झारखंड की राज्य सरकार ने बहुमत से विधेयक पारित कर घोषित किया कि सरना धर्म को मानने वाले हिन्दू नहीं हैं। सरना, हिन्दू से अलग धर्म है। तभी दूसरी ओर आंध्र प्रदेश की सरकार ने भी निर्णय लिया कि अनुसूचित जनजाति के लोग हिन्दू नहीं हैं और यह मानते हुए 2021 में होने वाली जनगणना के समय उन्हें हिन्दू के स्थान पर अनुसूचित जनजाति श्रेणी के अंतर्गत सूचीबद्ध किया जाएगा। यह दोनों समाचार पढ़कर इन दोनों निर्णय करने वालों में भारतबोध व हिंदुत्व की समझ का अभाव और राजकीय सत्ता के अहंकार का दर्शन हुआ।
हिंदुत्व कोई एक रिलिजन नहीं है। वह एक जीवन दृष्टि है ऐसा सर्वोच्च न्यायालय ने भी मान्य किया है। इस जीवन दृष्टि की विशेषता है कि यह अध्यात्म आधारित है और भारतीय उपखंड में सदियों से रहते आए विभिन्न पद्धति से उपासना करने वाले, विविध भाषा बोलने वाले सभी लोग अपने आप को इसके साथ जोड़ते हैं। इस कारण इसके मानने वालों की, इस भूखंड में रहने वालों की एक अलग पहचान, एक व्यक्तित्व तैयार हुआ है।
उसकी एक विशेषता है – एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति । सत्य या ईश्वर एक है, उसे अनेक नाम से लोग जानते हैं, उसे जानने के अनेक विभिन्न मार्ग हो सकते हैं। ये सभी समान हैं। इसीलिए यहूदी, पारसी, सिरीयन ईसाई अलग-अलग समय पर अपने देश से प्रताड़ित हो कर आश्रय लेने हेतु भारत के भिन्न-भिन्न भू-भागों में आए। वहां के राजा, लोगों की भाषा, लोगों की उपासना पद्धति अलग-अलग होने पर भी भिन्न वंश, भाषा और उपासना वाले, आश्रयार्थ आए लोगों के साथ यहां के लोगों का व्यवहार समान था, सम्मान का और उदारता का था। इसके मूल में यह कारण है। उस व्यक्तित्व की दूसरी विशेषता है – विविधता में एकता को देखना। एक ही चैतन्य विविध रूपों में अभिव्यक्त हुआ है, इसलिए इन विविध रूपों में अंतर्निहित एकता देखने की दृष्टि भारत की रही है।
इसलिए भारत विविधता को भेद नहीं मानता। विविध रूपों में निहित एकता को पहचानकर उन सब की विशेषताओं को सुरक्षित रखते हुए सब को साथ लेने की विलक्षण क्षमता भारत रखता है। तीसरी विशेषता है – प्रत्येक मनुष्य (स्त्री या पुरुष) में दिव्यत्व विद्यमान है। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस दिव्यत्व को प्रकट करते हुए उस परम-दिव्यत्व के साथ एक होने का प्रयत्न करना है। यह दिव्यत्व प्रकट करने का मार्ग प्रत्येक का अलग अलग हो सकता है। वह उसका रिलिजन या उपासना होगी., इन विशेषताओं से युक्त इस व्यक्तित्व को दुनिया अनेक वर्षों से हिंदुत्व के नाते जानती आयी है। उसे कोई भारतीय, सनातन, इंडिक अन्य कोई नाम भी दे सकता है। सभी का आशय एक ही है।
इनमें से कौन सी बात सरना या जनजातीय समाज को स्वीकार नहीं है?
डॉ. राधाकृष्णन ने हिंदुत्व को Common Wealth of all Religions कहा। स्वामी विवेकानंद ने 1893 के अपने शिकागो व्याख्यान में हिंदुत्व को Mother of all Religions बताया। सर्वसमावेशकता, सर्वस्वीकार्यता, विविध मार्ग और विविध रूपों का स्वीकार करने की दृष्टि ही हिंदुत्व है दस हजार वर्षों से भी प्राचीन इस समाज में समय-समय पर लोगों के उपास्य देवता बदलते गए हैं। ऐसे परिवर्तन को स्वीकार करना यही हिंदुत्व है।
स्वामी विवेकानन्द ने 1893 के अपने सुप्रसिद्ध शिकागो व्याख्यान में यह श्लोक उद्धृत किया था।
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥
अर्थ– हे परमपिता!!! आपको पाने के अनगिनत मार्ग हैं – सांख्य मार्ग, वैष्णव मार्ग, शैव मार्ग, वेद मार्ग आदि। लोग अपनी रुचि के अनुसार कोई एक मार्ग पसंद करते हैं। मगर अंत में जैसे अलग अलग नदियों का पानी बहकर समुद्र में जा मिलता है, वैसे ही, ये सभी मार्ग आप तक पहुंचते हैं। सच, किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से आपकी प्राप्ति हो सकती है।
इस भारत के विचार की सुंदरता और सार यह है कि नए नए देवताओं का उद्भव होता रहेगा। पुराने देवताओं को साथ रखते हुए नए को भी समाविष्ट करने की प्रवृत्ति – यही हिंदुत्व है।
गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर ने स्पष्ट कहा – अनेकता में एकता देखना और विविधता में ऐक्य प्रस्थापित करना यही है भारत का अन्तर्निहित धर्म। भारत विविधता को भेद नहीं मानता और पराये को दुश्मन नहीं मानता। इसलिए नए मानव समूह के संघात से हम भयभीत नहीं होंगे। उनकी (नए लोगों की) विशेषता पहचान कर उन्हें अपने साथ लेने की विलक्षण क्षमता भारत की है। इसलिए भारत में हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध, ईसाई परस्पर लड़ते हुए दिखेंगे, पर वे लड़ कर मर नहीं जाएंगे। वे एक सामंजस्य स्थापित करेंगे ही। यह सामंजस्य अहिन्दु नहीं होगा। वह होगा विशेष भाव से हिन्दू।
यह सामंजस्य की, एकता की दृष्टि हिंदुत्व की है। अब कोई सरना या अनुसूचित जनजाति के बंधु यह कहें कि वे हिंदुत्व से कैसे अलग है। क्योंकि हिंदुत्व किसी एक रूप (form) की बात नहीं करता, बल्कि जिस एक ही चैतन्य के ये सभी रूप हैं, उस एकता या एकत्व की दृष्टि माने हिंदुत्व है।
कुछ वर्ष पूर्व पूर्वोत्तर (असम) के जनजाति बहुल क्षेत्र में एक प्रयोग हुआ। वहां के विभिन्न राज्यों की 18 जनजातियों के सम्मेलन में ये कुछ प्रश्न पूछे गए थे। 1- ईश्वर के बारे में हमारी संकल्पना। 2- धरती के बारे में हमारी अवधारणा? 3- हम प्रार्थना में क्या मांगते हैं? 4- पाप और पुण्य की संकल्पना? 5- दूसरों की पूजा पद्धति के बारे में हमारा अभिमत क्या है? 6- क्या आप दूसरी पूजा परंपरा वालों को उनकी पूजा छुड़वाकर अपनी पूजा वालों में मिला लेना चाहते हैं?
