उत्तराखंड भी कारोबार में सुगमता (ईज ऑफ डूइंग बिजनेस) सुधारों को सफलतापूर्वक पूरा करने वाले राज्यों की श्रेणी में आ गया है। इस सुधार प्रक्रिया को पूरा करने के बाद राज्य को खुले बाजार से 702 करोड़ रुपये जुटाने की अनुमति मिल गई है। उत्तराखंड के साथ ही उत्तर प्रदेश व गुजरात द्वारा भी ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में सुधार के बाद इस श्रेणी में आने वाले राज्यों की संख्या बढ़कर 15 हो गई है।
केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने बुधवार को यह जानकारी दी है। मंत्रालय के अनुसार इससे पहले, आंध्र प्रदेश, असम, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु और तेलंगाना इस श्रेणी में शामिल हो चुके हैं। ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में सहायता प्रदान करने वाले सुधारों को पूरा करने पर इन 15 राज्यों को 38,088 करोड़ रुपये का अतिरिक्त ऋण जुटाने की अनुमति दी गई है।
ईज ऑफ डूइंग बिजनेस देश में निवेश के अनुकूल कारोबार के माहौल का महत्वपूर्ण सूचक है। ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में सुधार राज्य अर्थव्यवस्था की भविष्य की प्रगति तेज करने में समर्थ बनाएंगे। इसलिए भारत सरकार ने पिछले वर्ष मई में यह निर्णय लिया कि ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में सुधार करने वाले राज्यों को अतरिक्त ऋण जुटाने की सुविधा प्रदान की जाएगी। इसके लिए केंद्र सरकार द्वारा कुछ मानक तय किये गए हैं।
प्रहलाद सबनानी
आर्थिक मामलों के जानकार और बैंकिंग सेवा के पूर्व अधिकारी
इस वर्ष बजट में राजकोषीय नीति को विस्तारवादी बनाया गया है ताकि आर्थिक विकास को गति दी जा सके। केंद्र सरकार द्वारा बजट में 5.54 लाख करोड़ रुपए के पूंजीगत खर्चों का प्रावधान किया गया है। जबकि वित्तीय वर्ष 2020-21 में 4.12 लाख करोड़ रुपए के पूंजीगत ख़र्चों का प्रावधान किया गया था। इस प्रकार वित्तीय वर्ष 2021-22 में पूंजीगत ख़र्चों में 34.46 प्रतिशत की वृद्धि दृष्टीगोचर होगी। केंद्र सरकार विभिन्न मदों पर कुल मिलाकर 30.42 लाख करोड़ रुपए का भारी भरकम खर्च करने जा रही है। इसके लिए केंद्र सरकार द्वारा बाजार से 12 लाख करोड़ रुपए का सकल उधार लिया जाएगा।
चूंकि निजी क्षेत्र अभी अर्थव्यवस्था में निवेश को बढ़ाने की स्थिति में नहीं है। अतः अर्थव्यवस्था को तेज गति से चलायमान रखने के उद्देश्य से केंद्र सरकार अपने पूंजीगत खर्चों में भारी भरकम वृद्धि करते हुए अपने निवेश को बढ़ा रही है। यानी केंद्र सरकार निवेश आधारित विकास करना चाह रही है। इस सब के लिए तरलता की स्थिति को सुदृढ़ एवं ब्याज की दरों को निचले स्तर पर बनाए रखना बहुत जरुरी है और यह कार्य भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा मौद्रिक नीति के माध्यम से आसानी किया जा सकता है। आरबीआई ने विगत 5 फरवरी को घोषित की गई मौद्रिक नीति के माध्यम से इसका प्रयास किया भी है।
आरबीआई ने मौद्रिक नीति में लगातार चौथी बार नीतिगत दरों में कोई बदलाव नहीं किया है। आरबीआई ने अपने रुख को नरम रखा है। दिसंबर 2020 में भी आरबीआई ने नीतिगत दरों को यथावत रखा था। मार्च और मई 2020 में रेपो रेट में लगातार दो बार कटौती की गई थी। आरबीआई के इस एलान के बाद रेपो रेट 4 फीसदी और रिवर्स रेपो रेट 3.35 फीसदी पर बनी रहेगी। रेपो रेट वह दर है, जिस पर आरबीआई अन्य बैंकों को ऋण प्रदान करता है। आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास ने मौद्रिक नीति का एलान करते हुए कहा है कि मौद्रिक नीति समिति ने सर्वसम्मति से रेपो रेट को बरकरार रखने का फैसला किया है।
