साउथ अफ्रीका ने रचा इतिहास, पहली बार फाइनल में, टूटा अफगानिस्तान का सपना..
देश-विदेश: साउथ अफ्रीका ने इतिहास रच दिया। T20 World Cup 2024 के सेमीफाइनल मुकाबले में अफ्रीका ने अफगानिस्तान को हराकर फाइनल में प्रवेश कर लिया। बता दें कि विश्व कप का पहला सेमीफाइनल मुकाबला साउथ अफ्रीका और अफगानिस्तान के बीच हुआ। जिसमें अफगानिस्तान ने टॉस जीता और पहले बल्लेबाजी करने का फैसला किया। जिसमें अफ्रीका के गेंदबाजों के आगे अफगानिस्तान की टीम टिक नहीं पाई। टीम महज 56 रनों में ऑल आउट हो गई। आपको बता दें कि T20 World Cup 2024 के सेमीफाइनल मुकाबले में पहले बल्लेबाजी करने उतरी राशिद खान की टीम की शुरुआत ही खराब हुई। 30 रनों के स्कोर पर आधी टीम पवेलियन पहुंच गई। टीम ने 30 रनों के अदर अपने छह विकेट खो दिए। साउथ अफ्रीका के गेंदबाज एनरिक नॉर्खिया, कागिसो रबाडा और मार्को यानसन ने अफगानिस्तान के पठानों की कमर तोड़ दी। जहां रहमानुल्लाह गुरबाज, अजमातुल्लाह उमरजई, मोहम्मद नबी, इब्राहिम जादरान, नांगेयालिया खरोटे, गुलबदीन नईब, टीक कर नहीं खेल पाए। 11.5 ओवर में 56 रन बनाकर पूरी टीम सिमट गई। अफ्रीका के लिए मार्को यानसन ने तीन, रबाडा और नॉर्खिया ने दो विकेट चटकाए।
पहली बार फाइनल में साउथ अफ्रीका..
बल्लेबाजी करने आई साउथ अफ्रीका की टीम को पहला और आखिरी झटका क्विंटन डि कॉक के तौर पर लगा। क्विंटन केवल पांच रन बनाकर पवेलियन लौट गए। हालांकि उसके बाद टीम का एक भी विकेट नहीं गिरा। कप्तान मारक्रम ने टीम की कमान संभाली। दूसरी छोर से रिजा हेंड्रिक्स टीम को जीत की तरफ ले गए। जहां मारक्रम ने 23 तो वहीं हेंड्रिक्स 29 रन बनाकर नाबाद रहे। ऐसे में बड़ी ही आसानी से टीम ने 8.5 ओवर में ही एक विकेट गवाकर लक्ष्य हासिल कर लिया। बता दें कि टीम पहली बाद टी20 विश्व कप के फाइनल में पहुंची है।
हमेशा के लिए बंद हुआ दिल्ली स्थित अफगानिस्तान का दूतावास..
देश-विदेश: अफगानिस्तान ने एलान किया है कि उसने नई दिल्ली स्थित अपने दूतावास को स्थायी तौर पर बंद कर दिया है। अफगानिस्तान के डिप्लोमैटिक मिशन बयान जारी कर इसकी जानकारी दी गई है। बयान में कहा गया है कि नई दिल्ली में दूतावास बंद करने का उनका फैसला 23 नवंबर 2023 से प्रभावी हो गया है। अफगानिस्तान की सरकार का कहना है कि उन्हें भारत सरकार की तरफ से लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके चलते यह फैसला किया गया है।
आपको बता दें कि नई दिल्ली में अफगानिस्तान दूतावास का परिचालन 30 नवंबर से बंद है। अफगानिस्तान सरकार ने अपने बयान में कहा है कि उन्हें भारत सरकार से सहयोग नहीं मिल सका, जिसके बाद आठ हफ्ते इंतजार करने के बाद नई दिल्ली स्थ्ति अफगानिस्तान का दूतावास बंद करने का फैसला किया गया है। अफगानिस्तान का कहना है कि विएना कन्वेंशन 1961 के अनुसार भारत सरकार से मांग की गई है कि अफगानिस्तान के दूतावास की संपत्ति, बैंक अकाउंट, वाहनों और अन्य संपत्तियों की कस्टडी उन्हें दी जाए। अफगानिस्तान ने मिशन के बैंक खातों में रखे करीब पांच लाख डॉलर की रकम पर भी दावा किया है।
अफगान सरकार ने जताया भारत का आभार..