इन प्रश्नों के पूछने पर सभी के उत्तर वही थे जो देश के किसी भी भाग में बसा हिंदू देता है। इनकी प्रस्तुति के पश्चात् यह सभी के लिए आश्चर्यजनक था कि अलग-अलग भाषाएं बोलने वाली इन सभी जनजातियों के विचार में सभी विषयों पर साम्य है और इन का भारत की आध्यात्मिक परंपरा से परस्पर मेल है।
इस भू-सांस्कृतिक इकाई में पूजा या उपासना के विविध रूपों में अन्तर्निहित एकता का आधार हिंदुत्व और भारत की अध्यात्म आधारित एकात्म, सर्वांगीण, सर्व-समावेशक हिन्दू जीवन दृष्टि ही है।
ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक दृष्टि से जनजाति समाज हिन्दू ही है। राजनैतिक, सांस्कृतिक और उपासना की दृष्टि से वे अनादि काल से हिन्दू समाज का अभिन्न अंग रहे हैं।
सेमेटिक मूल के होने के कारण ईसाई और मुस्लिम रिलीजन्स में यह सामंजस्य की दृष्टि नहीं है। वे मानवता को दो हिस्सों में बाँटते हैं। और दोनों एक साथ नहीं रह सकते हैं। इसीलिए इनका कन्वर्जन का इतिहास रक्तरंजित तथा हिंसा, लालच और धोखे का रहा है। ईशान्य भारत के जनजातियों में भी ईसाई चर्च द्वारा वहां के जनजातीय लोग हिन्दू नहीं हैं ऐसा झूठा प्रचार करने का प्रयास पहले ब्रिटिश शासक और बाद में भारतीय शासकों की सहायता से वर्षों से चलते आए हैं। इसी कारण वहां अलगाववादी शक्तियां भी अधिक सक्रिय हुईं यहां भी नयी और अलग पहचान देने के नाम पर उनकी सांस्कृतिक जड़ों को गहराई से धीरे-धीरे उखाड़ना और फिर आत्माओं की खेती, यानि soul harvesting, करने की योजना चल रही थी। परन्तु अब वहां के जनजातियों को यह आभास हो गया है कि ईसाई के साथ रहकर हमारी सांस्कृतिक और पूजा पद्धति की पहचान खोने का संकट दिखता है। वे यह भी अनुभव कर रहे हैं कि हिन्दू समाज में, इसके साथ रहेंगे तो उनकी अलग सांस्कृतिक और पूजा की पहचान बनी रहेगी, सुरक्षित रहेगी। यह उनका विश्वास दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। इसलिए वहां डोनी पोलो, सेंग खासी जैसे भारतीय आस्था अभियान शुरू हो गए हैं और बढ़ रहे हैं। सरना आदि अन्य जनजाति के नेताओं को भी एक बार इन भारतीय आस्था अभियान (indigenous faith movements) के लोगों के अनुभव से सीख लेनी चाहिए। और अपनी संस्कृति और पूजा पद्धति की विशेष पहचान सुरक्षित बचाकर उन्हें और अधिक समृद्ध करने की दृष्टि से हिंदुत्व से अपना नाता बनाये रखना चाहिए।
जब देवताओं के कोई रूप (forms) या नाम भी नहीं थे, तब निर्गुण निराकार ईशत्व की चर्चा, आराधना और उपासना सभी करते थे। ईशावास्यं इदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् यही उसका आधार था।
फिर तरह तरह के विभिन्न देवताओं के रूप के माध्यम से उसी परम तत्व की उपासना और आराधना शुरू हुई। परन्तु ये सभी प्रकृति की पूजा, पंच-महाभूत की पूजा तो करते ही थे। आगे भी अनेक अवतारी पुरुषों के माध्यम से नए नए उपासना मार्ग जुड़ते चले गए। ये सभी फिर भी भूमि, अग्नि, वृक्ष, पहाड़, सागर के माध्यम से प्रकृति पूजा करते ही हैं। इसलिए प्रकृति पूजा तो आरम्भ से ही है। उसके आगे कालक्रमानुसार नित नयी बातें जुड़ती चली गयीं। पर अन्यान्य माध्यम से प्रकृति पूजा तो हिन्दू समाज के सभी वर्गों में आज भी चल रही है। इसलिए केवल प्रकृति पूजा करने वालों के साथ सम्पूर्ण हिन्दू समाज का तादात्म्य वैसा ही बरकरार है। केवल कुछ तत्व विविधता को भेद बता कर बुद्धि भ्रम का प्रयास कर रहे हैं, उनसे सभी को सावधान रहना होगा।
केवल सरना या अनुसूचित जनजाति बंधु ही नहीं, भारत में विविध समाज वर्गों में गत कुछ वर्षों से यह प्रचलित करने का योजनाबद्ध प्रयास चल रहा है कि हम हिन्दू नहीं हैं। हिंदुत्व की जो विविधता में एकता देखने की विशेष दृष्टि है उसे भुला कर इस विविधता को भेद नाते बता कर, उभारकर हिन्दू समाज में विखंडन निर्माण करने के अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र हो रहे हैं। हिन्दू एक रहेगा तो समाज एक रहेगा, देश एक रहेगा। देश एक रहेगा तभी देश आगे बढ़ेगा। ऐसा ना हो, इसमें जिनके स्वार्थ निहित हैं वे सभी तत्व भारत विखंडन के कार्य में लिप्त हैं।
भारत विखंडन के प्रयास कैसे चल रहे हैं, इस पर अनेक शोधपरक पुस्तकें उपलब्ध हैं। इसमें एक शक्ति ईसाई चर्च की भी है। उन्हें भारत में धर्मांतरण कर ईसाई संख्या बढ़ानी है। उनकी धर्मांतरण करने वाली सभी संस्थाओं की वेबसाइट पर इसका स्पष्ट उल्लेख है। कुछ ईसाई संस्था छद्म रूप से विभिन्न नामों से समाज में पहले भ्रम, फिर विरोध, फिर विखंडन और बाद में अलगाववाद निर्माण करने के कार्य में लगी हैं। कन्वर्जन के प्रयास को वे फसल काटना (harvesting) संज्ञा देते हैं। यह फसल काटने के प्रयास ब्रिटिश शासन के समय से ही चल रहे हैं। पर भारत की सांस्कृतिक जड़ें बहुत गहरी हैं और अनेक साधु-संतों द्वारा समय समय पर आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतना जगाने के प्रयास यहां पीढ़ियों से चल रहे हैं। ऐसी कोई जाति या जनजाति भारत में नहीं है, जिसमें ऐसे संत-साधु पैदा नहीं हुए. इसलिए ईसाई कन्वर्जन के सभी प्रयास अन्य देशों की तुलना में भारत में कम सफल होते दिखते हैं। तभी नए-नए हथकंडे भी अपनाये जा रहे हैं। भारत विखंडन के प्रयास करने वाले सभी तत्व आपस में अच्छा तालमेल बनाकर अपना अपना एजेंडा चलाने का प्रयास कर रहे हैं।
प्रत्येक जाति और जनजाति में आध्यात्मिक-सांस्कृतिक जागरण का काम पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहने से इन सभी समाज में सांस्कृतिक जड़ें गहरी उतर चुकी है। कन्वर्जन आसानी से हो इस हेतु आवश्यक हैं कि जिनका कन्वर्जन करना है, उनकी सांस्कृतिक जड़ें जिस गहराई तक पहुंची है, वहां से उखाड़ना। जब जड़ें कमजोर और उथली होंगी तो उनकी (harvesting) फसल काटना आसान होगा। इसलिए तरह तरह के तर्क देकर और हथकंडे अपनाकर भ्रम फैलाने का षड्यंत्र चल ही रहा है। इसे सभी को समझना होगा, चेतना होगा, जागृत रहना होगा। प्रसिद्ध कवि प्रसून जोशी की एक कविता है –
उखड़े उखड़े क्यों हो वृक्ष सूख जाओगे।
जितनी गहरी जड़ें तुम्हारी उतने ही तुम हरियाओगे।
जिन दो राज्यों में ये निर्णय लिए गए, वे राज्य अनेक वर्षों से ईसाई गतिविधि और कन्वर्ज़न के केंद्र रहे हैं, यह महज संयोग नहीं मानना चाहिए। harvesting के लिए जड़ों की गहराई कम करना उपयोगी होता है।
तरह-तरह के भ्रम फैलाकर, उसके लिए बहुत बड़ी मात्रा में धन का प्रयोग करने के व्यापक षड्यंत्र का ही यह हिस्सा है। देश भर में जड़ों से उखाड़ने के ऐसे जितने भी प्रयास चल रहे हैं, उनके पीछे के तत्व और उनकी फंडिंग को देखेंगे तो यह समझ आएगा। (विसंकें)
वर्ष 2018 में आज के ही दिन महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में पेशवा बाजीराव पर अंग्रेजी सेना की 200 वीं सालगिरह मनाई जा रही थी, जब भारी हिंसा भड़क गई थी। केंद्र सरकार ने इस घटना की जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) से कराई। जांच के दौरान इस घटनाक्रम में कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े कई अर्बन नक्सलियों की संलिप्तता जाहिर हुई। जिनमें से कई जेल में हैं। यह तथ्य जगजाहिर है कि भारतीय इतिहास को वामपंथी व कथित प्रगतिशील इतिहासकारों ने तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया है। इन तथाकथित इतिहासकारों ने भीमा कोरेगांव के युद्ध को जातीय और अंग्रेजी सेना के विजय के रूप में दर्शाया है। भारतीय जन संचार संस्थान के पूर्व छात्र और शोधार्थी देवेश खंडेलवाल ने विभिन्न इतिहासकारों की पुस्तकों का हवाला देते हुए इस युद्ध के वास्तविक तथ्यों को लाने का प्रयास किया है। यहां प्रस्तुत है उनका लेख –
