सर्दियों के शुरू होते ही तापमान नीचे जाने लगता है और इसके साथ ही सर्दी-जुकाम, वायरल संक्रमण और प्रदूषण से जुड़ी परेशानियाँ भी बढ़ जाती हैं। ऐसे मौसम में शरीर को अंदर से मजबूत रखना बेहद जरूरी हो जाता है। भारतीय खानपान और आयुर्वेद में कई ऐसे प्राकृतिक काढ़े बताए गए हैं, जो शरीर को गर्माहट देने के साथ–साथ रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाते हैं। ये घरेलू नुस्खे न केवल सर्दी के मौसमी संक्रमणों से बचाव करते हैं, बल्कि शरीर को स्वस्थ और ऊर्जावान बनाए रखने में भी मददगार साबित होते हैं।
इन काढ़ों में मौजूद तत्व एंटी-वायरल और एंटी-इंफ्लेमेटरी गुणों से भरपूर होते हैं, जो शरीर को स्वाभाविक रूप से संक्रमण से लड़ने की क्षमता प्रदान करते हैं। आइए जानते हैं ऐसे पाँच प्रभावी काढ़ों के बारे में, जिन्हें सर्दियों में अपनी दिनचर्या में शामिल करना फायदेमंद है।
तुलसी–अदरक का काढ़ा
तुलसी और अदरक का संयोजन सर्दी-जुकाम में बेहद कारगर माना जाता है। तुलसी के पत्तों में जीवाणुरोधी और वायरस-रोधी गुण पाए जाते हैं, जबकि अदरक सूजन कम करने में सहायक होता है। पानी में तुलसी और कूटा हुआ अदरक उबालकर बनाया गया यह काढ़ा गले की जलन, खांसी और जुकाम में जल्दी राहत देता है और प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है।
हल्दी वाला काढ़ा
हल्दी अपने औषधीय गुणों के लिए जानी जाती है। इसमें मौजूद करक्यूमिन एक शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट है, जो संक्रमण से बचाव में मदद करता है। गर्म दूध या पानी में थोड़ी हल्दी और काली मिर्च मिलाकर उबालने से यह काढ़ा सूजन कम करने, शरीर को गर्म रखने और दर्द से राहत देने में सहायक साबित होता है।
गुड़–अदरक का काढ़ा
सर्दियों में शरीर को गर्म रखने और ऊर्जा बढ़ाने के लिए यह काढ़ा बहुत उपयोगी है। गुड़ आयरन से भरपूर होता है और अदरक शरीर में गर्माहट पहुंचाता है। पानी में गुड़ और अदरक को अच्छी तरह उबालकर तैयार किया गया यह पेय रक्तसंचार सुधरने, थकान दूर करने और कमजोरी कम करने में मदद करता है।
नींबू–अदरक–शहद काढ़ा
यह मिश्रण इम्यूनिटी बढ़ाने के साथ शरीर को डिटॉक्स करने में भी मदद करता है। गर्म पानी में नींबू का रस, शहद और अदरक मिलाकर तैयार किया गया यह पेय विटामिन C प्रदान करता है, गले को आराम देता है और पाचन में भी सुधार करता है। कब्ज और एसिडिटी जैसे लक्षणों में भी यह लाभदायक माना जाता है।
अजवाइन का काढ़ा
अजवाइन में मौजूद थाइमोल कफ को ढीला करने और सांस संबंधी दिक्कतों में राहत देने वाला तत्व है। पानी में अजवाइन और हल्की काली मिर्च उबालकर बनाया गया यह काढ़ा छाती में जमाव, बंद नाक और कफ की परेशानी में उपयोगी है। यह सर्दी के मौसम में श्वसन तंत्र को मजबूत बनाता है।
नोट:
यह लेख सामान्य जानकारी पर आधारित है और किसी भी उपचार का विकल्प नहीं है। किसी भी प्रकार की स्वास्थ्य समस्या या एलर्जी की स्थिति में विशेषज्ञ की सलाह अवश्य लें।