अफगानिस्तान सरकार का कहना है कि नीतियों में बड़े बदलावों और हितों का ध्यान रखते हुए भारत में दूतावास को बंद करने का फैसला किया गया है। अफगान सरकार ने दूतावास को समर्थन देने के लिए भारत सरकार के प्रति आभार भी जताया है। अफगानिस्तान ने जारी बयान में कहा है कि बीते दो साल तीन महीने में भारत में अफगानी लोगों की संख्या में काफी कमी आई है और अगस्त 2021 की तुलना में यह आंकड़ा आधा रह गया है और इस दौरान बेहद कम संख्या में नए वीजा जारी किए गए हैं।
भारत में अफगानिस्तान के इंचार्ज एंबेसडर फरीद मामुंदजई थे लेकिन उनकी नियुक्ति अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता में वापसी से पहले हुई थी। मामुंदजई ने आरोप लगाया कि अफगानिस्तान में तालिबान का शासन आने के बाद उन्हें कोई समर्थन या कूटनीतिक मदद नहीं की गई। इसके चलते वह अपना काम नहीं कर पा रहे थे। वहीं आरोप लगा कि मामुंदजई भारत सरकार और तालिबान सरकार के बीच तनाव पैदा करने की कोशिश कर रहे थे। आखिरकार बीती 30 सितंबर को अफगानिस्तान दूतावास का भारत में परिचालन बंद हो गया और दूतावास का स्टाफ अमेरिका या यूरोप के लिए रवाना हो गया।
- डॉ. नीलम महेंद्र
वरिष्ठ पत्रकार
सुरक्षित स्थान की तलाश में अपने ही देश से पलायन करने के लिए एयरपोर्ट के बाहर हज़ारों महिलाएं, बच्चे और बुजुर्गों की भीड़ लगी है। कई दिन और रात से भूखे प्यासे वहीं डटे हैं, इस उम्मीद में कि किसी विमान में सवार हो कर अपना और अपने परिवार का भविष्य सुरक्षित करने में कामयाब हो जाएंगे। बाहर तालिबान है, भीतर नाटो की फौजें। हर बीतती घड़ी के साथ उनकी उम्मीद की डोर टूटती जा रही है। ऐसे में महिलाएं अपने छोटे-छोटे बच्चों की जिंदगी को सुरक्षित करने के लिए उन्हें नाटो फ़ौज के सैनिकों के पास फेंक रही हैं। इस दौरान कई बच्चे कंटीली तारों पर गिरकर घायल हो जाते हैं।
इस प्रकार की खबरें और वीडियो सामने आते हैं, जिसमें अफगानिस्तान में छोटी-छोटी बच्चियों को तालिबान घरों से उठाकर ले जा रहा है।
अमरीकी विमान टेक ऑफ के लिए आगे बढ़ रहा है और लोगों का हुजूम रनवे पर विमान के साथ- साथ दौड़ रहा है। अपने देश को छोड़कर सुरक्षित स्थान पर जाने के लिए कुछ लोग विमान के टायरों के ऊपर बनी जगह पर सवार हो जाते हैं। विमान के ऊंचाई पर पहुंचते ही इनका संतुलन बिगड़ जाता है और आसमान से गिरकर इनकी मौत हो जाती है। इनके शव मकानों की छत पर मिलते हैं।
एक जर्मन पत्रकार की खोज में तालिबान घर-घर की तलाशी ले रहा है, जब वो पत्रकार नहीं मिलता तो उसके एक रिश्तेदार की हत्या कर देता है और दूसरे को घायल कर देता है।
ऐसे न जाने कितने हृदयविदारक दृश्य पिछले कुछ दिनों में दुनिया के सामने आए। क्या एक ऐसा समाज जो स्वयं को विकसित और सभ्य कहता हो उसमें ऐसी तस्वीरें स्वीकार्य हैं? क्या ऐसी तस्वीरें महिला और बाल कल्याण से लेकर मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए बने तथाकथित अंतरराष्ट्रीय संगठनों के औचित्य पर प्रश्न नहीं लगातीं?
क्या ऐसी तस्वीरें अमरीका और यूके सहित 30 यूरोपीय देशों के नाटो जैसे तथाकथित वैश्विक सैन्य संगठन की शक्ति का मजाक नहीं उड़ातीं?