31 अक्तूबर, 1817 को रात 8 बजे ईस्ट इंडिया कंपनी के कप्तान फ्रांसिस स्टोंटो के नेतृत्व में 500 सिपाही, 300 घुड़सवार, 2 बंदूकों और 24 तोपों के साथ एक सैनिक दस्ता पूना से रवाना हुआ। रातभर चलने के बाद अगले दिन सुबह 10 बजे यह छोटी टुकड़ी भीमा नदी के किनारे पहुंची तो सामने पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में 20,000 सैनिकों की मराठा फौज खड़ी थी। इस विशालकाय फौज का उद्देश्य पूना को फिर से स्वतंत्र करवाना था, लेकिन कम्पनी के उस दस्ते ने उन्हें रास्ते में ही रोक लिया।
कप्तान स्टोंटो की सेना में ब्रिटिश अधिकारियों के अलावा स्थानीय मुसलमान और दक्कन एवं कोंकण के हिन्दू महार शामिल थे दोनों तरफ के विश्लेषण में पेशवा की तैयारी ज्यादा कुशल और आक्रामक थी। जिसे देखकर कप्तान स्टोंटो ने नदी को पार कर सामने से हमला करने की बजाय पीछे ही रहने का फैसला किया। अपनी सुरक्षा के लिए उसने नदी के उत्तरी छोर पर बसे एक छोटे से गांव कोरेगांव को बंधक बनाकर वहां अपनी चौकी बना ली।
एक छोटी से चारदीवारी से घिरे कोरेगांव के पश्चिम में दो मंदिर – बिरोबा और मारुती थे। उत्तर-पश्चिम में रिहाईश थी. बिरोबा को भगवान शिवजी का ही एक रूप माना जाता है और महाराष्ट्र की कई हिन्दू जातियां उन्हें अपने कुलदेवता के रूप में पूजती है। जबकि मारुती को भगवान हनुमान का पर्याय कहा जाता है जो रामायण के प्रमुख पात्र हैं।
खैर, कंपनी के दस्ते ने कोरेगांव के मकानों की छतों का इस्तेमाल पेशवा की सेना पर नजर रखने लिए किया था। कप्तान स्टोंटो ने अपनी बंदूकों को गांव के दो छोर – एक सड़क के रास्ते और दूसरी नदी के किनारे पर तैनात कर दिया था। अब वह पेशवा की तरफ से पहले हमले का इंतजार करने लगा। हालांकि, अभी तक पेशवा ने कंपनी के दस्ते पर कोई हमला नहीं किया क्योंकि वह 5,000 अतिरिक्त अरबी पैदल सेना का इंतेजार कर रहे थे।
जैसे ही वह सैनिक टुकड़ी उनसे जुड़ गयी तो पेशवा की सेना ने नदी को पार कर पहले हमला शुरू कर दिया। दोपहर के आसपास पेशवा के 900 सिपाही कोरेगांव के बाहर पहुंच गए थे (कुछ पुस्तकों में इनकी संख्या 1,800 तक बताई गयी है)। दोपहर तक दोनों मंदिरों को पेशवा ने वापस अपने कब्जे में ले लिया था। शाम होने तक नदी के किनारे वाली एक बन्दूक और 24 तोपों में से 11 को मराठा सेना ने नष्ट अथवा मार दिया था। हालांकि, ब्रिटिश सरकार द्वारा साल 1910 में प्रकाशित ‘मराठा एंड पिंडारी वॉर’ में कंपनी के नुकसान के दूसरे आकंड़े पेश किये है। पुस्तक के अनुसार 24 तोपों में से 12 को नष्ट/मार और 8 को घायल कर दिया था (पृष्ठ 57)।
मराठा सेना ने विंगगेट, स्वांसटन, पेट्टीसन और कानेला नाम के चार कंपनी अधिकारियों को भी मार डाला था। हमला इतना तीव्र था कि परिस्थितियों को देखते हुए कप्तान स्टोंटो से बची हुई टुकड़ी ने आत्मसमर्पण की गुहार लगायी। इस सुझाव को कप्तान स्टोंटो ने स्वीकार कर लिया और वर्तमान कर्नाटक के सिरुर गाँव की तरफ भाग गया।
कप्तान स्टोंटो के पीछे हटने के निर्णय के बावजूद भी ब्रिटिश इतिहासकारों ने उसकी तारीफ की है। लड़ाई के चार साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने कप्तान स्टोंटो और उसकी सेना के नाम कोरेगांव में एक स्तम्भ बनवा दिया। कुछ सालों बाद, यानि 25 जून, 1825 को कप्तान फ्रांसिस स्टोंटो मर गया और उसे समुद्र में दफना दिया गया।
ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा सेना के इस टकराव के कई ऐसे पहलू हैं, जिनका तथ्यात्मक विश्लेषण करना जरुरी है। पहली बात – महारों की मराठों से कोई निजी दुश्मनी नहीं थी। यह लड़ाई कंपनी और मराठा सेना के बीच में लड़ी गयी थी, जिसमें महारों ने कंपनी का साथ दिया। यह जाति पहले फ़्रांस के भारतीय अभियानों में भी उन्हें अपनी सैन्य सहायता दे चुकी थी। दूसरी बात – किसी भी इतिहास की पुस्तक में स्पष्ट तौर पर मराठा सेना की हार का कोई जिक्र नहीं है। सभी स्थानों पर कप्तान स्टोंटो द्वारा स्वयं की जान बचाने का उल्लेख है, जिसे ‘डिफेन्स ऑफ़ कोरेगांव’ के नाम से संबोधित किया गया है।
बाद के सालों में, इस टकराव को भीमा कोरेगांव युद्ध के नाम पर अंग्रेजों की मराठा सेना पर जीत में जबरन परिवर्तित कर दिया गया। जिसे रचने वाले खुद ब्रिटिश इतिहासकार थे। जिसमें रोपर लेथब्रिज द्वारा लिखित ‘हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया’ (1879); ‘द बॉम्बे गज़ेट’ (17 नवम्बर, 1880); जी. यू. पोप द्वारा लिखित ‘लॉन्गमैन्स स्कूल हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया’ (1892); आर. एम. बेथम द्वारा लिखित ‘मराठा एंड डेकखनी मुसलमान’ (1908); जोसिया कोंडर द्वारा लिखित ‘द मॉडर्न ट्रैवलर’ (1918); सी.ए. किनकैड द्वारा लिखित ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ मराठा पीपल’ (1925); और रिचर्ड टेम्पल द्वारा लिखित ‘शिवाजी एंड द राइज ऑफ़ द मराठा’ (1953) इत्यादि शामिल थे।
गौर करने वाली बात है कि इन सभी पुस्तकों में एक जैसा ही, बिना किसी परिवर्तन के, ब्रिटिश इतिहास का वर्णन मिलता है। हालांकि, साल 1894 में अल्दाजी दोश्भई द्वारा लिखित ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ गुजरात’ में एक अन्य तथ्य का जिक्र किया गया है। उन्होंने लिखा है कि पेशवा ने कोरेगांव में ज्यादा देर रुकना ठीक नहीं समझा क्योंकि कप्तान स्टोंटो को पीछे से ब्रिटिश सहायता मिल सकती थी। इसलिए उन्होंने वहां से निकलकर दक्षिण की तरफ जाने का फैसला किया। इस समय तक, दक्षिण भारत के कई हिस्सों में ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी पकड़ बना चुकी थी। पेशवा चारों तरफ से उनसे घिरे हुए थे और धीरे-धीरे उनके कई दुर्ग जैसे सतारा, रायगढ़, और पुरंदर हाथ से निकल गए थे।
‘मराठा एंड पिंडारी वॉर’ में भी बताया गया है कि जनरल स्मिथ के आने की खबर सुनकर पेशवा की सेना अगले दिन सुबह वहां से चली गयी थी। कप्तान स्टोंटो को जनरल स्मिथ के कोरेगांव पहुंचने के समय का सटीक अंदाजा नहीं था। इस बीच, उसके पास हथियारों की कमी हो गयी थी, इसलिए वो वहां से चला गया। जनरल स्मिथ 2 जनवरी से 6 जनवरी के बीच कोरेगांव पहुंचा था, लेकिन तब तक मराठा सेना और कंपनी की टुकड़ी वहां से रवाना हो गयी थी (पृष्ठ 58)।
साल 1923 में प्रत्तुल सी. गुप्ता द्वारा लिखित ‘बाजी राव II एंड द ईस्ट इंडिया कंपनी 1796-1818’ में पेशवा की हार का कोई उल्लेख नहीं है। बल्कि उन्होंने कंपनी के नुकसान के आंकड़े पेश किये हैं। प्रत्तुल सी. गुप्ता ने यह भी लिखा है कि रात के नौ बजे लड़ाई रुक गयी थी (पृष्ठ 179)।
यहां एक गौर करने वाली बात है कि प्रत्तुल सी. गुप्ता के अनुसार रात्रि को लड़ाई रुकी थी। ‘मराठा एंड पिंडारी वॉर’ के मुताबिक पेशवा की सेना अगले दिन सुबह कोरेगांव से रवाना हुई थी। इसका मतलब साफ़ है कि कप्तान स्टोंटो रात में ही भाग गया था। जबकि उसे पता था कि उसकी सहायता के लिए जनरल स्मिथ की एक बड़ी फौज उसके पीछे खड़ी थी। हालांकि, उसके पास अपनी जान बचाने का वक्त भी नहीं था और न ही पर्याप्त हथियार थे।