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How to Add Vitamin B12 in Diet: विटामिन B12 शरीर के लिए उन पोषक तत्वों में शामिल है, जिनकी कमी कई गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं की जड़ बन सकती है। इसे कोबालामिन भी कहा जाता है और यह लाल रक्त कोशिकाओं का निर्माण, नसों की सुरक्षा और डीएनए बनने की प्रक्रिया के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। जब शरीर में इसकी मात्रा कम होने लगती है तो हाथ-पैरों में झनझनाहट, लगातार थकान, याददाश्त कमजोर होना और एनीमिया जैसे लक्षण सामने आने लगते हैं।
चूंकि यह विटामिन मुख्य रूप से पशु-आधारित खाद्य पदार्थों में पाया जाता है, इसलिए शाकाहारी और वीगन लोगों में इसकी कमी का खतरा ज्यादा रहता है। लेकिन अच्छी बात यह है कि बी12 की कमी दूर करने के लिए हमेशा महंगे सप्लीमेंट्स पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं पड़ती। हमारे रोजमर्रा के खाने में भी कई ऐसे विकल्प मौजूद हैं, जो इस पोषक तत्व की जरूरत को पूरा कर सकते हैं।
दूध और डेयरी उत्पाद शाकाहारियों के लिए बी12 के सर्वोत्तम प्राकृतिक स्रोत हैं। गाय का दूध, दही, पनीर और छाछ न केवल आसानी से उपलब्ध हैं, बल्कि इनमें बी12 की मात्रा भी काफी अच्छी होती है। फुल-फैट या टोन्ड दूध इस विटामिन के अवशोषण के लिए अधिक फायदेमंद माना जाता है।
मांसाहारी लोगों के लिए अंडा विटामिन बी12 का बेहद प्रभावी और किफायती विकल्प है। इसके अलावा मछली—खासकर सैल्मन और टूना—चिकन और रेड मीट भी इस विटामिन की कमी को तेजी से पूरा करने में मदद करते हैं।
वहीं, वीगन और सख्त शाकाहारी लोग फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थों की मदद ले सकते हैं। आजकल बाजार में कई उत्पाद ऐसे उपलब्ध हैं, जिनमें बी12 को अतिरिक्त रूप से मिलाया जाता है—जैसे फोर्टिफाइड सोया दूध, बादाम दूध, ओट्स और नाश्ते में खाए जाने वाले कई प्रकार के सीरियल।
इसके अलावा न्यूट्रिशनल यीस्ट भी बी12 का एक लोकप्रिय विकल्प बनकर उभरा है। इसे अक्सर वीगन डाइट में चीज जैसा स्वाद देने और पोषण बढ़ाने के लिए शामिल किया जाता है।
यदि टेस्ट में कमी गंभीर पाई जाती है, तो डॉक्टर की सलाह से ही सप्लीमेंट (टैबलेट या इंजेक्शन) शुरू करना चाहिए, क्योंकि केवल आहार के जरिए गंभीर कमी को पूरा करना मुश्किल हो सकता है।
सर्दियों का मौसम अस्थमा से पीड़ित लोगों के लिए हर साल नई चुनौतियां लेकर आता है। तापमान गिरते ही अस्थमा के अटैक का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार ठंडी और शुष्क हवा सांस की नलियों को संकुचित कर देती है, जिससे उनमें सूजन बढ़ने लगती है। इसके अलावा जीवनशैली से जुड़ी कुछ सामान्य गलतियां भी अस्थमा को गंभीर रूप से ट्रिगर करती हैं।
अस्थमा मरीजों की सांस नलियां पहले से ही अत्यंत संवेदनशील होती हैं, ऐसे में हल्का सा ट्रिगर भी तीव्र प्रतिक्रिया उत्पन्न कर सकता है। चिकित्सकों का कहना है कि सर्दियों में इन छोटी-छोटी आदतों पर ध्यान न देने से अस्थमा अनियंत्रित हो सकता है, जो लंबे समय में फेफड़ों को स्थायी क्षति पहुंचाने तक का जोखिम पैदा करता है।
प्रदूषण और संक्रमण बन रहे मुख्य कारक