साथ ही आरबीआई के गवर्नर ने वर्तमान वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर 10.5 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया है। मौद्रिक नीति में यह भी बताया गया है कि महंगाई की दर में कमी आई है और यह अब 6 प्रतिशत के सह्यता स्तर (टॉलरेंस लेवल) से नीचे आई है। यह भी कहा गया है कि आज समय की मांग है कि अभी विकास दर को प्रोत्साहित किया जाय। मौद्रिक नीति में नरम रूख अपनाने से यह संकेत मिलते हैं कि आने वाले समय में ब्याज दरों में कमी की जा सकती है। एक प्रकार से मौद्रिक नीति अब देश की राजकोषीय नीति का सहयोग करती दिख रही है। मौद्रिक नीति में नरम रूख अपनाना एक अच्छी नीति है क्योंकि कम ब्याज दरों पर ऋण उपलब्ध होने से ऋण की मांग बढ़ती है।
कोरोना महामारी के बाद से देश की अर्थव्यवस्था कठिनाई के दौर से गुजर रही है। केंद्र सरकार व आरबीआई तालमेल से कार्य कर रहे हैं, यह देश के हित में है। सामान्यतः खुदरा महंगाई दर के 6 प्रतिशत (टॉलरन्स रेट) से अधिक होते ही आरबीआई रेपो रेट में वृद्धि के बारे में सोचना शुरू कर देता है। परंतु वर्तमान की आवश्यकताओं को देखते हुए मुद्रा स्फीति के लक्ष्य में नरमी बनाए रखना जरुरी हो गया है क्योंकि देश की विकास दर में तेजी लाना अभी अधिक आवश्यक है। मुद्रा स्फीति के लक्ष्य के सम्बंध में यह नरमी आगे आने वाले समय में भी बनाए रखी जानी चाहिए। वर्तमान परिस्थितियों में विकास पर फ़ोकस करना ज़रूरी है। वैसे भी अभी खुदरा महंगाई दर 5.2 प्रतिशत ही रहने वाली है, जो सह्यता स्तर से नीचे है।
केंद्र सरकार की इस वित्तीय वर्ष में भारी मात्रा में बाजार से कर्ज लेने की योजना है ताकि बजट में किए गए खर्चों संबंधी वायदों को पूरा किया जा सके। इसलिए भी आरबीआई के लिए यह आवश्यक है कि मौद्रिक नीति में नरम रूख अपनाए और ब्याज दरों को भी कम करने का प्रयास करे। अन्यथा की स्थिति में बजट ही फैल हो सकता है। रेपो रेट को बढ़ाना मतलब केंद्र सरकार द्वारा बाज़ार से उधार ली जाने वाली राशि पर अधिक ब्याज का भुगतान करना। वैसे वर्तमान में तो भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ी मात्रा में तरलता उपलब्ध है।
अब तो कोरोना की बुरी आशकाएं भी धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही हैं। अतः व्यापारियों एवं उद्योगपतियों का विश्वास भी वापिस आ रहा है। सरकार ने बजट में खर्चे को बहुत बड़ा पुश दिया है। सरकार निवेश आधारित विकास करना चाहती है और इस खर्चे व निवेश का क्रियान्वयन केंद्र सरकार खुद लीड कर रही है। वितीय सिस्टम में न तो पैसे की कमी है और न ब्याज की दरें बढ़ी हैं। अतः इन अनुकूल परिस्थितियों का फ़ायदा उठाने का प्रयास केंद्र सरकार भी कर रही है जिसका पूरा पूरा फायदा देश की अर्थव्यवस्था को होने जा रहा है।