कोरेगांव के टकराव का एक अन्य विरोधाभास भी है। वर्तमान में, इस गांव में कथित ब्रिटिश शौर्य का एक स्तंभ बनाया हुआ है, जिसमें 49 मरने वालों के नाम लिखे गए हैं। जबकि खुद ब्रिटिश इतिहासकारों जैसे रोपर लेथब्रिज ने साल 1879 (तीसरा संस्करण) में अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया’ में ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से 79 सैनिकों के मरने अथवा घायल होने की पुष्टि की है (पृष्ठ 191)। साल 1887 में सी. कॉक्स एडमंड द्वारा लिखित ‘ए शोर्ट हिस्ट्री ऑफ़ द बॉम्बे प्रेसीडेंसी’ में कप्तान स्टोंटो के 175 सैनिकों के मारे जाने का उल्लेख है (पृष्ठ 257)।
भीमा कोरेगांव का यह टकराव ब्रिटिश क्राउन के लिए कोई बेहद महत्व का नहीं था। अगर ऐसा होता तो ब्रिटिश संसद में इसकी शान में कसीदे पढ़े गए होते। गौर करने वाली बात यह है कि वहां न भीमा कोरेगांव और न ही फ्रांसिस स्टोंटो की कोई खबर है। (विश्व संवाद केंद्र)
कुछ लोगों के लिए सुशासन की बात एक राजनीतिक नारा मात्र हो सकती है। मगर यह स्पष्ट देखा और अनुभव किया जा सकता है कि केंद्र व प्रदेशों में जब भी सरकारों का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी ने किया, उसने सुशासन के सिद्धांत को न केवल आत्मसात किया, अपितु इसके प्रति अपना दृढ़ संकल्प भी प्रदर्शित किया है। भाजपा सरकारों ने अपनी नीतियों, योजनाओं व व्यवहार से सुशासन को मूर्त रूप देना का प्रयास किया है। सीधे शब्दों में कहा जा सकता है कि सुशासन सदैव भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा का केंद्र बिंदु रहा है।
पहले चर्चा करते हैं अटल बिहारी वाजपेयी के राजनैतिक काल की। अटल जी की राजनीतिक यात्रा का सूक्ष्म विश्लेषण करें तो उनके जीवन में ऐसे अनेक मौके आए जहां कोई अन्य व्यक्ति होता तो शायद निजी हित को ही ऊपर रखता। मगर ये अटल जी के आदर्श ही थे, जिससे उन्होंने राजनीतिक शुचिता का नया उदाहरण प्रस्तुत किया। फिर चाहे वह एक वोट से अपनी सरकार को गिरने देना हो अथवा विपक्ष में होते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ में पूरी जोरदारी से भारत का पक्ष रखना। हर एक परिस्थिति में उनके द्वारा अपनाए गए मानदंड भारतीय राजनीति में एक विशिष्ट परम्परा की यशस्वी गाथा कहते हैं जो भविष्य की पीढ़ियों को सतत प्रेरित करते रहेंगे। वाजपेयी सरकार ने अपने कार्यकाल में देश में आधारभूत ढांचे के निर्माण में नए आयाम स्थापित किए। टेलीकॉम क्षेत्र में सुधार हों, अर्थव्यवस्था में लाया गया अनुशासन हो अथवा तमाम जन कल्याणकारी योजनाओं का संचालन, इन सबके द्वारा वे सरकार को जन के नजदीक ले गए। पोखरण परमाणु परीक्षण के माध्यम से उन्होंने भारत की शक्ति का अहसास दुनिया को कराया।
फिर आया वर्ष 2014। इस वर्ष हुए लोकसभा के आम चुनाव में भारतीय जनमानस ने अटल जी की ही परंपरा से निकले नरेंद्र मोदी पर विश्वास व्यक्त किया। मोदी सरकार द्वारा उज्जवला योजना के माध्यम से करोड़ों महिलाओं के जीवन में लाया गया सुधार हो, आयुष्मान योजना द्वारा परिवारों को स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराना हो अथवा 2022 तक सभी को आवास उपलब्ध कराने जैसे महत्वाकांक्षी लक्ष्य हों, ये सभी उनके सुशासन के प्रति समर्पण को ही दर्शाते हैं। ये सभी निर्णय सुनिश्चित करते हैं कि गरीब से गरीब व्यक्ति को मूलभूत सुविधाओं से वंचित न रहना पड़े।
मोदी सरकार ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ के मूल मंत्र के साथ काम कर रही है जो पं. दीन दयाल उपाध्याय के अंत्योदय का ही एक मूर्त रूप है। भाजपा के मूलभूत सिद्धांत इसी विचारधारा पर आधारित हैं जिनका अनुसरण करते हुए मोदी सरकार जन कल्याण के कार्य कर राष्ट्र निर्माण की दिशा में आगे बढ़ रही है। आज की तारीख में हो रहे बहुत से छोटे-छोटे परिवर्तन शायद नगण्य प्रतीत होते हों, परन्तु उनके दूरगामी सुखद परिणाम होंगे। उदाहरणस्वरूप, भारत सरकार द्वारा शुरू किया गया मिशन कर्मयोगी- जो सरकार में कार्यरत अधिकारियों के क्षमता निर्माण के लिए केंद्र सरकार की एक योजना है।
एक समूह को यह सरकार का अनावश्यक व्यय प्रतीत हो सकता है, परन्तु सुशासन के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। सरकारी कर्मचारियों को नए ज़माने के अनुरूप तकनीकी एवं मानव संसाधन प्रबंधन के क्षेत्र में पुनः प्रशिक्षित करना मील का पत्थर साबित होगा। इसी प्रकार जब लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने हर घर तक शौचालय पहुंचाने की बात कही तो एक वर्ग ने इसे नकारात्मक रूप में लिया। हालांकि इस योजना के दूरगामी परिणामों के मद्देनज़र संयुक्त राष्ट्र संघ सहित अनेक अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने इस प्रयास की सराहना की। इन योजनाओं का सबसे अधिक महत्वपूर्ण पहलू एक गरीब व्यक्ति के जीवन में आया परिवर्तन, समाज में उसकी स्थिति में आया सुखद बदलाव है जो शायद समाज के एक वर्ग के लिए समझना मुश्किल हो।
राष्ट्र प्रथम की भावना के साथ जब कोई पार्टी अथवा व्यक्ति चुनाव जीत कर सरकार बनाता है तब यही भावना सरकार के निर्णयों में सुशासन के रूप में परिलक्षित होती हैं। भाजपा आज देश के अनेकों राज्यों में एक मजबूत नेतृत्व के साथ सुशासन के लिए प्रतिबद्ध सरकारें चला रही है। केंद्र सरकार के सुशासन का ही परिणाम है कि आज तक जिन राज्यों में भाजपा गौण स्थिति में थी, उन राज्यों में भी एक मजबूत विकल्प के तौर पर उभरी है। भाजपा जैसे विचारधारा आधारित संगठन से जनता की अत्यधिक अपेक्षाएं होना स्वाभाविक है।
आज 18 करोड़ कार्यकर्ताओं के साथ विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक दल बन चुकी भाजपा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से करोड़ों लोगों के जीवन को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। इस दल की विचारधारा अपने साधारण से साधारण कार्यकर्ता को अपने नेतृत्व क्षमता में सुशासन को समाहित करना सिखाती है। ताकि जब उसे किसी भी प्रकार का दायित्व मिले तब उसके मनो मस्तिष्क में सदैव यह विचार गूंजता रहे कि वह किस प्रकार सुशासन के माध्यम से समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के जीवन में बदलाव ला सके। समाज के विभिन्न तबकों एवं वर्गों से आने वाले करोड़ों कार्यकर्ताओं द्वारा समर्थित एक दल जब सुशासन के सिद्धांतों पर संचालित होता है तो यह विचार देश के नागरिकों को एक बेहतर समाज एवं राष्ट्र के निर्माण के लिए प्रेरित करता है।
- जयराम शुक्ल
कृषि सुधार कानून से उपजे आंदोलन में छिपी हुई मंशा और उससे आगे की बात करें, उससे पहले मेरी अपनी बात. वह इसलिए कि आपनी भी गर्भनाल खेत में गड़ी है. देश में मेरे जैसे साठ से सत्तर प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिनकी दोहरी पहचान है. गांव है, अपने खेत हैं, इसलिए किसान. लेकिन जीविका का आधार नौकरी व अन्य व्यवसाय…मसलन मैं पत्रकार, कोई शिक्षक, तो कोई अन्य वृत्ति से जुड़ा. यह सही है कि खेती यदि लाभ और रसूख का व्यवसाय होता तो यह प्रतिशत साठ-सत्तर से घटकर काफी नीचे रहता, शायद मैं भी पूरा किसान ही होता. इसलिए अब तक का सर्वसिद्ध तथ्य यही है कि अकेले खेती के दम पर इज्ज़तदार व आराम की जिंदगी बसर नहीं हो सकती. क्यों..? क्योंकि यह लाभ का व्यवसाय नहीं है. झगड़ा इसे लाभ का व्यवसाय बनाने से जुड़ा हुआ है. सरकार कहती है कि हमें खेती को हर-हाल पर लाभ का सौदा बनाना है और हरियाणा-पंजाब के किसान (या किसानों का खोल ओढ़े सियासतदान..? राम जाने) कहते हैं कि कृषि सुधार के तीनों कानून किसानों को लाभ दिलाने की बजाय उन्हें गुलाम बना देंगे.