सर्दियों के महीनों में वायु प्रदूषण तेजी से बढ़ता है, जो अस्थमा के प्रमुख ट्रिगर्स में से एक है। विशेषज्ञों के अनुसार उच्च AQI में बिना मास्क के बाहर निकलना, घर के अंदर धूपबत्ती या मच्छर कॉइल का उपयोग करना फेफड़ों में सीधे सूजन बढ़ाता है। वहीं सर्दी-ज़ुकाम और फ्लू जैसे वायरल संक्रमण भी अस्थमा को गंभीर कर देते हैं।
अचानक तापमान परिवर्तन से बढ़ता जोखिम
ठंड में गर्म कमरे से सीधे बाहर निकलना या बहुत गर्म पानी से नहाकर तुरंत ठंडी हवा में जाना सांस नलियों को झटका देता है, जिससे अटैक का खतरा बढ़ जाता है। डॉक्टर सलाह देते हैं कि बाहर निकलते समय नाक और मुंह को स्कार्फ या मास्क से ढकना जरूरी है।
इन्हेलर और दवाओं में अनियमितता से स्थिति बिगड़ती है
अस्थमा से पीड़ित कई लोग लक्षणों में सुधार महसूस होते ही निवारक इन्हेलर या नियमित दवाओं का उपयोग कम कर देते हैं। विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि ऐसा करने से फेफड़ों की सूजन फिर से बढ़ सकती है और मामूली प्रदूषण या ठंड भी गंभीर अटैक का कारण बन सकती है।
कम पानी पीना और व्यायाम की कमी भी हानिकारक
सर्दियों में पानी का सेवन कम होने से डिहाइड्रेशन होता है, जिससे बलगम गाढ़ा होकर सांस की नलियों में जमने लगता है। घर के अंदर हल्का व्यायाम, योग या वॉक न करने से फेफड़ों की क्षमता भी प्रभावित होती है।
नोट: यह रिपोर्ट मेडिकल रिसर्च और स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सलाह के आधार पर तैयार की गई है।
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आज की डिजिटल लाइफस्टाइल में स्मार्टफोन लोगों की दिनचर्या का सबसे बड़ा हिस्सा बन गया है। यही कारण है कि कई लोग टॉयलेट पर भी फोन लेकर बैठ जाते हैं—जहाँ वे मिनटों का काम घंटों तक खींच देते हैं। चिकित्सकों के मुताबिक यह seemingly harmless आदत अब स्वास्थ्य के लिए खतरा बन चुकी है। अमेरिका स्थित बेथ इजराइल डिकॉनेस मेडिकल सेंटर द्वारा की गई एक नई स्टडी ने बताया कि टॉयलेट सीट पर बैठकर स्मार्टफोन चलाना पाइल्स (हेमोरॉयड्स) के बढ़ते मामलों का बड़ा कारण बन रहा है।
पाइल्स एक ऐसी स्थिति है जिसमें गुदा क्षेत्र की नसों में सूजन आ जाती है, जिससे दर्द, खुजली और कभी-कभी रक्तस्राव तक हो सकता है। शोध के अनुसार, अकेले अमेरिका में हर साल करीब 40 लाख लोग इस समस्या के कारण डॉक्टर के पास पहुंचते हैं। नई स्टडी में पाया गया कि स्मार्टफोन उपयोग की वजह से लोग टॉयलेट में जरूरत से ज्यादा देर बैठे रहते हैं, जिससे गुदा क्षेत्र पर लगातार दबाव पड़ता है और जोखिम बढ़ जाता है—विशेषकर युवा वर्ग में।
स्टडी का निष्कर्ष: स्मार्टफोन यूजर्स में 46% तक बढ़ा खतरा
125 वयस्कों पर किए गए सर्वे में यह सामने आया कि 66% प्रतिभागी टॉयलेट पर फोन इस्तेमाल करते हैं। इन लोगों में पाइल्स का खतरा उन लोगों की तुलना में 46% अधिक पाया गया जो टॉयलेट में फोन नहीं ले जाते। यह विश्लेषण उम्र, फाइबर सेवन और शारीरिक गतिविधि जैसे कारकों को ध्यान में रखकर किया गया।
समस्या फोन नहीं, टॉयलेट पर बढ़ता समय
