निर्देश देते हुए एक लक्ष्य लेकर पहले लो.नि.वि, सिंचाई, ऊर्जा, कार्मिक एवं गृह विभाग की ई- फाइलिंग तैयार करने को कहा है। मुख्यमंत्री ने सचिवालय मैनुअल के पुनर्मूल्यांकन के भी निर्देश दिये हैं। उन्होंने कहा कि सचिवालय मैनुअल परिणामकारी हो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए। उन्होंने इस सम्बन्ध में मैनुअल रिफॉर्म हेतु गठित समिति से शीघ्र अपनी अनुशंसा उपलब्ध कराने को कहा।
अनुभागों में लगेंगे CCTV कैमरे
मुख्यमंत्री ने सचिवालय के अनुभागों के पर्यवेक्षण की कारगर व्यवस्था बनाने और सचिव स्तर के अधिकारियों को माह में एक दिन अनुभागों का निरीक्षण करने को कहा। उन्होंने कार्मिकों की उपस्थिति की प्रभावी व्यवस्था सुनिश्चित करने के निर्देश भी दिए। इसके साथ ही अनुभागों में सी.सी.टी.वी. कैमरे लगाने और उच्चाधिकारियों के स्तर पर इसकी निगरानी करने को कहा।
वीडियो कांफ्रेंसिंग पर जोर
मुख्यमंत्री ने विभागीय/निदेशालय स्तर के अधिकारियों को अनावश्यक सचिवालय न आना पड़े, इसके लिये वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की व्यवस्था अमल में लाने को कहा है। जनहित में कोई नीति बनायी जाती है तो उसकी ड्राफ्ट पॉलिसी को वेबसाइट पर अपलोड कर दिया जाए। पब्लिक प्लेटफार्म में जाने पर इसमें जनता के सुझाव भी प्राप्त हो सकेंगे तथा एक व्यावहारिक नीति बनाने में मदद मिलेगी।
अच्छे कार्मिक होंगे पुरुष्कृत
मुख्यमंत्री ने कार्मिकों के हित तथा विभागीय कार्यों में गति लाने के लिये विभागों में समय पर डीपीसी करने के निर्देश दिये। उन्होंने प्रत्येक माह के अन्तिम दिवस को डीपीसी के लिये निर्धारित करने के निर्देश दिये। कार्मिकों का वार्षिक मूल्यांकन जरूरी किये जाने और बेहतर कार्य करने वाले कार्मिकों को पुरस्कृत किये जाने की व्यवस्था करने के भी निर्देश मुख्यमंत्री ने दिये।
नई दिल्ली। कुछ चीनी व्यक्तियों और उनके भारतीय सहयोगियों की जाली संस्थाओं के माध्यम से मनी लॉन्डरिंग और हवाला जैसे लेन-देन में शामिल होने की विश्वसनीय जानकारी के आधार आयकर विभाग ने मंगलवार को इन चीनी संस्थाओं के विभिन्न परिसरों, इनके करीबियों और इनसे जुड़े बैंक कर्मचारियों के खिलाफ एक तलाशी अभियान चलाया है।
एक सरकारी प्रेस विज्ञप्ति में यह जानकारी दी गयी है। तहकीकात से पता चला है कि इन चीनी व्यक्तियों के इशारे पर, विभिन्न फर्जी संस्थाओं में 40 से अधिक बैंक खाते खोले गए थे। एक निश्चित समयावधि के भीतर ही इनमें 1,000 करोड़ रुपये से अधिक की धनराशि जमा की गई थी। चीनी कंपनी की एक सहायक इकाई और उससे संबंधित जाली संस्थाओं ने भारत में खुदरा शोरूम खोलने के कारोबार के लिए जाली संस्थाओं से 100 करोड़ रुपये से अधिक की अग्रिम धनराशि प्राप्त की है। इसके अलावा, तलाशी के दौरान हवाला लेन-देन और मनी लॉन्डरिंग के दस्तावेजों को नष्ट करने में कुछ बैंक कर्मचारियों और चार्टेड अकाउंटेंट के सक्रिय रूप लिप्त होने की भी जानकारी मिली है। छानबीन के दौरान हांगकांग व अमेरिकी डॉलर के विदेशी हवाला लेन-देन के सबूतों का भी खुलासा हुआ है। इस मामले में आगे की जांच प्रक्रिया को अंजाम दिया जा रहा है।
केन्द्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स, सूचना प्रोद्योगिकी, संचार तथा विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि केंद्र सरकार सामरिक महत्व के दूर-दराज तथा सीमावर्ती क्षेत्रों में मोबाइल कनेक्टिविटी प्रदान करने के लिए प्राथमिकता के आधार पर प्रयास कर रही है ताकि यहां जीवन सुगम बनाया जा सके।