पहले अपनी बात – भोपाल के एक अखबार का संपादक रहते हुए एक बार ब्यूरो आफिस खोलने विदिशा जाना हुआ. लौटने लगा तो ब्यूरो चीफ ने दो बोरियां कार की डिक्की में रख दीं. मैंने पूछा – ये क्या? वह बोला – इसमें गेंहू है. मैंने चौंकते हुए कहा कि यह क्या बेहूदगी है ..? विदिशा से दो बोरी गेहूं लाद के ले जाऊंगा.. मैं. तो वह पत्रकार साथी बोला – साहब, यह विदिशा का गेहूं है..यह विदिशा वालों को भी नसीब नहीं. खड़ी फसल बिक जाती है. इसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ गेहूं कहा जाता है. इसकी कीमत सामान्य गेहूं से दोगुनी चौगुनी होती है. वहीं, मैंने जाना कि मध्यप्रदेश के सिहोर और आष्टा का गेंहूं भी इसी कोटि का है, बल्कि इससे उम्दा.
भोपाल से इंदौर जाते वक्त राजमार्ग के किनारे नजर डालेंगे तो सिहोर से देवास के बीच कई नीले रंग के खूबसूरत गोदाम दिख जाएंगे. ये गोदाम फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (एफसीआई) के नहीं हैं..ये गोदाम हैं आईटीसी के, जिसके आशीर्वाद ब्रांड के आटे को दुनियाभर में सबसे ज्यादा बिकने का खिताब मिला हुआ है.
आईटीसी (इंडियन टोबैको कार्पोरेशन) अंग्रेजों के जमाने की कंपनी है जो पहले सिगरेट और तंबाकू का व्यापार करती थी. विल्स जैसे ब्रांड इसी के हैं. समय के साथ इस कंपनी ने भी रूप बदला और अब फूड इंडस्ट्री की टायकून कंपनी है. तो ये गोदाम किसानों के ई-चौपाल के नाम से जाने जाते हैं. विदिशा, आष्टा, सिहोर के प्रायः किसान अपना गेहूं आईटीसी को ही बेचते हैं. इनके कांट्रैक्ट में पारले, ब्रिटानिया जैसी कंपनियां भी रहती हैं जो खलिहानों से अन्न उठाती हैं. यहां के किसान आईटीसी, पारले, ब्रिटानिया को इसलिए अपनी उपज बेंचते हैं क्योंकि इन्हें यहां एमएसपी से डेढ़ से दो गुना दाम मिलता है. वे निश्चिंत हैं क्योंकि यदि इन कंपनियों ने अन्न नहीं खरीदा तो मंडियां हैं ही.
फर्ज करिए यदि आईटीसी की चौपालें नहीं होतीं तो क्या पांच एकड़ का काश्तकार अच्छे दाम पाने के लिए पं. बंगाल जाने की कुब्बत रखता..आईटीसी का मुख्यालय कोलकाता में है. अब यहां आईटीसी का भी एकाधिकार नहीं बचा, फार्च्यून और रामदेव का पतंजलि समूह भी कूद पड़ा है. यानि कि सरकारी मंडी के बाहर एक स्पर्धात्मक बाजार बना है, जहां किसान अच्छे से अच्छे दाम पर अपनी उपज बेच सकता है. और हां ये ई-चौपालें कोई आज की बनी हुई नहीं हैं..कृषि सुधार कानूनों के लागू होने के दशकों पहले की हैं.
भोपाल के गुलमोहर क्षेत्र में जहां मैं रहता हूँ, मेरी सोसायटी की कदम भर की दूरी पर रिलायंस फ्रेश, बिग बाजार, आनडोर के आउटलेट्स हैं. यहां ताजी सब्जियां और फल मिलते हैं. सोसायटी के सामने लगने वाली छोटी सी सब्जी मंडी है. आनडोर, बिग बाजार में यहां से तीस से चालीस प्रतिशत कम दामों में सब्जी-फल बिकते हैं. मैंने सड़क पर बैठे सब्जी वाले से पूछा – तुम्हारी सब्जियां वहां से महंगी क्यों…? उसके जवाब को इन सुधार कानूनों के बरक्स सुनिए… वो (रिलायंस फ्रेश, बिग-बाजार, आनडोर) मंडियों की बजाय किसानों से सीधे खरीदते हैं.
और हम लोग मंडियों से..तो मंडी टैक्स, आढ़त का कमीशन, नगर निगम का शुल्क मिलाकार दाम इतना बढ़ जाता है कि हम चाहकर भी सस्ती सब्जी नहीं दे सकते. वो बड़े स्टोर वाले मंडी टैक्स, आढ़तियों के कमीशन और नगर निगम के प्रवेश व बैठकी टैक्स की झंझट से मुक्त रहते हैं. मतलब यह कि यहां भी किसानों को मंडी से ज्यादा दाम मिलता है और दूसरी ओर उपभोक्ता को अपेक्षाकृत कम दाम पर सब्जियां. क्योंकि आधे से ज्यादा मुनाफा खाने वाले आढ़तिये, मंडी, म्य़ूनिसिपल्टी वाले बीच में नहीं होते. सब्जी और फल बेचने वाले रिटेल स्टोर किसानों से फसल बोने के साथ ही कान्ट्रेक्ट कर लेते हैं. यह व्यवस्था कोई आज की नहीं यूपीए के जमाने की है, जिसने खुदरा व्यापार में मल्टीनेशनल्स के निवेश के रास्ते खोले थे.
पत्रकार के साथ-साथ मैं एक छोटा सा किसान भी हूं. गांव में पंद्रह से बीस एकड़ की काश्तकारी है. शहर से लगा तीन एकड़ का सब्जियों का फार्म है. अब मेरी व्यथा सुनिए.. इस व्यथा में मेरे जैसे बहुतेरे भी शामिल होंगे. गांव में रहकर खेती कर नहीं सकता क्योंकि सिर्फ उसके माथे परिवार नहीं चलेगा. लिहाजा खेतों को ठास पर देता हूँ. ठास यानि कि इस कानून की परिभाषा में कांट्रैक्ट. पिछले पांच-सात सालों से असिंचित रकबे का दो से तीन हजार प्रति एकड़ व सिंचित रकबे का पांच से छह हजार प्रति एकड़.
यानि कि कुल काश्त (15 एकड़) का वर्ष भर में सिर्फ साठ से सत्तर हजार रुपये. ठास के अलावा कोई विकल्प नहीं.. वजह गांवों में अब श्रमिक रहे नहीं. कम काश्त के लिए किराए या खरीद की मशीनरी का मतलब ‘जितने का ढोल नहीं उतने का मजीरा’. ठास (कांट्रैक्ट) की रकम बढ़ाने की बात की तो परिणाम में खेतों का परती पड़े रहना तय है. हर गांव में ठास पर खेती लेने वालों का एक समूह है जो एक दूसरे के हित को देखता है. जैसे आपने एक को हटाकर दूसरा चुनना चाहा..तो सामने वाले का सवाल होगा..आखिर इसे क्यों हटाया. एक नए किस्म की पराश्रिता.