अध्ययन के अनुसार, असली समस्या है—अनावश्यक रूप से टॉयलेट पर लंबे समय तक बैठना। विशेषज्ञों का कहना है कि फोन स्क्रॉल करते-करते व्यक्ति यह भूल जाता है कि वह टॉयलेट पर बैठा है। इससे गुदा क्षेत्र के ऊतकों और नसों पर दबाव बढ़ जाता है, जो पाइल्स जैसी समस्या को जन्म देता है।
सोशल मीडिया स्क्रॉलिंग बनी मुख्य वजह
सर्वे में प्रतिभागियों ने बताया कि टॉयलेट पर किए जाने वाले कामों में सबसे आम हैं:
सोशल मीडिया स्क्रॉल करना
न्यूज़ या आर्टिकल पढ़ना
ये आदतें अनजाने में टॉयलेट टाइम को कई गुना बढ़ा देती हैं, जिससे जोखिम और बढ़ जाता है। स्टडी के शोधकर्ता बताते हैं कि यह परिणाम भविष्य में चिकित्सकीय सलाह और बचाव उपाय तय करने में मददगार होंगे।
कैसे बचें इस जोखिम से—विशेषज्ञों की सलाह
टॉयलेट पर 5–10 मिनट से ज्यादा न बैठें
फोन को बाथरूम में न ले जाएं
डाइट में फाइबर और पानी की मात्रा बढ़ाएं
नियमित व्यायाम करें
कब्ज से बचने की कोशिश करें
इन उपायों से टॉयलेट पर समय स्वतः कम होगा और पाइल्स का खतरा भी काफी घटेगा।
नोट: यह लेख मेडिकल रिपोर्ट्स और विशेषज्ञ अध्ययन पर आधारित है।
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पेट दर्द को अक्सर लोग सामान्य गैस, अपच या खानपान की गड़बड़ी का परिणाम समझकर नजरअंदाज कर देते हैं, लेकिन हर बार होने वाला पेट दर्द उतना सामान्य नहीं होता। कई बार यह दर्द शरीर के भीतर चल रही गंभीर समस्याओं का शुरुआती संकेत हो सकता है, जिन पर समय रहते ध्यान न दिया जाए तो स्थिति खतरनाक भी बन सकती है। पेट वह केंद्र है जहां लिवर, किडनी, पित्ताशय, अग्न्याशय और आंत जैसे कई महत्वपूर्ण अंग मौजूद होते हैं, इसलिए इनमें किसी भी तरह की गड़बड़ी पेट दर्द के रूप में दिखाई दे सकती है। ऐसे में जरूरी है कि व्यक्ति दर्द की प्रकृति को समझे और समय पर चिकित्सकीय सलाह ले।
1. पित्ताशय में पथरी का संकेत
अगर पेट के ऊपरी दाहिने हिस्से में अचानक तेज दर्द उठे, जो तली-भुनी या भारी चीजें खाने के बाद बढ़ जाए और दर्द कंधे या पीठ तक पहुंचने लगे, तो यह पित्ताशय की पथरी की ओर इशारा करता है। पथरी जब पित्त नलिकाओं में फंस जाती है, तो तीव्र दर्द के साथ मतली और उल्टी भी हो सकती है। ऐसे मामलों में तुरंत चिकित्सा जरूरी है।
2. अपेंडिसाइटिस और आंत्र संबंधी रोग
नाभि के आसपास महसूस होने वाला दर्द यदि धीरे-धीरे दाहिने निचले हिस्से की ओर बढ़कर तेज हो जाए, तो यह अपेंडिसाइटिस हो सकता है—जो एक मेडिकल इमरजेंसी है और त्वरित सर्जरी की मांग करता है।
इसके अलावा, लंबे समय तक लगातार दस्त, कब्ज, या पेट में ऐंठन रहना इर्रिटेबल बाउल सिंड्रोम (IBS) या इंफ्लेमेटरी बाउल डिजीज (IBD) जैसी गंभीर आंत्र बीमारियों का लक्षण हो सकता है।
3. किडनी स्टोन और पेट के अल्सर का दर्द
तेज, लहरों जैसा और कमर से पेट की ओर फैलने वाला दर्द किडनी स्टोन की ओर संकेत करता है। यह दर्द बेहद तीव्र हो सकता है और कई बार पेशाब में जलन या खून के साथ भी दिखाई देता है।
इसके विपरीत, पेट के ऊपरी हिस्से में खाली पेट बढ़ने वाला जलनयुक्त दर्द अक्सर पेट के अल्सर का लक्षण होता है, जिसे अनदेखा करने पर स्थिति बिगड़ सकती है।
4. कब तुरंत डॉक्टर से मिलें?
