हम अपनी ज़िंदगी का लगभग एक तिहाई हिस्सा सोने में बिताते हैं। यह सुनने में भले ही लंबा लगे, लेकिन नींद शरीर और दिमाग दोनों के लिए उतनी ही जरूरी है जितनी कि खाना या सांस लेना। नींद सिर्फ आराम का समय नहीं है—यह शरीर की मरम्मत और मस्तिष्क को स्वस्थ रखने का अहम हिस्सा है।
हाल ही में हुए एक बड़े अध्ययन में यह खुलासा हुआ कि जिन लोगों की नींद खराब थी, उनका मस्तिष्क उनकी वास्तविक उम्र से ज़्यादा बूढ़ा दिख रहा था।
27,000 लोगों पर हुआ अध्ययन
यूके में 40 से 70 वर्ष की उम्र के 27,000 से अधिक लोगों के नींद के पैटर्न और मस्तिष्क के एमआरआई स्कैन का विश्लेषण किया गया। परिणाम चौंकाने वाले थे। जिन लोगों की नींद की गुणवत्ता खराब थी, उनके दिमाग की उम्र उनकी असली उम्र से कहीं अधिक पाई गई।
मस्तिष्क का “बूढ़ा होना” कैसे होता है?
जैसे शरीर बूढ़ा होने पर झुर्रियां पड़ती हैं, वैसे ही मस्तिष्क में भी उम्र के साथ बदलाव आते हैं। लेकिन हर मस्तिष्क एक ही गति से बूढ़ा नहीं होता।
आधुनिक तकनीक और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से वैज्ञानिक अब मस्तिष्क की “जैविक उम्र” का अनुमान लगा सकते हैं। इसमें ऊतक घनत्व, कॉर्टेक्स की मोटाई और रक्त वाहिकाओं की स्वास्थ्य स्थिति का मूल्यांकन किया जाता है।
मस्तिष्क की उम्र कैसे मापी गई?
अध्ययन में 1,000 से अधिक एमआरआई संकेतों (इमेजिंग मार्कर) का विश्लेषण किया गया। मशीन लर्निंग मॉडल को उन लोगों के डेटा पर प्रशिक्षित किया गया जिनकी सेहत पूरी तरह ठीक थी। फिर बाकी प्रतिभागियों के परिणामों से तुलना की गई।
नतीजा: खराब नींद वाले लोगों में मस्तिष्क की उम्र असल उम्र से अधिक पाई गई। इसका मतलब है कि खराब नींद मस्तिष्क को समय से पहले बूढ़ा कर सकती है, जिससे भविष्य में संज्ञानात्मक क्षमता में कमी, डिमेंशिया और असमय मृत्यु का खतरा बढ़ सकता है।
नींद के पांच पहलुओं का विश्लेषण
शोध में नींद के निम्न पांच पहलुओं को ध्यान में रखा गया:
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व्यक्ति का क्रोनोटाइप (सुबह का या रात का व्यक्ति)
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औसतन कितने घंटे की नींद लेते हैं (7–8 घंटे आदर्श माने गए)
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अनिद्रा या सोने में कठिनाई
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खर्राटे लेना
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दिन में अत्यधिक नींद या थकान महसूस करना
इन सभी पहलुओं को जोड़कर “स्वस्थ नींद स्कोर” बनाया गया। जिनके चार या पांच पहलू स्वस्थ थे, उनकी नींद सबसे अच्छी पाई गई। वहीं जिनके पास केवल एक या दो स्वस्थ पहलू थे, उनमें मस्तिष्क की उम्र सबसे अधिक बढ़ी हुई दिखी।
सूजन और मस्तिष्क उम्र का संबंध
अध्ययन में प्रतिभागियों के खून के नमूनों का विश्लेषण भी किया गया। पाया गया कि खराब नींद शरीर में सूजन को बढ़ाती है। यह सूजन मस्तिष्क की उम्र बढ़ाने की प्रक्रिया में लगभग 10% योगदान करती है।
अपनी नींद कैसे सुधारें?