दिल्ली में मीडियाकर्मियों से बातचीत करते हुए प्रसाद ने दूर-दराज के क्षेत्रों में कनेक्टिविटी प्रदान करने के लिए दूरसंचार विभाग द्वारा कार्यान्वित की जा रही विभिन्न परियोजनाओं के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि रणनीतिक, दूरस्थ और सीमावर्ती क्षेत्रों में 354 गांवों में ऐसी कनेक्टिविटी प्रदान करने के लिए एक निविदा को अंतिम रूप दिया गया है। बिहार, राजस्थान, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और गुजरात के अन्य प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के 144 गांवों में जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेशों में इसे लागू किया जा रहा है। इन गांवों को रणनीतिक रूप से मोबाइल पर सीमा क्षेत्र कनेक्टिविटी को कवर करने के लिए चुना गया है। इन गांवों में चालू होने के बाद, मोबाइल कनेक्टिविटी के लिए जम्मू-कश्मीर, लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेशों में कोई भी ऐसा गाँव नहीं होगा जहां मोबाइल कनेक्टिवविटी उपलब्ध नहीं होगी। सेना, बीआरओ, बीएसएफ, सीआरपीएफ, आईटीबीपी, एसएसबी आदि के लिए 1347 साइटों पर उपग्रह आधारित डीएसपीटी डिजिटल सैटेलाइट फोन टर्मिनल (डीएसपीटी) भी प्रदान किए जा रहे हैं, जिनमें से 183 साइटें पहले से ही चालू हैं और शेष चालू होने की प्रक्रिया में हैं।
केन्द्रीय मंत्री ने यह भी बताया कि दूरसंचार विभाग बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश के 24 जिलों के गाँवों में मोबाइल कनेक्टिविटी प्रदान करने पर काम कर रहा है। छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड, आंध्र प्रदेश में बचे हुए 44 जिलों के 7287 के गांवों को भी कवर किया जाएगा जिसके लिए सरकार की मंजूरी प्राप्त करने की प्रक्रिया चल रही है।
हिमालयी क्षेत्र में पाए जाने वाले गर्म पानी के सोते (Hot Water Spring) बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का उत्सर्जन करते हैं। यह तथ्य वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ हिमालयन जियोलॉजी के एक अध्ययन में सामने आया है।
वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ हिमालयन जियोलॉजी केंद्र सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय अधीन एक स्वायत्त संस्थान है। इसका मुख्यालय देहरादून में स्थित है। संस्थान द्वारा किये गए अध्ययन की एक वैज्ञानिक पत्रिका एनवायरनमेंटल साइंस एंड पॉल्यूशन रिसर्च में रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने एक विज्ञप्ति में कहा की ज्वालामुखी विस्फोटों, भू-गर्भीय चट्टानों और भू-तापीय प्रणाली के माध्यम से पृथ्वी के आंतरिक भाग से वायुमंडल में निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड गैस वैश्विक कार्बन चक्र पर असर डालती है और यह पृथ्वी पर छोटे और लंबे समय तक जलवायु को प्रभावित करती है।
अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के लगभग 10,000 वर्ग किमी के हिमालयी क्षेत्र में लगभग 600 गर्म पानी के सोते हैं। विभिन्न तापमान और रासायनिक स्थितियों वाले ये भूगर्भीय सोते (Geothermal Springs) कार्बन डाइऑक्साइड का डिस्चार्ज करते पाए गए हैं। वाडिया इंस्टीट्यूट को इन सोतों से उत्सर्जित होने वाली गैस की जांच करने की विशेषज्ञता है। वैज्ञानिकों की टीम ने गढ़वाल में हिमालय के प्रमुख फॉल्ट क्षेत्रों से 20 गर्म पानी के इन सोतों से एकत्र किए गए पानी के नमूनों का विस्तृत रासायनिक और आइसोटोप विश्लेषण किया। आइसोटोपिक माप में कार्बनिक और अकार्बनिक यौगिकों के भीतर कुछ स्थिर आइसोटोप और रासायनिक तत्वों की प्रचुरता की पहचान के साथ-साथ सभी नमूनों का विश्लेषण किया गया।
Coordinated, graded and pro-active management of COVID-19 by the Union and State/UT governments has ensured the national Case Fatality Rate (CFR) is on the slide. It currently stands at 2.04%.