यदि पेट दर्द के साथ इनमें से कोई लक्षण दिखे, तो तुरंत डॉक्टर से सलाह लें:
तेज बुखार
उल्टी में खून
मल या पेशाब में खून
लगातार दस्त
अचानक वजन घटना
दर्द का लंबे समय तक बना रहना
सामान्य अपच से होने वाला दर्द जल्द ठीक हो जाता है, लेकिन लगातार या असहनीय दर्द शरीर में किसी गंभीर समस्या की चेतावनी है, जिसे अनदेखा करना खतरनाक साबित हो सकता है।
नोट:
यह लेख चिकित्सकीय रिपोर्टों और विशेषज्ञों की राय पर आधारित है।
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सर्दियों में तापमान गिरते ही कई लोगों की उंगलियों में सूजन, लाल धब्बे, जलन और तेज खुजली जैसी समस्याएं शुरू हो जाती हैं। खासतौर पर ठंड में काम करने वाली महिलाओं में यह दिक्कत अधिक देखी जाती है। मेडिकल साइंस में इस स्थिति को ‘चिलब्लेन्स’ कहा जाता है, जो ठंड और गर्मी के अचानक बदलाव पर शरीर की असामान्य प्रतिक्रिया के कारण पैदा होती है।
सर्द मौसम में जब उंगलियां ठंड के लंबे संपर्क में रहती हैं और फिर अचानक गर्म वातावरण में आती हैं, तो त्वचा के नीचे मौजूद सूक्ष्म रक्त वाहिकाएं तेजी से फैल जाती हैं। वहीं ठंड में ये वाहिकाएं सिकुड़ चुकी होती हैं। यह अचानक फैलाव उन्हें नुकसान पहुंचाता है और तरल पदार्थ बाहर निकलकर आसपास के ऊतकों में जमा हो जाता है। इसी वजह से उंगलियों में जलन, सूजन या लालिमा दिखाई देती है—इसे ही चिलब्लेन्स कहा जाता है।
विशेषज्ञों के अनुसार जिन लोगों में रक्त परिसंचरण पहले से धीमा रहता है, उनमें यह समस्या अधिक पाई जाती है। यह कोई संक्रमण या एलर्जी नहीं, बल्कि तापमान परिवर्तन से होने वाली संवहनी प्रतिक्रिया है।
महिलाओं में क्यों अधिक होती है समस्या?
घर की महिलाओं को ठंड में लगातार पानी के संपर्क में रहना पड़ता है, खासकर बर्तन धोने या घर के कामों के दौरान। नम उंगलियां ठंड को तेजी से पकड़ती हैं, जिससे रक्त वाहिकाएं जल्दी सिकुड़ती हैं और बाद में शिकायत बढ़ जाती है।
सर्दियों में तंग जूते या नम दस्ताने पहनने से भी रक्त प्रवाह रुकता है और चिलब्लेन्स के लक्षण उभर सकते हैं।
चिलब्लेन्स में क्या होता है – सरल समझ
ठंड में रक्त वाहिकाएं सिकुड़ती हैं
अचानक गर्मी मिलने पर वे तेजी से फैलती हैं
इस तेजी से फैलाव के कारण वाहिकाएं क्षतिग्रस्त होती हैं
तरल पदार्थ आसपास की त्वचा में जमा होकर सूजन और लालिमा पैदा करता है
बचाव का सबसे आसान उपाय
ठंड से आने के बाद हाथ-पैर को अचानक गर्म न करें।
हीटर, गीजर या गर्म पानी की बाल्टी में तुरंत हाथ डालने की गलती न करें।
इसके बजाय:
पहले हाथ-पैर को सूखे कपड़े से हल्के से पोंछें
सरसों के तेल या किसी हल्के तेल से धीमी मालिश करें
शरीर को धीरे-धीरे सामान्य तापमान पर आने दें
जरूरी सावधानियाँ (सर्दियों में बिल्कुल ध्यान रखें)
बाहर जाते समय दस्ताने और गर्म, आरामदायक फुटवियर पहनें
हाथ-पैर को देर तक पानी के संपर्क में न रखें
रोजाना हल्की मालिश कर रक्त संचार बेहतर बनाए रखें
हल्के व्यायाम से भी रक्त प्रवाह मजबूत होता है
नोट:
यह लेख विभिन्न मेडिकल अध्ययन और विशेषज्ञ रिपोर्टों से संकलित जानकारी पर आधारित है।
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तेज़ रफ्तार जीवनशैली और देर रात तक जागने की आदतों के कारण आज अधिकांश लोग नींद की गड़बड़ी से जूझ रहे हैं। अनियमित दिनचर्या की वजह से शरीर की प्राकृतिक सर्केडियन क्लॉक असंतुलित हो जाती है, जिसका असर नींद के साथ-साथ ऊर्जा स्तर, पाचन तंत्र और इम्यून सिस्टम पर भी पड़ता है। विशेषज्ञों का कहना है कि केवल सोने की दवाई लेने से समस्या स्थायी रूप से दूर नहीं होती, बल्कि नींद से जुड़ी रूटीन में छोटे-छोटे बदलाव ही इसका असली समाधान हैं।