वैज्ञानिकों के अनुसार, कुछ सरल आदतों से नींद की गुणवत्ता बेहतर हो सकती है:
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सोने से पहले कैफीन, शराब और मोबाइल स्क्रीन से दूरी रखें
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अंधेरा और शांत वातावरण तैयार करें
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हर दिन एक ही समय पर सोने और उठने की आदत डालें
इन छोटे बदलावों से न केवल नींद सुधरेगी, बल्कि आपका मस्तिष्क भी लंबे समय तक जवान और सक्रिय रहेगा।
आज की तेज़ रफ्तार ज़िंदगी में थकान महसूस होना या कुछ बाल झड़ना अब आम बात लगती है। हममें से ज़्यादातर लोग इसे काम के बोझ, तनाव या नींद की कमी से जोड़कर अनदेखा कर देते हैं। लेकिन अगर पर्याप्त आराम के बावजूद आप हर समय थके-थके रहते हैं, ऊर्जा की कमी महसूस करते हैं और बाल सामान्य से कहीं ज़्यादा झड़ रहे हैं, तो यह सिर्फ एक साधारण समस्या नहीं, बल्कि किसी गंभीर बीमारी का संकेत भी हो सकता है।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि लगातार थकान और बाल झड़ना थायराइड जैसी हार्मोनल समस्या की शुरुआती चेतावनी हो सकती है। यह एक ऐसी स्थिति है, जब गले में मौजूद तितली के आकार की थायराइड ग्रंथि पर्याप्त मात्रा में हार्मोन नहीं बना पाती, जिससे शरीर का मेटाबॉलिज्म प्रभावित होने लगता है।
क्यों होते हैं थकान और बाल झड़ने के लक्षण?
थायराइड ग्रंथि हमारे शरीर की ऊर्जा निर्माण और उपयोग की प्रक्रिया यानी मेटाबॉलिज्म को नियंत्रित करती है।
थायराइड दो तरह का होता है —
हाइपरथायरॉयडिज्म (Overactive Thyroid) – जब हार्मोन ज़रूरत से ज़्यादा बनते हैं।
हाइपोथायरॉयडिज्म (Underactive Thyroid) – जब हार्मोन पर्याप्त मात्रा में नहीं बनते।
हाइपोथायरॉयडिज्म की स्थिति में शरीर की ऊर्जा उत्पादन प्रक्रिया धीमी हो जाती है, जिससे लगातार थकान, सुस्ती और कमजोरी महसूस होती है। साथ ही, थायराइड हार्मोन बालों की जड़ों के विकास में अहम भूमिका निभाते हैं। जब हार्मोन की कमी होती है, तो बालों की ग्रोथ साइकिल प्रभावित होती है, जिससे बाल रूखे, बेजान और झड़ने लगते हैं।
हाइपोथायरॉयडिज्म के अन्य शुरुआती लक्षण
थकान और बाल झड़ने के अलावा इसके और भी संकेत हो सकते हैं—
वजन में अचानक वृद्धि
ठंड अधिक लगना
त्वचा का रूखापन और बालों का टूटना
कब्ज की समस्या
मूड में बदलाव और एकाग्रता में कमी
किन लोगों को होता है अधिक खतरा?
थायराइड की समस्या महिलाओं में पुरुषों की तुलना में अधिक आम है, खासकर 30 वर्ष की उम्र के बाद।
यदि परिवार में किसी को यह समस्या रही है, तो आनुवंशिक रूप से इसका जोखिम बढ़ जाता है।
इसके अलावा, ऑटोइम्यून बीमारियां, आयोडीन की कमी, और हार्मोनल बदलाव भी इसके प्रमुख कारण हो सकते हैं।
क्या करें?