इसे क्या कहा जाए कि विश्व की महाशक्ति अमेरिका की सेनाएं 20 साल तक अफगानिस्तान में रहती हैं। अफगान सिक्युरिटी फोर्सेज पर तकरीबन 83 बिलियन डॉलर खर्च करती हैं। उन्हें ट्रेनिंग ही नहीं हथियार भी देती हैं और अंत में साढ़े तीन हज़ार सैनिकों वाली अफगान फौज 80 हज़ार तालिबान लड़ाकों के सामने बिना लड़े आत्मसमर्पण कर देती है। वहां के राष्ट्रपति एक दिन पहले तक अपने देश के नागरिकों को भरोसा दिलाते हैं कि वो देश तालिबान के कब्जे में नहीं जाने देंगे और रात को देश छोड़कर भाग जाते हैं।
तालिबान सिर्फ अफगानिस्तान की सत्ता पर ही काबिज़ नहीं होता, बल्कि आधुनिक अमरीकी हथियार, गोला बारूद, हेलीकॉप्टर और लड़ाकू विमानों से लेकर दूसरे सैन्य उपकरण भी तालिबान के कब्जे में आ जाते हैं।
अमरीकी सेनाओं के पूर्ण रूप से अफगानिस्तान छोड़ने से पहले ही यह सब हो जाता है वो भी बिना किसी संघर्ष के। ऐसा नहीं है कि सत्ता संघर्ष की ऐसी घटना पहली बार हुई हो। विश्व का इतिहास सत्ता पलट की घटनाओं से भरा पड़ा है। लेकिन मानव सभ्यता के इतने विकास के बाद भी इस प्रकार की घटनाओं का होना एक बार फिर साबित करता है कि राजनीति कितनी निर्मम और क्रूर होती है।
अफगानिस्तान के भारत का पड़ोसी देश होने से भारत पर भी निश्चित ही इन घटनाओं का प्रभाव होगा। दरअसल, भारत ने भी दोनों देशों के सम्बंध बेहतर करने के उद्देश्य से अफगानिस्तान में काफी निवेश किया है। अनेक प्रोजेक्ट भारत के सहयोग से अफगानिस्तान में चल रहे थे। सड़कों के निर्माण से लेकर डैम, स्कूल, लाइब्रेरी यहां तक कि वहां की संसद बनाने में भी भारत का योगदान है। 2015 में ही भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद भवन का उद्घाटन किया था, जिसके निर्माण में अनुमानतः 90 मिलियन डॉलर का खर्च आया था।
लेकिन आज अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान काबिज़ है जो एक ऐसा आतंकवादी संगठन है, जिसे पाकिस्तान और चीन का समर्थन हासिल है।
भारत इस चुनौती से निपटने में सैन्य से लेकर कूटनीतिक तौर पर सक्षम है। पिछले कुछ वर्षों में वो अपनी सैन्य शक्ति और कूटनीति का प्रदर्शन सर्जिकल स्ट्राइक और आतंकवाद सहित अनेक अवसरों कर चुका है। लेकिन असली चुनौती तो संयुक्त राष्ट्र संघ, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद, यूनिसेफ, जैसे वैश्विक संगठनों के सामने उत्पन्न हो गई है जो मानवता की रक्षा करने के नाम पर बनाई गई थीं। लेकिन अफगानिस्तान की घटनाओं ने इनके औचित्य पर ही प्रश्न खड़े कर दिए हैं।
दरअसल, राजनीति अपनी जगह है और मानवता की रक्षा अपनी जगह। क्या यह इतना सरल है कि स्वयं को विश्व की महाशक्ति कहने वाले अमरीका की फौजों के रहते हुए पूरा देश ही उस आतंकवादी संगठन के कब्जे में चला जाता है, जिस देश में आतंकवादी संगठन को खत्म करने के लिए 20 सालों से काम कर रहा हो? अगर हां, तो यह अमेरिका के लिए चेतावनी है और अगर नहीं तो यह राजनीति का सबसे कुत्सित रूप है। एक तरफ़ विश्व की महाशक्तियां अफगानिस्तान में अपने स्वार्थ की राजनीति और कूटनीति कर रही हैं तो दूसरी तरफ ये संगठन जो ऐसी विकट परिस्थितियों में मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं की रक्षा करने के उद्देश्य से अस्तित्व में आईं थीं वो अफगानिस्तान के इन मौजूदा हालात में निरर्थक प्रतीत हो रही हैं।