नींद से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण बात है — हर दिन एक निश्चित समय पर बिस्तर पर जाना और उठना। लगातार एक ही टाइम-टेबल का पालन करने से दिमाग को पता चलता है कि नींद का हार्मोन कब रिलीज़ करना है। इससे कुछ ही दिनों में नींद स्वतः समय पर आने लगती है और शरीर अपनी नैचुरल रिदम में लौट आता है।
रात को सोने से पहले मोबाइल, लैपटॉप और टीवी जैसी स्क्रीन से दूरी बनाना भी बेहद ज़रूरी है। इनसे निकलने वाली ब्लू लाइट दिमाग को जागृत रखती है और नींद का संकेत देने वाले हार्मोन को कम कर देती है। बातचीत, हल्का संगीत या किताब पढ़ना सोने से पहले शांत माहौल बनाने के अच्छे विकल्प हैं।
तनाव भी नींद खराब होने की प्रमुख वजहों में से एक है। सोने से पहले कुछ मिनट का मेडिटेशन या गहरी सांसों का अभ्यास दिमाग को आराम देता है। बेडरूम का वातावरण जितना शांत, अंधेरा और आरामदायक होगा, नींद उतनी गहरी और निरंतर मिलेगी। थोड़ा ठंडा तापमान भी बेहतर नींद को बढ़ावा देता है।
सुबह उठते ही सूर्य की रोशनी लेना बेहद फायदेमंद माना जाता है। प्राकृतिक प्रकाश मेलाटोनिन के उत्पादन को रोककर शरीर को दिन शुरू करने का संदेश देता है। वहीं, दोपहर के बाद चाय-कॉफी जैसे कैफीन वाले पेय पदार्थों से दूरी नींद की गुणवत्ता को और बेहतर बनाती है, क्योंकि कैफीन शरीर में कई घंटों तक सक्रिय रहता है और रात को सोने की क्षमता को कम कर देता है।
अपने रूटीन में ये साधारण बदलाव जोड़कर आप अपनी स्लीप साइकिल को दोबारा संतुलित कर सकते हैं और प्रतिदिन अधिक तरोताज़ा महसूस कर सकते हैं।
सर्दियों की शुरुआत के साथ ही हवा में ठंडक और नमी बढ़ जाती है, जो कई मौसमी बीमारियों का खतरा बढ़ाने लगती है। खासतौर पर बच्चों और बुजुर्गों के लिए यह मौसम चुनौतीपूर्ण माना जाता है, क्योंकि इस दौरान वायरस और बैक्टीरिया अधिक सक्रिय हो जाते हैं। इन्हीं संक्रमणों में सबसे खतरनाक है—निमोनिया, जो हर साल बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित करता है और गंभीर मामलों में जान के लिए भी खतरा बन जाता है।
निमोनिया: सर्दियों में तेजी से फैलने वाला संक्रमण
निमोनिया फेफड़ों में होने वाला गंभीर इंफेक्शन है, जो वायरस, बैक्टीरिया या फंगस के कारण विकसित हो सकता है। इसके लक्षणों में लगातार खांसी, तेज बुखार, सांस फूलना, थकान और छाती में दर्द शामिल हैं। कमजोर इम्युनिटी वाले लोगों, बुजुर्गों और छोटे बच्चों में इसके गंभीर होने का जोखिम और अधिक रहता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, दुनिया में हर साल लाखों बच्चों की मौत निमोनिया से होती है। ठंड के मौसम में यह आंकड़ा और बढ़ जाता है, इसलिए इस समय बच्चों व बुजुर्गों की अतिरिक्त देखभाल जरूरी है।
ठंड क्यों बढ़ा देती है निमोनिया का खतरा?
एक्सपर्ट बताते हैं कि सर्दियों में बच्चे घरों के अंदर अधिक समय बिताते हैं, जिससे संक्रमित व्यक्तियों के संपर्क में आने का जोखिम बढ़ जाता है। साथ ही—
सूरज की कम रोशनी के कारण विटामिन D की कमी
प्रदूषण और धुएं का बढ़ा संपर्क
ठंड में शरीर की प्रतिरक्षा का कमजोर होना
दूषित पानी और अस्वच्छ भोजन
ये सभी कारक बच्चों और बुजुर्गों में निमोनिया संक्रमण का खतरा कई गुना बढ़ा देते हैं।
विशेषज्ञों की राय
श्वसन रोग विशेषज्ञ डॉ. एन.आर. चौहान बताते हैं कि ठंड सीधे तौर पर निमोनिया का कारण नहीं बनती, लेकिन यह ऐसे वातावरण को जन्म देती है जिसमें संक्रमण तेजी से फैलता है। हवा का सूखापन फेफड़ों में जलन पैदा करता है, जिससे संक्रमण आसानी से पकड़ लेता है।
वे बताते हैं कि डायबिटीज, अस्थमा, सीओपीडी और कमजोर फेफड़ों वाले लोगों में गंभीर निमोनिया होने की आशंका ज्यादा रहती है। छोटे बच्चों और बुजुर्गों में तो यह जोखिम और भी बढ़ जाता है।
निमोनिया से बचाव कैसे करें?