अगर आप लंबे समय से थकान, वजन बढ़ने या बाल झड़ने की समस्या झेल रहे हैं, तो इसे नजरअंदाज न करें।
TSH टेस्ट जैसे सामान्य ब्लड टेस्ट से थायराइड की पहचान आसानी से की जा सकती है।
समय पर जांच और उचित दवा से इस बीमारी को पूरी तरह नियंत्रित किया जा सकता है।
संतुलित आहार, पर्याप्त नींद और नियमित व्यायाम भी थायराइड को नियंत्रित रखने में मदद करते हैं।
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अच्छी सेहत के लिए फिटनेस एक्सपर्ट्स हमेशा नियमित शारीरिक गतिविधि पर जोर देते हैं। रनिंग और वॉकिंग जैसे साधारण अभ्यास न सिर्फ कैलोरी बर्न करने और वजन नियंत्रित रखने में मदद करते हैं, बल्कि हृदय स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन के लिए भी बेहद लाभकारी माने जाते हैं। सुबह की रनिंग तो खासतौर पर इम्यून सिस्टम को मजबूत करने और मूड बेहतर बनाने के लिए जानी जाती है।
हालांकि, हाल के कुछ अध्ययनों ने चेतावनी दी है कि जहां संतुलित रनिंग शरीर के लिए वरदान है, वहीं अत्यधिक और लगातार लंबी दौड़ करने से कोलन कैंसर (बड़ी आंत का कैंसर) का खतरा भी बढ़ सकता है।
रनिंग के फायदे
पिछले कई शोध बताते हैं कि नियमित दौड़ना असमय मृत्यु के खतरे को कम करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, हर साल लगभग 32 लाख लोग पर्याप्त शारीरिक गतिविधि न करने की वजह से समय से पहले मौत का शिकार होते हैं। ब्रिटिश जर्नल ऑफ स्पोर्ट्स मेडिसिन की रिपोर्ट कहती है कि रनिंग करने वालों में हृदय रोग से मौत का खतरा 30% और कैंसर से मौत का खतरा 23% तक कम हो सकता है।
हालिया शोध में नई सावधानी
लेकिन इसी बीच शिकागो में हुई अमेरिकन सोसायटी ऑफ क्लिनिकल ऑन्कोलॉजी (ASCO) 2025 की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत रिपोर्ट ने नए सवाल खड़े किए हैं। अध्ययन में पाया गया कि लंबी दूरी की दौड़ या मैराथन पूरी करने वाले धावकों में कोलन कैंसर के शुरुआती लक्षण अधिक पाए गए।
अध्ययन की प्रमुख बातें
शोध में 35 से 50 वर्ष के 100 प्रतिभागियों को शामिल किया गया, जिन्होंने कम से कम 5 मैराथन या 2 अल्ट्रामैराथन पूरी की थीं।
कोलोनोस्कोपी जांच में सामने आया कि 15% धावकों में एडवांस्ड एडेनोमा (प्री-कैंसर घाव) थे।
41% प्रतिभागियों में कम से कम एक एडेनोमा मौजूद था।
शोधकर्ताओं का मानना है कि लंबी दूरी की रनिंग के कारण पाचन तंत्र पर अत्यधिक दबाव पड़ता है, जिससे आंतों में इंफ्लेमेशन और कैंसर का खतरा बढ़ सकता है।
विशेषज्ञों की राय
गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल कैंसर प्रोग्राम के सह-निदेशक डॉ. टिम कैनन कहते हैं—
“यह पहला ऐसा अध्ययन है जिसने संकेत दिया कि अत्यधिक दौड़ने वाले लोगों में कोलोरेक्टल कैंसर का जोखिम अधिक हो सकता है। ऐसे लोगों के लिए नियमित कैंसर स्क्रीनिंग बेहद जरूरी है।”
संतुलन है सबसे जरूरी
स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि रनिंग को पूरी तरह छोड़ने की जरूरत नहीं है। बल्कि इसे संतुलित तरीके से, सही डाइट, पर्याप्त पानी और आराम के साथ करना चाहिए। रोजाना 15-20 मिनट की हल्की दौड़ या तेज वॉक पर्याप्त है।
अत्यधिक या लंबी दूरी की रनिंग से बचकर ही रनिंग को स्वास्थ्य के लिए फायदे का सौदा बनाया जा सकता है।
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आजकल बाजार और रेस्टोरेंट में सोया चाप का क्रेज बढ़ता जा रहा है। शाकाहारी और जिम जाने वाले लोग इसे प्रोटीन का अच्छा स्रोत मानकर बड़ी चाव से खाते हैं। स्ट्रीट फूड हो या होम रेसिपी, हर जगह सोया चाप की लोकप्रियता बढ़ रही है।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि ज्यादातर बाजार में मिलने वाला सोया चाप आपके शरीर के लिए उतना फायदेमंद नहीं हो सकता, जितना आप सोचते हैं? असल में कई बार इसे बनाने में सोया की जगह मैदा और अन्य अनहेल्दी सामग्री ज्यादा मिलाई जाती है।
सोया चाप में प्रोटीन की मात्रा कितनी है?