सामान्यतः देश में यदि मुद्रा स्फीति सब्ज़ियों, फलों, आयातित तेल आदि के दामों में बढ़ोतरी के कारण बढ़ती है तो रेपो रेट बढ़ाने का कोई फायदा भी नहीं होता है क्योंकि रेपो रेट बढ़ने का इन कारणों से बढ़ी कीमतों को कम करने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अतः यदि देश में मुद्रा स्फीति उक्त कारणों से बढ़ रही है तो रेपो रेट को बढ़ाने की कोई जरुरत भी नहीं हैं। साथ ही विनिर्माण क्षेत्र में स्थापित क्षमता का 60 प्रतिशत से कुछ ही अधिक उपयोग हो पा रहा है जब तक यह 75-80 प्रतिशत तक नहीं पहुंचता है तब तक निजी क्षेत्र अपना निवेश नहीं बढ़ाएगा और इस प्रकार मुद्रा स्फीति में वृद्धि की सम्भावना भी कम ही है। मुद्रा स्फीति पर ज्यादा सख्त होने से देश की विकास दर प्रभावित होगी, जो कि देश में अभी के लिए प्राथमिकता है। हालांकि अभी हाल ही में विनिर्माण के क्षेत्र में स्थापित क्षमता के उपयोग में सुधार हुआ है और अर्थव्यवस्था में रिकवरी और तेज हुई है।
बजट में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग को भी मदद देने की बात की गई है क्योंकि यही क्षेत्र कोरोना महामारी के दौरान सबसे अधिक प्रभावित हुआ था। इन क्षेत्रों में काम करने वाले अधिकतम लोग बेरोजगार हो गए थे। अतः इस क्षेत्र को शून्य प्रतिशत की ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराए जाने की बात की जा रही है। साथ ही इस क्षेत्र को तरलता से सम्बंधित किसी भी प्रकार की समस्या न हो इस बात का ध्यान रखा जाना जरुरी है। यह क्षेत्र ही देश की अर्थव्यवस्था को बल देगा। इसलिए भी मौद्रिक नीति में इन बातों का ध्यान रखा गया है कि इस क्षेत्र को ऋण आसानी से उपलब्ध कराया जा सके एवं तरलता बनाए रखी जा सके।
देश की अर्थव्यवस्था में संरचात्मक एवं नीतिगत कई प्रकार के बदलाव किए गए हैं। इन बदलावों का असर अब भारत में दिखना शुरू हुआ है। अब तो कई अंतरराष्ट्रीय संस्थान जैसे, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, आदि भी कहने लगे हैं कि आगे आने वाले समय में पूरे विश्व में केवल भारत ही दहाई के आंकड़े की विकास दर हासिल कर पाएगा और भारतीय अर्थव्यवस्था अब तेजी से उसी ओर बढ़ रही है। रिजर्व बैंक ने और केंद्र सरकार ने बजट में कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था वर्तमान वित्तीय वर्ष में 10 से 10.5 प्रतिशत की विकास दर हासिल कर लेगी।
वर्तमान समय में विश्व का भारतीय अर्थव्यवस्था पर भरोसा बढ़ा है। इसलिए देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी लगातार बढ़ रहा है। अब आवश्यकता है हमें अपने आप पर विश्वास बढ़ाने की। अब रिज़र्व बैंक को वास्तविक एक्सचेंज दर पर भी नजर बनाए रखनी होगी। यदि यह दर बढ़ती है तो देश के विकास की गति पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। बाहरी पूंजी का देश में स्वागत किया जाना चाहिए, परंतु वास्तविक एक्सचेंज दर पर नियंत्रण बना रहे और इसमें वृद्धि न हो, इस बात का ध्यान रखना भी आवश्यक होगा।
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का कहना है कि इस बार का बजट भारतीय अर्थव्यवस्था को एक नई दिशा देगा। यह सब अचानक नहीं हुआ है बल्कि यह सोच भारतीय मानस में पिछले तीस वर्षों से कहीं न कहीं काम कर रही थी। सीतारमण ने उद्योग संगठन फिक्की (Federation of Indian Chambers of Commerce & Industry) की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति को वीडियो कान्फ्रेंसिंग के माध्यम से संबोधित करते हुए ये बात कही।