और सब्जी वाले खेत का हाल यह कि चारों तरफ की तार बाड़ी, पंप हाउस, चौबीस घंटे बिजली, पहुंच के लिए कंक्रीट की रोड़, मंडी भी नजदीक. लेकिन सात साल पहले पूरे रकबे का बीस हजार रुपए सालाना जो तय हुआ कोशिशों के बाद भी चार आना तक नहीं बढ़ा. इसमें बागवान को दोष दें, वह भी सही नहीं. खेत की पालक मंडी में आजतक कभी भी दो रुपये गट्ठी से ज्यादा में नहीं बिकी. और इधर सीजन में भी..दस रुपये गट्ठी से सस्ती नहीं हुई. दो रुपये की पालक दस रुपये में ….ये बीच के आठ रुपये कौन खाता है..? ये जो आठ रुपये खाने वाला सिस्टम है, उसी सिस्टम के गड्ढे में किसान सालों साल से फंसा है. और सियासत की ताकत है कि उसे इस गड्ढे से निकलने नहीं देती..जब भी सुधारों की बात होती है तो ये यही आभासी भय लेकर उनके बीच पहुंच जाते हैं.
अब यदि इतना सबकुछ पढ़ चुके हैं तो जानें कि कृषि सुधार के ये तीन कानूनों में है क्या….?
एक – कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020….इस कानून के तहत किसान अपनी उपज मंडियों के बाहर, अन्य राज्यों में भी बिना कोई टैक्स दिए बेच सकता है. यद्यपि सरकारी मंडी का विकल्प बना रहेगा. यानि कि जैसे आष्टा के गेहूं की मांग गुजरात में है तो वह बिना किसी टैक्स के अपना अन्न बेच सकेगा. उसे जाने की भी जरूरत नहीं. ई-ट्रेडिंग आसान रास्ता है. कानून की मंशा यह कि किसान वो फसलें ज्यादा से ज्यादा ले, जिनकी मांग और दाम ज्यादा से ज्यादा है. वह सिर्फ गेहूं चावल पैदाकर मंडी और एमएसपी पर आश्रित न रहे.
दो – किसान (सशक्तिकरण व संरक्षण) मूल्य आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक.… यह कानून अनुबंध की खेती की इजाजत देता है. अनुबंध की खेती यानि कि जमीन को फसल उगाने के लिए लेना और उसके एवज में किसान को पैसे देना (जैसा कि अभी ठास व्यवस्था में है). इसी में यह भी शामिल है कि हमारी फसल को बोने के साथ ही क्रय के लिए अनुबंधित कर लेना. यद्यपि यह व्यवस्था बिना कानून के आए ही चल रही थी. इस व्यवस्था के सबसे बड़े कांट्रैक्टर भी पंजाबी किसान ही हैं जो मध्यप्रदेश की नर्मदा पट्टी और छत्तीसगढ़ की धान पट्टी में ऐसा कर रहे है. प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट किया है कि कांट्रैक्ट फार्मिंग में अच्छे खाद बीज अधोसंरचना की जिम्मेदारी कांट्रेक्टर की होगी. जमीन लीज पर नहीं रहेगी, यहां तक कि कांट्रेक्टर की बनाई अधोसंरचना में वह कभी अपना हक नहीं जमा सकेगा.
फसल के उच्चतम दाम में खरीद के कांट्रैक्ट तय होने के बाद कान्ट्रैक्टर मुकरेगा नहीं. इसका एक हालिया उदाहरण है. फार्च्यून ग्रुप ने सिहोर के किसानों से उच्चतम मूल्य पर चावल खरीदी का करार किया था. चावल की पैदावार को देखते उसका बाजार दाम गिरा….फार्च्यून ग्रप जब खरीदी से मुकरने लगा, तब एसडीएम ने हस्तक्षेप कर नए कानून के मुताबिक उतना भुगतान करने हेतु बाध्य किया. जितने का पूर्व में करार था. कांट्रेक्ट वाला कानून आने के बाद उन पचास साठ लोगों को जमीन व उपज के अच्छे अनुबंधित दाम मिलेंगे जो अभी तक औने-पौने दाम पर ठास में देने हेतु विवश थे. बड़ा व्यवसायी छोटे छोटे किसानों की जमीन को मिलाकर जब बड़े पैमाने की खेती करेगा तो खेतों की अधोसंरचना के विकास के साथ उसके मूल्य बढ़ेंगे.
तीन – आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक…. यह कानून अनाज, दालें, आलू, प्याज जैसे खाद्य पदार्थों की आपूर्ति व वितरण को विनियमित करता है. सिर्फ आपदा और युद्धकाल को छोड़कर शेष समय इनका व्यापार और भंडारण की सीमा मुक्त रहेगी. इसमें भंडारण की सीमा को मुक्त रखने की बड़ी आपत्ति है. आशंका यह कि जमाखोरी बढ़ेगी जो महंगाई को बेलगाम करेगी. वस्तुतः सरकारी खरीद की मजबूरी के चलते एफसीआई के गोदाम जरूरत से ज्यादा भरे हैं. भंडारण व्यवस्था न होने से अरबों टन अन्न प्रति वर्ष सड़ता है, जिसे समुद्र में फैंकने के लिए भी सरकार को धन खर्च करना पड़ता है. भंडारण में छूट देने से एफसीआई पर दवाब कम होगा. अन्नों का निर्यात बढ़ेगा. दुर्भाग्य यह कि देश में अन्न के बंपर उत्पादन के बाद भी वह निर्यात में दुनियाभर में बहुत पीछे है. सरकारी खरीद की सुनिश्चितता मानते हुए किसान (पंजाब और हरियाणा के) जबरदस्त खाद और पेस्टीसाइड के बूते घटिया अन्न उपजाते हैं, वही एफसीआई के गोदामों को भरता है. सो स्टॉक लिमिट को मुक्त करना जमाखोरी की बजाय विश्व व्यापार को बढ़ाएगा.
अब जानते है कि किसान गुस्साए क्यों हैं…?
अव्वल तो यह कि यह आंदोलन पंजाब-हरियाणा का है. इसमें वास्तविक किसानों का सरोकार कितना है, इस पर भी सवाल है. सो, इसे देशभर के किसानों का आंदोलन कहना गलत है. उदाहरण के तौर पर इसी आंदोलन के दरम्यान राजस्थान में पंचायतों के चुनाव हुए. इन चुनावों में भाजपा की ऐतिहासिक जीत हुई, जबकि 65 प्रतिशत वोटर किसान ही थे. सो, दिल्ली से सटे राजस्थान में किसानों पर इस आंदोलन कोई खास असर नहीं रहा. बहरहाल, तहरीर चौक की जस्मिन क्रांति का ख्वाब पाले वहां एक जमावड़ा तो है ही जो हाइवेज पर कब्जा किए बैठा है. अब उसकी मांगों पर आते हैं.
एक – तीनों कृषि कानूनों को वापस लो.. क्यों वापस लो, इस बात पर किसान वार्ता करने को तैयार नहीं. यह एक लट्ठमार जिद है, जिसके चलते वे (उनकी खोल में बैठे मोदी विरोधी गठबंधिए) सरकार को झुका हुआ देखना चाहते हैं.
दो – एमएसपी व एफसीआई माडल की खरीद जारी रहे. केन्द्र सरकार ने लिखित स्पष्ट किया है कि एमएसपी जारी रहेगी और जो कहता है कि सरकारी मंडियां बंद हो जाएंगी, वह किसानों से झूठ बोलता है. अब इसे ऐसे समझिए – वोटीय राजनीति के चलते पीडीएस सिस्टम कभी खत्म नहीं होगा. यूपीए सरकार के बनाए कानून के मुताबिक खाद्य सुरक्षा के प्रावधान को जारी रखना होगा. इसके लिए सरकार को अन्न की जरूरत होगी. वह न भी चाहे तो भी एमएसपी पर ही खरीद करनी होगी और एफसीआई के गोदामों को भरे रखना होगा. सो यह भी किसानों को बरगलाने का प्रपोगंडा मात्र है…
तीन – किसान संगठनों को संदेह है कि किसानों की रियायती व मुफ्त बिजली बंद कर दी जाएगी क्योंकि 2003 के बिजली कानून का संशोधन विधेयक आया है. सही बात यह कि पंजाब के रसूखदार कभी नहीं चाहेंगे कि उनके फार्महाउसों की बत्ती गुल हो. सीमांत और लघु किसानों के लिए रियायती व मुफ्त की बिजली मिलनी जारी रहेगी. वैसे यह राज्यों का मामला है, वे चाहे जैसे भी अपनी बिजली लुटा सकते हैं.
चार – अब असली मांग यह है कि पराली जलाने के जुर्म में 5 साल की जेल और एक करोड़ का जुर्माना रद्द हो तथा जिन किसानों को इस जुर्म में पकड़ा गया है, उन्हें बाइज्ज़त बरी किया जाए. अब क्या बताए….समूचे पंजाब को कैंसर के और दिल्ली को अस्थमा के आगोश में पहुंचाने के लिए यहां कु-खेती की पद्धति और तौर तरीके ही जिम्मेदार हैं. इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन तक ने गंभीरता से लिया है. दूसरों की जिंदगी को दांव पर लगाकर किसानी के नाम पर किसी को भी नंगानाच करने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए.