सोया प्रोटीन का अच्छा स्रोत है, यह सच है। लेकिन बाजार में तैयार होने वाले सोया चाप में अक्सर लागत कम करने के लिए ज्यादा मैदा और मिलावट होती है। कई जगहों पर मैदे की मात्रा सोया से भी ज्यादा होती है। इसलिए, जो आप प्रोटीन की उम्मीद में खा रहे हैं, वह असल में कार्ब्स और खाली कैलोरी हो सकती है।
मैदा के नुकसान
मैदा एक रिफाइंड कार्ब है, जिसमें फाइबर नहीं होता। यह जल्दी पचता है और ब्लड शुगर बढ़ा देता है। डायबिटीज के मरीजों के लिए यह खतरनाक हो सकता है और स्वस्थ लोगों में भी वजन बढ़ाने और सूजन जैसी समस्याओं को बढ़ावा दे सकता है।
पकाने का तरीका और भी जोखिम भरा
सोया चाप को स्वादिष्ट बनाने के लिए इसे अक्सर डीप फ्राई किया जाता है और फिर भारी ग्रेवी में पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में अनहेल्दी फैट और कैलोरी बढ़ जाती है, जिससे यह हेल्दी विकल्प के बजाय नुकसानदेह बन जाता है।
स्वस्थ विकल्प
अगर आप प्रोटीन लेना चाहते हैं, तो सोया चाप पर पूरी तरह निर्भर न रहें। इसके बजाय पनीर, टोफू, दालें, छोले, राजमा और सोयाबीन जैसे शुद्ध प्रोटीन स्रोत अपनाएं। ये विकल्प सेहत और पोषण दोनों के लिए बेहतर हैं।
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नहाना हमारी रोजमर्रा की आदत है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसे सही तरीके से शुरू करना आपके स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी है? विशेषज्ञों के अनुसार, सीधे सिर पर पानी डालकर नहाना खतरनाक हो सकता है और गंभीर स्वास्थ्य जोखिम पैदा कर सकता है। आइए जानते हैं, नहाने की सही शुरुआत और ‘एक्लेमटाइजेशन’ की महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में।
‘एक्लेमटाइजेशन’ क्या है?
वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. बीपीएस त्यागी बताते हैं कि नहाते समय हमारा शरीर पानी के तापमान के अनुसार एडजस्ट करता है, जिसे ‘एक्लेमटाइजेशन’ कहते हैं। अचानक ठंडा या गर्म पानी सिर पर डालने से शरीर को तालमेल बनाने का मौका नहीं मिलता और यह एक तरह का शॉक पैदा कर सकता है।
नहाने की सही शुरुआत:
डॉ. त्यागी के मुताबिक, नहाने की शुरुआत हमेशा नाभि के आसपास पानी डालकर करनी चाहिए। हल्का पानी हाथ में लेकर नाभि पर डालें और 1-2 मिनट वहीं रहने दें। इससे शरीर धीरे-धीरे पानी के तापमान के अनुकूल हो जाता है और नसें और रक्त वाहिकाएं भी सुरक्षित रहती हैं।
सीधे सिर पर पानी डालना क्यों खतरनाक है:
यदि पानी बहुत ठंडा है, तो रक्त वाहिकाएं सिकुड़ सकती हैं और रक्त के थक्के बन सकते हैं। वहीं बहुत गर्म पानी ब्लड प्रेशर पर असर डाल सकता है और ब्रेन हेमरेज का खतरा बढ़ा सकता है। डॉक्टरों के अनुसार कई हार्ट अटैक और ब्रेन स्ट्रोक के मामले इसी आदत से जुड़े होते हैं।
विशेष ध्यान:
विशेषकर बच्चों और बुजुर्गों के लिए यह तरीका बेहद जरूरी है। नाभि से शुरुआत करने से शरीर का तापमान संतुलित रहता है और स्वास्थ्य जोखिम काफी कम हो जाते हैं।
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हम अक्सर अपनी सेहत को नज़रअंदाज़ कर देते हैं और अनजाने में ही अपने शरीर के सबसे अहम अंग – लिवर – के दुश्मन बन बैठते हैं। बदलती जीवनशैली, असंतुलित खानपान और नशे की लत ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि अब न सिर्फ बुजुर्ग बल्कि युवा भी तेजी से क्रॉनिक बीमारियों और लिवर रोगों का शिकार हो रहे हैं। अगर समय रहते सुधार नहीं किया गया, तो आने वाले दशकों में यह समस्या देश की बड़ी आबादी को प्रभावित कर सकती है, जिसका सीधा असर अर्थव्यवस्था और स्वास्थ्य सेवाओं पर भी पड़ेगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की रिपोर्ट बताती है कि हर साल करीब 20 लाख लोग लिवर से जुड़ी बीमारियों के कारण अपनी जान गंवा देते हैं। हृदय रोग और कैंसर के बढ़ते मामलों के बीच अब लिवर रोगों की महामारी की चेतावनी और चिंता बढ़ा रही है।