1. वैक्सीन जरूर लगवाएं
न्यूमोकोकल और इन्फ्लूएंजा वैक्सीन निमोनिया से बचाव के सबसे प्रभावी उपाय हैं। डॉक्टर की सलाह के अनुसार बच्चों को समय पर सभी टीके लगवाना उनकी सुरक्षा की मजबूत ढाल मानी जाती है।
2. बच्चों को ठंड से बचाना बेहद जरूरी
बच्चे को गर्म कपड़े पहनाएं
साफ-सफाई बनाए रखें
खिलौनों की नियमित सफाई करें
बीमार लोगों से दूरी रखें
बार-बार हाथ धोने की आदत डालें
3. स्वच्छता और मास्क का प्रयोग
डॉक्टरों के अनुसार, निमोनिया से बचाव के लिए स्वच्छता बहुत महत्वपूर्ण है। हाथ धोना, मास्क पहनना और फ्लू जैसे लक्षण वाले लोगों से दूर रहना संक्रमण के खतरे को काफी हद तक रोकता है।
4. मां का दूध और पौष्टिक आहार
अध्ययनों से पता चलता है कि मां का दूध शिशुओं की प्रतिरक्षा को मजबूत रखता है। बड़े बच्चों को विटामिन C, विटामिन D और जिंक से भरपूर चीजें खिलाना चाहिए, जिससे फेफड़े मजबूत रहते हैं।
कब लें डॉक्टर की सलाह?
अगर किसी व्यक्ति को—
बलगम वाली खांसी कई दिनों तक बनी रहे
तेज बुखार उतर न रहा हो
सांस लेने में परेशानी हो
सीने में दर्द हो
तो तत्काल डॉक्टर से संपर्क करना चाहिए। समय पर इलाज न मिलने पर निमोनिया गंभीर रूप ले सकता है।
(साभार)
दुनियाभर में लगातार बढ़ता मोटापा अब सिर्फ गलत खानपान और भागदौड़ भरी दिनचर्या का नतीजा नहीं रह गया है। नई वैज्ञानिक रिपोर्टें बताती हैं कि बदलती जलवायु भी इंसानी वजन बढ़ने में एक छुपे हुए कारक की तरह काम कर रही है। विशेषज्ञों के अनुसार, तापमान में हो रही बढ़ोतरी और वातावरण में बढ़ती कार्बन डाइऑक्साइड हमारे भोजन की गुणवत्ता को सीधे प्रभावित कर रही है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि लाइफस्टाइल से जुड़ी आदतें, जैसे कम शारीरिक गतिविधि, तनाव और प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों का सेवन तो मोटापे को बढ़ाते ही हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण हमारी रोजमर्रा की फसलों में भी पोषक तत्वों की मात्रा कम होने लगी है। परिणामस्वरूप लोग ज्यादा कैलोरी और कम पोषण वाला भोजन खा रहे हैं, जो धीरे-धीरे वजन बढ़ाने की स्थिति बना रहा है।
नीदरलैंड्स के वैज्ञानिकों की एक टीम ने बताया कि हवा में CO2 के बढ़ते स्तर से चावल, गेहूं, जौ और अन्य प्रमुख फसलों में शर्करा और स्टार्च का स्तर बढ़ रहा है, जबकि उनमें मौजूद प्रोटीन, आयरन और जिंक जैसे अहम पोषक तत्व घटते जा रहे हैं। इसका सीधा असर मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहा है क्योंकि ऐसी फसलें अधिक ऊर्जा देने वाली लेकिन कम पोषण मूल्य की बन रही हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, उच्च CO2 वाले इलाकों में उगाई गई फसलों में पोषक तत्वों की कमी 4% से लेकर 30% से अधिक तक दर्ज की गई। चावल और गेहूं जैसे मुख्य अनाज भी इससे बुरी तरह प्रभावित पाए गए, जबकि चने में मिलने वाले जिंक की मात्रा में तुलनात्मक रूप से सबसे ज्यादा गिरावट देखी गई।
वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि यह प्रवृत्ति जारी रही तो दुनिया के एक बड़े हिस्से के लिए पौष्टिक भोजन की उपलब्धता चुनौती बन सकती है। पोषण में कमी न सिर्फ मोटापा बढ़ाएगी, बल्कि प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होने, क्रॉनिक बीमारियों के उभरने और संपूर्ण स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डाल सकती है।
विशेषज्ञ इस स्थिति को अत्यंत गंभीर बताते हुए कहते हैं कि खाद्य सुरक्षा को केवल मात्रा के हिसाब से नहीं, बल्कि गुणवत्ता के आधार पर भी समझने की जरूरत है। अगर तुरंत समाधान नहीं खोजे गए तो बदलता मौसम मानव स्वास्थ्य के लिए एक बड़ी समस्या बन सकता है।
पीलिया को लेकर जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि त्वचा और आंखों का पीला पड़ना शरीर में किसी गंभीर विकार का शुरुआती संकेत हो सकता है। चिकित्सा भाषा में जॉन्डिस के नाम से पहचानी जाने वाली यह स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब शरीर में बिलीरुबिन नामक पिगमेंट की मात्रा असामान्य रूप से बढ़ जाती है। सामान्य स्थिति में लिवर इस पदार्थ को पित्त के माध्यम से बाहर निकाल देता है, लेकिन लिवर की कार्यप्रणाली प्रभावित होने या पित्त नलिकाओं में रुकावट आने पर यह प्रक्रिया बाधित हो जाती है।
पीलिया कैसे विकसित होता है?