हरित क्रांति के जनक एमएस स्वामिनाथन गांधीवादी खेती के पैरोकार हैं. जहां प्रकृति और पर्यावरण से छेड़छाड़ न हो. कृषि सुधार कानूनों के आने के बाद ‘द वायर’ को दिए एक इन्टरव्यू में स्वामिनाथन ने कृषि सुधार के प्रयासों को सामयिक कदम बताया और कहा कि इसकी सफलता इसे लागू करने की ईमानदारी पर निर्भर है. प्रख्यात अर्थशास्त्री गुरुचरण दास कहते हैं कि यदि इन कृषि सुधार कानूनों को लागू करने से पहले किसानों को समझा दिया जाता तो आज की तस्वीर ही कुछ और होती. बहरहाल, सुधार के ये कदम उतने ही ऐतिहासिक व क्रांतिकारी हैं जो 1991 में नरसिंह राव की कांग्रेस सरकार ने शुरू किए थे. उस सुधार के आड़े भी वामपंथी आए थे और इस सुधार के सामने भी वे किसानों का खोल ओढ़े खड़े हैं.
और अंत में माकपा की किसान यूनियन की महिला कार्यकर्ताओं के नारे – हाय हाय मोदी..मर जा तू….को याद रखिए और बिना बताए जान लीजिए कि इस कथित किसान आंदोलन की निगाहें कहां हैं और निशाने पर कौन है? ( विसंंकें)
- राकेश सैन
CAA में देश के किसी नागरिक का जिक्र न था, परंतु भ्रम फैलाने वालों ने इसे मुसलमान विरोधी बताया और लोगों को सड़कों पर उतार दिया। अब उसी तर्ज पर कृषि सुधार अधिनियम को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा है।
नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग में हुए आंदोलन और केंद्र सरकार द्वारा पारित कृषि सुधार अधिनियम को लेकर पंजाब सहित उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में हो रहे किसान आंदोलन के बीच की समानता को उर्दू शायर फैज के शब्दों में यूं बयां किया जा सकता है कि – ‘वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था, वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है।’
CAA में देश के किसी नागरिक का जिक्र न था, परंतु भ्रम फैलाने वालों ने इसे मुसलमानों का विरोधी बताया और लोगों को सड़कों पर उतार दिया। अब उसी तर्ज पर कृषि सुधार अधिनियम को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा है, इसमें न तो फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को समाप्त करने की बात कही गई है और न ही मंडी व्यवस्था खत्म करने की। परंतु इसके बावजूद आंदोलनकारी इस मुद्दे को जीवन मरण का प्रश्न बनाए हुए हैं। अधिनियम के अस्तित्व में आने के बाद से ही पंजाब में चला आ रहा किसान आंदोलन बीच में मद्धम पड़ने के बाद किसानों के ‘दिल्ली चलो’ के आह्वान के बाद फिर जोर पकड़ रहा है।
जैसी आशंका जताई जा रही थी वही हुआ, आंदोलन के चलते पिछले लगभग दो महीनों से परेशान लोगों की किसानों के अड़ियल रवैये से मुश्किलें और बढ़ गई हैं। ज्यादातर जगहों पर किसानों को रोकने की तमाम कोशिशें बेकार साबित हुईं। लंबे जाम और किसानों के आक्रामक रुख को देखते हुए पुलिस ने ज्यादा सख्ती नहीं की और उन्हें आगे बढ़ने दिया। साफ सी बात है कि आने वाले दिनों में आम लोगों की परेशानी और बढ़ने वाली है, क्योंकि किसान पूरी तैयारी के साथ डटे हैं। उनकी संख्या भी हजारों में है। चाहे कुछ मार्गों पर रेल यातायात कुछ शुरू हुआ है, परंतु यह पूरी तरह बहाल नहीं हो पाया है। अब सड़क मार्ग भी बाधित होने के कारण समस्या और बढ़ गई है। इसके साथ ही सरकार और किसानों के बीच टकराव भी बढ़ता जा रहा है। इसके पीछे राजनीति भी कम जिम्मेदार नहीं है। किसानों को अलग-अलग राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल है। चूंकि पंजाब में लगभग एक साल बाद विधानसभा चुनावों का बिगुल बज जाना है, इसलिए कोई भी इस आंदोलन का लाभ लेने से पीछे हटने के लिए तैयार दिखाई नहीं दे रहा है।
केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों को लेकर जो विरोध हो रहा है, वह साधारण लोगों के लिए तो क्या कृषि विशेषज्ञों व प्रगतिशील किसानों के लिए भी समझ से बाहर की बात है। कुछ राजनीतिक दल व विघ्नसंतोषी शक्तियां अपने निजी स्वार्थों के लिए किसानों को भड़का कर न केवल अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं, बल्कि वे खुद नहीं जानते कि ऐसा करके वह किसानों का कितना बड़ा नुक्सान करने जा रहे हैं। कितना हास्यास्पद है कि पंजाब के राजनीतिक दल उन्हीं कानूनों का विरोध कर रहे हैं जो राज्य में पहले से ही मौजूद हैं और उनकी ही सरकारों के समय में इन कानूनों को लागू किया गया था। इन कानूनों को लागू करते समय इन दलों ने इन्हें किसान हितैषी बताया था और आज वे किसानों के नाम पर ही इसका विरोध कर रहे हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह किसानों के इसी आक्रोश का राजनीतिक लाभ उठाने के उद्देश्य से पंजाब विधानसभा में केंद्र के कृषि कानूनों को निरस्त भी कर चुके हैं और अपनी ओर से नए कानून भी पारित करवा चुके हैं। परंतु उनका यह दांवपेच असफल हो गया क्योंकि प्रदर्शनकारी किसानों ने पंजाब सरकार के कृषि कानूनों को भी अस्वीकार कर दिया है।
संघर्ष के पीछे की राजनीति समझने के लिए हमें वर्ष 2006 में जाना होगा। उस समय पंजाब में कांग्रेस सरकार ने कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम (एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्किट एमेंडमेंट एक्ट) के जरिए राज्य में निजी कंपनियों को खरीददारी की अनुमति दी थी। कानून में निजी यार्डों को भी अनुमति मिली थी। किसानों को भी छूट दी गई कि वह कहीं भी अपने उत्पाद बेच सकता है। साल 2019 के आम चुनावों में कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणापत्र में इसी प्रकार के कानून बनाने का वायदा किया था, जिसका वह आज विरोध कर रही है। अब चलते हैं साल 2013 में, जब राज्य में अकाली दल बादल व भारतीय जनता पार्टी गठजोड़ की स. प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में सरकार सत्तारूढ़ थी। बादल सरकार ने इस दौरान अनुबंध कृषि (कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग) की अनुमति देते हुए कानून बनाया। कृषि विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री स. सरदारा सिंह जौहल अब पूछते हैं कि अब जब केंद्र ने इन दोनों कानूनों को मिला कर नया कानून बनाया है तो कांग्रेस व अकाली दल इसका विरोध किस आधार पर कर रहे हैं।
पंजाब में चल रहे कथित किसान आंदोलन का संचालन ढाई दर्जन से अधिक किसान यूनियनें कर रही हैं। कहने को तो भारतीय किसान यूनियन किसानों का संगठन है, परंतु इनकी वामपंथी सोच जगजाहिर है। दिल्ली में चले शाहीन बाग आंदोलन में किसान यूनियन के लोग हिस्सा ले चुके हैं। किसान आंदोलन को भड़काने के लिए गीतकारों से जो गीत गवाए जा रहे हैं, उनकी भाषा विशुद्ध रूप से विषाक्त नक्सलवादी चाशनी से लिपटी हुई है। ऊपर से रही सही कसर खालिस्तानियों व कट्टरवादियों ने पूरी कर दी। प्रदेश में चल रहे कथित किसान आंदोलन में कई स्थानों पर खालिस्तान को लेकर भी नारेबाजी हो चुकी है। सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर एक नहीं, बल्कि भारी संख्या में पेज ऐसे चल रहे हैं जो इस आंदोलन को खालिस्तान से जोड़ कर देख रहे हैं और युवाओं को भटकाने का काम कर रहे हैं।
सच्चाई तो यह है कि केंद्र के नए कृषि अधिनियम अंतत: किसानों के लिए लाभकारी साबित होने वाले हैं। इनके अंतर्गत ऑनलाइन मार्केट भी लाई गई है, जिसमें किसान अपनी फसल को इसके माध्यम से कहीं भी अपनी इच्छा से बेच सकेगा। इस कानून में राज्य सरकारों को भी अनुमति दी गई है कि वह सोसायटी बना कर माल की खरीददारी कर सकती हैं और आगे बेच भी सकती हैं। नए कानून के अनुसार, किसानों व खरीददारों में कोई झगड़ा होता है तो उपमंडल अधिकारी को एक निश्चित अवधि में इसका निपटारा करवाना होगा। इससे किसान अदालतों के चक्कर काटने से बचेगा। हैरत की बात यह है कि किसानों को नए कानून के लाभ के बारे में कोई भी नहीं जानकारी दे रहा। एक और हैरान करने वाला तथ्य है कि केंद्र सरकार ने हाल ही में पंजाब में धान की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर की है। परंतु इसके बावजूद MSP को लेकर प्रदर्शनकारियों में धुंधलका छंटने का नाम नहीं ले रहा और उन बातों को लेकर विरोध हो रहा है, जिनका जिक्र तक नए कृषि कानूनों में नहीं है। (विश्व संवाद केंद्र)
- कुमार नारद
फ्रांस में जिहादी मानसिकता के एक मुस्लिम युवक ने एक शिक्षक की गला काटकर हत्या कर दी. उसके कुछ दिन एक बार फिर मुस्लिम जिहादी युवक ने चर्च में एक महिला सहित तीन लोगों की गला काटकर हत्या कर दी. इन घटनाओं की विश्व में कड़ी निंदा की जा रही है. लेकिन दुर्भाग्य से इस्लामिक देश इन घटनाओं की निंदा करने की अपेक्षा इस्लामिक जिहाद को समर्थन दे रहे हैं. और इसके लिए वे फ्रांसीसी उत्पादों के बहिष्कार का अभियान चला रहे हैं. आतंकवाद और इस्लाम के बारे में बुद्धिजीवी लाख सफाई दें कि आतंकवाद का इस्लाम से कोई संबंध नहीं है, लेकिन देखे हुए, जाने हुए, अनुभव किए तथ्यों को कोई कैसे झुठला सकता है.