भारत में भी स्थिति गंभीर है। विशेषज्ञ बताते हैं कि नॉन-अल्कोहलिक फैटी लिवर डिज़ीज (NAFLD) के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं, जो करीब 38% वयस्कों और 35% बच्चों को प्रभावित कर रहा है। मोटापा, जंक फूड और गतिहीन जीवनशैली इसके बड़े कारण हैं। लेकिन सबसे खतरनाक वजह मानी जा रही है – अल्कोहल। डॉक्टरों का मानना है कि शराब की थोड़ी मात्रा भी लिवर के लिए घातक साबित हो सकती है।
शोधों में पाया गया है कि लगातार शराब पीना लिवर की कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाता है, जिससे सिरोसिस, फाइब्रोसिस और लिवर कैंसर जैसी घातक बीमारियां हो सकती हैं। यही वजह है कि विशेषज्ञ अल्कोहल को लिवर रोगों का सबसे बड़ा खतरा मानते हैं।
केंद्रीय मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने भी हाल ही में कहा था कि देश में हर तीसरा व्यक्ति फैटी लिवर डिजीज से ग्रसित हो सकता है। यही कारण है कि डॉक्टर सलाह देते हैं – शराब से दूरी और जीवनशैली में सुधार ही लिवर को स्वस्थ बनाए रखने का सबसे कारगर तरीका है।
संक्षेप में, अगर हमें आने वाले सालों में लिवर रोगों की महामारी से बचना है, तो अभी से सतर्क होना होगा। संतुलित खानपान, नियमित व्यायाम और नशे से परहेज ही इस खतरे को टालने का एकमात्र उपाय है।
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हृदय रोग आज हर उम्र के लोगों के लिए चिंता का कारण बन गया हैं। पहले ये समस्या ज्यादातर बुजुर्गों में देखी जाती थी, लेकिन अब कम उम्र के लोग भी इसका शिकार हो रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार, हर साल लाखों लोग हृदय रोगों के कारण अपनी जान गंवा देते हैं। बदलती जीवनशैली, धूम्रपान, शराब और शारीरिक निष्क्रियता इस संकट के मुख्य कारण माने जा रहे हैं।
धमनियों में प्लाक और हृदय रोग
हृदय रोगों के पीछे सबसे बड़ा कारण है धमनियों में प्लाक का जमना, जिसे मेडिकल भाषा में एथेरोस्क्लेरोसिस कहते हैं। यह धीरे-धीरे रक्त वाहिकाओं को संकीर्ण कर देता है और हृदय तक पर्याप्त रक्त और ऑक्सीजन पहुंचने में बाधा डालता है।
प्लाक मुख्यतः फैट, कोलेस्ट्रॉल, कैल्शियम और मृत कोशिकाओं का मिश्रण होता है। ये रक्त वाहिकाओं की भीतरी परत में जमने लगते हैं और खून के प्रवाह को बाधित करते हैं। शोध बताते हैं कि यह प्रक्रिया कई वर्षों में विकसित होती है और लक्षण सामने आने तक धमनी का अधिकांश हिस्सा ब्लॉक हो चुका होता है।
प्लाक बनने के कारण
अस्वस्थ जीवनशैली: जंक फूड, अधिक तेल-घी, रेड मीट और प्रोसेस्ड फूड।
धूम्रपान और शराब: धमनी की दीवारों को नुकसान पहुंचाते हैं।
डायबिटीज और हाई ब्लड प्रेशर: धमनियों की परत कमजोर करती हैं।
हृदय पर असर
धमनियों में प्लाक जमा होने से हृदय को पर्याप्त रक्त और ऑक्सीजन नहीं मिल पाता। इसके परिणामस्वरूप सीने में दर्द, थकान और सांस लेने में तकलीफ जैसी समस्याएं हो सकती हैं। अगर प्लाक टूट जाए तो रक्त का थक्का बन सकता है, जिससे हार्ट अटैक या स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है।
युवाओं में बढ़ता खतरा
हृदय रोग विशेषज्ञों के अनुसार, युवाओं में यह खतरा मुख्यतः असंतुलित जीवनशैली और धूम्रपान के कारण बढ़ा है। बढ़ा हुआ कोलेस्ट्रॉल भी प्लाक बनने की प्रक्रिया को तेज कर रहा है। अगर समय रहते सावधानी नहीं बरती गई, तो भविष्य में देश की बड़ी आबादी हृदय रोगों की गिरफ्त में आ सकती है।
