मुकेश नौटियाल
मां ने पंखों से रेत हटाकर गड्ढा बनाया। फिर गड्ढे में अंडे दे दिए। एक दो नहीं, पूरे पचास-पचपन अंडे। अंडे देकर मां समंदर में चली गई और फिर कभी नहीं लौटी। उसका काम समाप्त हो गया था।
हर सुबह सूरज मुस्तैदी से आता, धरती पर ताप बरसाता और सांझ ढलने पर समंदर के बीच कहीं उतर जाता। तट पर रेत तपती रही ,अंडों को सेती रही और एक दिन अचानक रेत में हलचल होने लगी। कुछ ही देर बाद एक नन्हे कछुए ने रेत से बाहर गर्दन निकाली ,आश्चर्य से इधर-उधर नजरें दौड़ाई और फुर्ती से अपने मांसल पंखुड़े घसीटता हुआ समंदर की ओर भागा। फिर दूसरे, तीसरे, चौथे और दर्जनभर कछुओं ने ऐसा ही किया। पहली बार उन्होंने धरती देखी थी ,पहली बार आकाश। वहां ना उनकी मां थी, ना पिता। पता नहीं किसने उनको बताया कि जीना है तो समंदर की ओर दौड़ो। वे सभी समंदर की ओर दौड़ने लगे। जहां मां ने अंडे दिए थे वहां से समंदर कोई सौ मीटर दूर रहा होगा पर सौ मीटर का फासला भी किसी नवजात कछुए के लिए कम तो नहीं। तब तो हरगिज़ नहीं जब बीत्ते भर के इस सफर में कई ख़तरे मौजूद हों। नन्हे कछुओं की समंदर के तट पर दौड़ क्या शुरू हुई ,आकाश में चीलें मंडराने लगीं। शिकारियों का जत्था आ पहुंचा। शिशु कच्छप उनका निवाला बनने लगे। चीलों को देखकर केकड़े भी सक्रिय हो गए। समंदर छोड़ तट पर आकर वह नन्हें कछुओं को अपने पंजों में दबोचने लगे। समंदर का शांत तट कोलाहल और हलचल से भर गया। शिकारी भूख से बिलबिला रहे थे, शिकार बचाव के लिए छटपटा रहे थे।
आखिरकार युद्ध समाप्त हुआ। कई शिशु कच्छप समंदर तक पहुंचे। जितने समंदर तक पहुंचे उतने ही चीलों और केकड़ों के शिकार हुए। लेकिन एक कछुआ था जो न समंदर तक पहुंचा, न ही किसी का शिकार बना। वह सबसे कमजोर कछुआ था। जब मां ने अंडे दिए थे तभी एक अंडा बाकियों से अलग, गड्ढे के अकेले कोने पर जा लगा था। ढेर में तो अंडों को एक दूसरे का ताप मिलता रहा इसलिए सभी एक साथ परिपक्व हुए। अकेला अंडा आखिर में चटका और उसके अंदर से निकला शिशु कच्छप बाकियों से दुर्बल निकला। जब उसने रेत से बाहर अपनी गर्दन निकाली तो समंदर के तट पर कोहराम मचा था। उसने अपने सहोदरों को चीलों की चोंचों में छटपटाते देखा, केकड़ों की गिरफ्त में जाते देखा। वह समझ गया कि केवल दौड़ना काफी नहीं है। कब दौड़ना है – यह ज्यादा जरूरी है। जब माहौल एकदम शांत हो गया तब उसने अपने शरीर को रेत से बाहर निकाला और धीरे-धीरे समंदर की ओर बढ़ने लगा। समंदर के करीब पहुंचने के बावजूद वह दूर था। कमजोरी के चलते वह हांफने लगा। जब लगा कि दम निकल जाएगा तब वह सुस्ताने बैठ गया। कुछ देर आराम करने के बाद उसने दोबारा डग भरने शुरू किए और अंततः वह समंदर के गीले तट तक पहुंच गया। सूखी रेत पर दौड़ना, फिसलना, लुढ़कना आसान था लेकिन गीली रेत पर चलना खासा मुश्किल होता है। उसने प्रतीक्षा करना बेहतर समझा। वह जहां था वहीं ठहर गया ।
सूरज का लाल गोला समंदर में उतरने लगा। ढलती सांझ के साथ लहरें विकराल होने लगी। ज्वार बढ़ने के साथ लहरों का विस्तार भी बढ़ने लगा और अंततः उसकी प्रतीक्षा सफल हुई। एक लहर आई और उसको बहा कर समंदर में ले गई ।
यह तीन सौ साल पुरानी बात है। समंदर के तट पर जो बूढ़ा कछुआ धूप सेंकता दिखाई दे रहा है यह वही कछुआ है जो उस दिन आखिर में समंदर तक पहुंचा था।