हर पंथ और मजहब यदि समय के अनुसार खुद को बदलता नहीं है तो उसमें लगा जंग, असल में भी जंग में बदल जाता है. और पिछली कई सदियों से यह देखने और अनुभव करने को मिल रहा है. भारत तो कई शताब्दियों से झेल रहा है, लेकिन उदारवाद और बहु-संस्कृतिवाद की बात करने वाला यूरोप भी पिछले कई दशकों से इस्लामिक चरमपंथ का शिकार बन रहा है. फ्रांस का उदाहरण ताजा है. फ्रांस यूरोप का वह देश है, जहां मुस्लिमों की संख्या बहुतायत में है. फ्रांस ने सीरिया और अन्य मुस्लिम मुल्कों से भगाए या भागे मुस्लिमों को उस समय शरण दी थी, जब मुस्लिम मुल्क भी उन्हें अपने यहां शरणार्थी बनाने के लिए तैयार नहीं थे. यह इस्लाम का एक अलग ही तरह का चेहरा है.
बहरहाल, राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में अत्यधिक उदारवाद हमेशा नुकसान का कारण होता है. फ्रांस इसे भुगत रहा है. और आने वाले कुछ वर्षों में यूरोप के ज्यादातर देश इसका शिकार होंगे. भारत भी रोहिंग्याओं से इसी तरह जूझ रहा है और संभव है आने वाले दिनों में वे लोग भारत के लिए नासूर बन जाएं.
भारत ने आतंकवाद से लड़ाई में फ्रांस का समर्थन किया है. भारत सरकार का यह कदम स्वागत योग्य है. लेकिन दुर्भाग्य से देश की सबसे पुरानी पार्टी के किसी नुमाइंदे ने इस घटना की निंदा नहीं की है. निंदा करने के लिए उनके फेफड़ों में दम भी नहीं है. भारत में मुस्लिम पर्सनल बोर्ड ने हत्या की निंदा करने के स्थान पर फ्रांस की आलोचना की है. यही उनका इस्लामिक धर्म है. वह अपनी कौम को नई दुनिया से साक्षात ही नहीं करवाना चाहते. उन्हें इस्लाम की जड़ों में चेतना लाने की कोई चिंता नहीं है.
भारत के इस्लाम मतावलंबियों के लिए फ्रांस की घटना एक अच्छा अवसर हो सकती थी कि वे इस्लाम में आतंकवाद और चरमपंथ का विरोध करते हुए फ्रांस का समर्थन करते, लेकिन इस्लामिक ब्रदरहुड में वे इतने अंधे हैं कि उन्हें इस्लाम के आगे गला रेतने, दुष्कर्म करने, बम फोड़ने जैसी घटनाएं नजर नहीं आतीं. भारत के मुंबई और भोपाल में हजारों की संख्या में मुस्लिम फ्रांस और वहां के राष्ट्रपति के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. लेकिन शिक्षक की गला रेत कर हत्या करने की घटना को लेकर उन्हें कोई अफसोस नहीं है. क्या उन लोगों को मित्र देश के खिलाफ इस तरह का सार्वजनिक प्रदर्शन करने की अनुमति दी जानी चाहिए? इस्लाम की दुर्दशा का अंदाजा उनके नेताओं की जुबान से पता चलता है. मलेशिया के उम्रदराज पूर्व प्रधानमंत्री महाथिर मोहम्मद जैसे लोग कहते हैं कि मुस्लिमों को लाखों की संख्या में फ्रांस के लोगों को सबक सिखाने की जरूरत है. वह भूल जाते हैं कि खराब दिनों में इस्लामिक मतावलंबियों को शरण देने वाला देश फ्रांस ही है.
क्या इस्लाम इतना खोखला हो गया है कि उन्हें कोई इंसानियत के पहलुओं के बारे में बताने वाला लीडर नहीं मिल रहा है. दुर्भाग्य की बात है कि महाथिर मोहम्मद को नहीं पता कि वे अपने बयानों से इस्लाम का कितना नुकसान कर चुके हैं. बांग्लादेश की ख्यात लेखिका तस्लीमा नसरीन सच ही कहती हैं कि इस्लाम में रिफॉर्म यानि सुधार की जरूरत है. आज से चौदह सौ साल पहले की परिस्थितियों और आज की परिस्थितियों में हजारों साल का अंतर आ गया है, लेकिन इस्लाम के अनुयाइयों का रवैया अभी भी जस का तस है. जिस मजहब की नींव ही दूसरों के धर्म, देवताओं और ईश्वरों के अपमान पर आधारित है उसको मानने वाले दूसरों को सिखा रहे है कि हमारे ईष्ट का अपमान न करो.
इस्लाम का कलमा क्या कहता है – ला इलाहा इल्लल्लाह यानि नहीं है कोई ईश्वर/ देवता सिवाए अल्लाह के. इस्लाम का पहला ही स्टेटमेंट सारे धर्मों, सभी पंथों, सभी मान्यताओं का अपमान है. अगर इसी तरह हिन्दू, सिक्ख, जैन या बौद्ध अपना कलमा बनाएं और कहें कि नहीं है कोई ईश्वर सिवाय राम के या नहीं है कोई ईश्वर सिवाय नानक के…. आपको कैसा लगेगा. आपके हिसाब से तो अल्लाह के सिवाय कोई ईश्वर ही नहीं है. इसका अर्थ हुआ कि आप किसी अन्य धर्म की किसी भी मान्यता को नहीं मानते हैं और उसे अस्वीकार करते हैं. लेकिन आप कहते हैं कि हमारा सम्मान करो. यह कैसा अजीब विरोधाभास है? पहले दूसरों का सम्मान करना तो सीखिए. आपको पैगम्बर मोहम्मद की तस्वीर पर आपत्ति है, लेकिन इस्लाम के अनुयायी जो दिन रात दूसरे धर्मों के देवी-देवताओं का अपमान करते हैं, उस पर चुप्पी क्यों साध लेते हैं.
अगर पूरी दुनिया में इस्लामिक चरमपंथ के खिलाफ लामबंदी हो रही है और इस्लाम को इंसानियत के लिए खतरा बताया जा रहा है तो इसमें सबसे ज्यादा दोष इस्लाम के मतावलंबियों और उनके उन धार्मिक नेताओं का है, जिन्होंने समय के अनुसार इस्लाम को बदलने का प्रयास नहीं किया. यदि यही चलता रहा तो फ्रांस से उठी क्रांति आने वाले समय में पूरे संसार को इस्लाम के खिलाफ लामबंद कर देगी.
(विश्व संवाद केंद्र)