धमनियों में प्लाक रोकने के आसान उपाय
धूम्रपान बंद करें: यह हृदय के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
संतुलित आहार लें: हेल्दी फैट वाले भोजन जैसे देसी घी, बादाम, अखरोट और मछली शामिल करें। तले-भुने और प्रोसेस्ड फूड कम खाएं।
फाइबर युक्त आहार: गेहूं, जई, दाल, सब्जियां और बीन्स शामिल करें।
नियमित व्यायाम: योग, प्राणायाम और हल्का व्यायाम हृदय स्वास्थ्य के लिए बेहद फायदेमंद हैं।
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प्लास्टिक ने कभी इंसानों की जिंदगी को आसान बनाने का वादा किया था, लेकिन अब यही प्लास्टिक हमारी सेहत के लिए सबसे बड़ा खतरा बनता जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि रोज़मर्रा के पानी की बोतल, पैकेज्ड फूड और प्लास्टिक बैग में मौजूद सूक्ष्म कण, जिन्हें माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है, धीरे-धीरे हमारे शरीर में जमा हो रहे हैं और गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन रहे हैं।
शोधों से पता चला है कि माइक्रोप्लास्टिक अब लगभग हर इंसान के शरीर में मौजूद हैं। साल 2022 के अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पहली बार इंसानों के खून में इन कणों की पुष्टि की। ये छोटे-छोटे कण खून, अंगों और हड्डियों तक पहुंचकर सूजन, कोशिकाओं को नुकसान और गंभीर बीमारियों को जन्म दे सकते हैं।
रोजाना औसतन हर इंसान लगभग 5 ग्राम माइक्रोप्लास्टिक निगल रहा है। यह कण न केवल खाने और पानी के जरिए शरीर में प्रवेश कर रहे हैं, बल्कि हवा और यहां तक कि नमक में भी मौजूद हैं।
हड्डियों पर असर:
ब्राजील के वैज्ञानिकों की समीक्षा में पता चला कि माइक्रोप्लास्टिक हड्डियों की मज्जा में मौजूद स्टेम सेल्स की कार्यक्षमता को प्रभावित करते हैं। इससे हड्डियों का क्षय तेज होता है और ऑस्टियोपोरोसिस जैसी समस्याएं बढ़ती हैं। इंटरनेशनल ऑस्टियोपोरोसिस फाउंडेशन की चेतावनी है कि 2050 तक हड्डियों के टूटने की घटनाएं 32 प्रतिशत तक बढ़ सकती हैं।
फेफड़ों और कैंसर का खतरा:
हवा में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक कण फेफड़ों तक पहुंचकर सूजन, एलर्जी, अस्थमा और लंबे समय में फेफड़ों की क्षमता घटाने का काम कर सकते हैं। कुछ शोधों में इन कणों को कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से भी जोड़ा गया है।
बच्चों के लिए खतरा:
विशेषज्ञों का कहना है कि माइक्रोप्लास्टिक बच्चों के लिए भी खतरा हैं। प्लास्टिक की बोतलों और पैकेज्ड फूड के लगातार इस्तेमाल से शरीर में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा बढ़ती है और शिशुओं में क्रॉनिक बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है।
निष्कर्ष:
विज्ञानियों का मानना है कि अगर समय रहते प्लास्टिक प्रदूषण को नियंत्रित नहीं किया गया, तो भविष्य में लाखों लोग हड्डियों, फेफड़ों और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करेंगे।
(साभार)
आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में लोग घंटों तक एक ही जगह बैठे रहते हैं—चाहे ऑफिस में कंप्यूटर के सामने हों, घर पर टीवी देख रहे हों या मोबाइल स्क्रॉल कर रहे हों। यह आदत धीरे-धीरे हमारी सेहत को अंदर से कमजोर कर रही है। डॉक्टर चेतावनी देते हैं कि लंबे समय तक बैठे रहना जितना खतरनाक है, उससे भी ज्यादा नुकसानदेह है पैरों को क्रॉस करके बैठना।
क्यों है क्रॉस-लेग बैठना हानिकारक?