विशेषज्ञों के अनुसार पीलिया अपने आप में कोई बीमारी नहीं, बल्कि किसी गहरी स्वास्थ्य समस्या का संकेत है। लिवर का कमजोर होना, पित्त नलिकाओं में अवरोध या लाल रक्त कोशिकाओं का तेजी से टूटना—ये सभी स्थितियां रक्त में बिलीरुबिन का स्तर बढ़ा देती हैं। बढ़ा हुआ बिलीरुबिन त्वचा और आंखों को पीला कर देता है। यह समस्या शिशुओं से लेकर बुजुर्गों तक किसी को भी प्रभावित कर सकती है।
शुरुआती लक्षणों पर रखें ध्यान
पीलिया का प्रमुख लक्षण आंखों का पीला होना है, लेकिन इसके साथ कई अन्य संकेत भी दिखाई देते हैं। त्वचा का पीला या नारंगी दिखने लगना, पेशाब का गहरा रंग और मल का हल्का रंग होना इसके आम संकेत माने जाते हैं। कई मरीजों को तेज खुजली, थकान, हल्का बुखार और पेट दर्द जैसी समस्याएं भी महसूस होती हैं, जिन्हें लोग अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं।
लिवर पर असर और पाचन समस्याएं
लिवर पर भार बढ़ने के कारण मरीजों को पाचन संबंधी परेशानियां होने लगती हैं। लगातार मतली, उल्टी, भूख में भारी कमी और पेट के दाहिने ऊपरी हिस्से में दर्द इसके सामान्य लक्षण हैं। यदि पीलिया पित्त नलिकाओं में रुकावट की वजह से है, तो दर्द और ज्यादा तीव्र हो सकता है, जिसके लिए तुरंत इलाज की आवश्यकता होती है।
विटामिन B12 की कमी भी बन सकती है कारण
विशेषज्ञों का कहना है कि विटामिन B12 की भारी कमी से उत्पन्न पर्निशियस एनीमिया भी पीलिया की वजह बन सकता है। इस स्थिति में लाल रक्त कोशिकाएं असामान्य रूप से बड़ी और कमजोर बन जाती हैं, जो जल्दी टूटती हैं और बिलीरुबिन का स्तर बढ़ा देती हैं। हालांकि, एक बार पीलिया हो जाने के बाद केवल B12 सप्लीमेंट लेने से समस्या ठीक नहीं होती—उपचार उसके मूल कारण पर आधारित होना जरूरी है।
कब लें डॉक्टर की मदद?
यदि आंखों या त्वचा में पीलापन दिखाई दे, पेशाब का रंग असामान्य रूप से गहरा हो या बिना वजह तेज खुजली हो रही हो, तो विशेषज्ञ डॉक्टर से तत्काल जांच कराने की सलाह देते हैं। लिवर फंक्शन टेस्ट और संबंधित ब्लड टेस्ट के जरिए पीलिया के पीछे छिपे कारणों का शीघ्र पता लगाया जा सकता है। समय पर की गई जांच से हेपेटाइटिस, लिवर सिरोसिस या पित्त नलिकाओं की रुकावट जैसी गंभीर स्थितियों को नियंत्रित करना संभव होता है।
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