As part of the continuous process of review and handholding of States/UTs for collaborative management of COVID-19, two high level virtual meetings were chaired by Rajesh Bhushan, Health Secretary on 7th and 8th August to engage with the States reporting with high case load and higher CFR than the national average, in order to advise and support them on efforts to prevent and reduce mortality due to COVID-19.
Meeting focused on 13 districts concentrated in eight States/UT. These are Kamrup Metro in Assam, Patna in Bihar, Ranchi in Jharkhand, Alappuzha and Thiruvananthapuram in Kerala, Ganjam in Odisha, Lucknow in Uttar Pradesh, 24 Paraganas North, Hooghly, Howrah, Kolkata and Maldah in West Bengal and Delhi. These districts account for nearly 9% of India’s active cases and about 14% of COVID deaths.
They also report low tests per million and high confirmation percentage. A surge has been observed in the daily new cases in four districts viz. Kamrup Metro in Assam, Lucknow in Uttar Pradesh, Thiruvananthapuram and Alappuzha in Kerala. Principal Secretary (Health) and MD (NHM) from the eight States along with district surveillance officers, district collectors, commissioners of the municipal corporation, Chief Medical Officers, and Medical Superintendent of Medical Colleges participated in the virtual meeting.
Several issues critical to reducing case fatality rate were discussed during the meeting. The States were advised to address the issues of low lab utilisation i.e. less than 100 tests per day for RT-PCR and 10 for others; low tests per million population; decrease in absolute tests from last week; delay in test results; and high confirmation percentage among the health care workers. They were advised to ensure timely referral and hospitalization in view of reports from some districts of patients dying within 48 hrs of admission.
States were directed to ensure unavailability of ambulances with zero tolerance for refusal. The need to ensure monitoring asymptomatic cases under home isolation with special focus on physical visits/phone consultation on daily basis was underscored. States were asked to ensure a timely assessment and make advance preparedness for infrastructure viz. ICU beds, oxygen supply etc., based on the prevailing case load and the estimated growth rate.
It was reiterated that AIIMS, New Delhi is holding virtual sessions twice very week on Tuesdays and Fridays where a specialist team of doctors provides guidance on effective clinical management of COVID-19 patients in the ICUs of different State hospitals through tele/video consultation, to reduce the case fatality rate. The State authorities were advised to ensure that State Centers of Excellence other hospitals participate in these VCs regularly to improve clinical practices.
The States were advised to follow all Ministry protocols for effective management of containment and buffer zones along with seamless patient and clinical management of patients with special focus on critical cases. Another major area highlighted was that of preventable deaths by strict surveillance among high-risk population like people with co-morbidities, pregnant women, the elderly and children.