बहुत से लोग इसे आरामदायक मानते हैं, लेकिन शोध बताते हैं कि पैरों को क्रॉस करके बैठना ब्लड प्रेशर, हृदय रोग और ब्लड क्लॉट जैसी गंभीर बीमारियों का खतरा बढ़ा सकता है। मेडिकल एक्सपर्ट्स के अनुसार, इस पोज़िशन से शरीर का पोश्चर बिगड़ता है और रक्त प्रवाह रुकावट का शिकार हो जाता है।
‘ई-थ्रोम्बोसिस’ और ब्लड क्लॉट का खतरा
नवीनतम अध्ययन बताते हैं कि डेस्क पर लंबे समय तक क्रॉस-लेग बैठना “ई-थ्रोम्बोसिस” का कारण बन सकता है। यह समस्या तब होती है जब शरीर के निचले हिस्से में रक्त का संचार बाधित हो जाता है और खून का थक्का जमने लगता है। यह थक्का अगर फेफड़ों तक पहुंच जाए, तो पल्मोनरी एम्बोलिज्म जैसी जानलेवा स्थिति बन सकती है।
डीप वेन थ्रोम्बोसिस (DVT) का रिस्क
क्रॉस-लेग बैठने से पैरों की नसों पर लगातार दबाव पड़ता है। इससे खून का बहाव धीमा हो जाता है और पैरों में सूजन, झनझनाहट व सुन्नपन जैसे लक्षण दिखाई देने लगते हैं। बार-बार ऐसा करने से डीप वेन थ्रोम्बोसिस (DVT) होने की आशंका बढ़ जाती है।
अन्य स्वास्थ्य समस्याएं
लंबे समय तक इस पोज़िशन में बैठने से ब्लड प्रेशर असामान्य रूप से बढ़ सकता है।
दिल पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है, जिससे हृदय रोग का खतरा रहता है।
रीढ़ की हड्डी पर असमान दबाव पड़ने से पीठ और कमर दर्द बढ़ सकता है।
लंबे समय तक गलत तरीके से बैठना स्कोलियोसिस (रीढ़ का टेढ़ापन) जैसी समस्या भी पैदा कर सकता है।
निष्कर्ष
एक ही पोजिशन में बैठे रहना और खासकर पैरों को क्रॉस करके बैठना आपकी सेहत के लिए गंभीर खतरा साबित हो सकता है। इसलिए हर थोड़ी देर में उठकर चलना-फिरना, स्ट्रेचिंग करना और सही पोश्चर में बैठना बेहद जरूरी है।
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डायबिटीज अब केवल बुजुर्गों तक सीमित नहीं रही, बल्कि हर उम्र के लोगों में तेजी से फैल रही है। विशेषज्ञों के अनुसार, यह सिर्फ ब्लड शुगर बढ़ाने वाली बीमारी नहीं है, बल्कि समय रहते नियंत्रण न करने पर यह आंखों, किडनी और दिल जैसी महत्वपूर्ण अंगों को भी नुकसान पहुंचा सकती है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि हाई शुगर लंबे समय तक शरीर की नसों को कमजोर कर देता है, जिससे पैरों में रक्त का प्रवाह बाधित हो सकता है। इसे डायबिटिक फुट कहा जाता है। अगर इस स्थिति को नजरअंदाज किया जाए, तो पैरों में अल्सर बन सकते हैं और गंभीर मामलों में पैर का हिस्सा काटना भी पड़ सकता है।
डायबिटिक फुट कैसे बनता है?
लंबे समय तक हाई शुगर रहने पर नसें कमजोर हो जाती हैं, जिससे पैरों में दर्द या चोट का एहसास नहीं होता।
रक्त वाहिकाओं के कमजोर होने से पैर तक ऑक्सीजन और खून सही मात्रा में नहीं पहुंचता।
छोटे घाव भी जल्दी ठीक नहीं होते और संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।
सावधानियाँ और बचाव:
पैरों में छोटे-छोटे छाले, कट या फटी एड़ियों पर तुरंत ध्यान दें।
अगर घाव 2-3 हफ्तों में ठीक न हो, बदबू या मवाद आए, या पैर का हिस्सा काला पड़ने लगे तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें।
नियमित शुगर जांच और पैर की देखभाल से डायबिटिक फुट और इसके गंभीर परिणामों से बचा जा सकता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि डायबिटीज और पैर की समस्याओं को नजरअंदाज करना खतरनाक हो सकता है। समय रहते सावधानी ही सबसे बड़ा बचाव है।
(साभार)