उन्होंने कहा कि खर्च के लिए बहुत ज्यादा पैसों की आवश्यकता होने के बावजूद बजट में इस तरह से वित्तीय संसाधन जुटाने के प्रयास किए गए हैं जो करों पर आधारित नहीं है। उन्होंने कहा “यह एक ऐसा बजट है जिसमें बिना करों के वित्तीय संसाधन जुटाने की कोशिश की गई है। बजट में दिशात्मक परिवर्तन अपने आप में इतना विशिष्ट है जो ऐसी उद्यमिता को प्रोत्साहित करेगा जिसका प्रदर्शन सही अवसर पर मिलने पर देशवासी अक्सर करते हैं”।
वित्त मंत्री ने कहा, “मैं यह जोकर देकर कहना चाहती हूं कि हमने समाज के किसी भी वर्ग पर एक रुपए का भी अतिरिक्त बोझ नहीं डाला”। उन्होंने कहा ” हमें इस बात का भरोसा है कि इस वर्ष से राजस्व संग्रह में सुधार होगा और सरकार केवल अपनी परिसंपत्तियों में विनिवेश के माध्यम से ही नहीं बल्कि कई अन्य तरीकों से भी गैर कर राजस्व जुटाने का प्रयास करेगी”।
सीतारमण ने उद्योग जगत से अनुरोध किया कि वह भी निवेश करने के लिए आगे आएं। उन्होंने कहा “मुझे उम्मीद है कि उद्योग जगत उस भावना को समझेगा जिसके साथ बजट लाया गया है। इसलिए आप सभी को इस काम में हाथ बंटाने के लिए आगे आना चाहिए”। उन्होंने कहा कि अपने सभी कर्ज और देनदारियों से मुक्त हो चुके उद्योगों को अब निवेश करने और अपना कारोबार बढ़ाने की स्थिति में आ जाना चाहिंए और उनसे ऐसा संकेत मिलना चाहिए कि जरुरी प्रौद्योगिकी हासिल करने के लिए आगे वे किसी भी तरह के संयुक्त उपक्रम लगा सकते हैं।
वित्त मंत्री ने कहा कि अर्थव्यवस्था को तत्काल प्रोत्साहन देने के लिए सरकार सार्वजनिक बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य और कृषि पर ज्यादा खर्च करेगी। उन्होंने कहा कि “सरकार भले ही पैसों से भरा बैग ले आए तो भी वह विकसित होते आकांक्षी भारत की सारी जरुरतें अकेले पूरा नहीं कर सकती”।
सीतारमण ने कहा कि सरकार ने इस बार बजट में एक विश्वसनीय और पारदर्शी लेखा विवरण दिया है। इसमें न तो कुछ छुपाया गया है और न ही किसी तरह की लीपा-पोती की गई है। यह सरकारी वित्त के साथ ही घोषित आर्थिक सुधारों और प्रोत्साहन पैकेजों के बारे में जानकारी देने का एक ईमानदार प्रयास है। इसने यह साफ कर दिया है कि सरकार किसी तरह की आशंका से घिरी नहीं बैठी है, बल्कि भारतीय उद्योगों और व्यापार जगत पर पूरा भरोसा करते हुए आगे बढ़ रही है।
वित्त सचिव डा. अजय भूषण पांडे, आर्थिक मामलों के सचिव तरुण बजाज तथा निवेश और लोक संपत्ति प्रबंधन विभाग के सचिव तुहिन कांत पांडे सहित कई लोगों ने भी इस अवसर पर फिक्की के सदस्यों को संबोधित किया।
फिक्की के अध्यक्ष उदय शंकर ने कहा कि इस बजट का सबसे संतोषजनक पहलू यह है कि इसमें करों को लेकर कोई बहुत अधिक बदलाव नहीं किए गए। यह नीति को लेकर निश्चितंता और निवेशकों में भरोसा कायम करती है। बजट में नियमों के आसान अनुपालन और फेसलेस टैक्स असेसमेंट की व्यवस्था के माध्यम से देश में कारोबारी सुगमता की दिशा में सरकारी प्रयासों को जारी रखा गया है। इससे करदाताओं को बड़ी राहत मिली है। इससे दीर्घ अवधि में देश में कर आधार का दायरा बढ़ाने में भी मदद मिलेगी।
कार्यक्रम के समापन पर फिक्की के वरिष्ठ उपाध्यक्ष संजीव मेहता ने धन्यवाद ज्ञापन दिया।
- प्रहलाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक, भारतीय स्टेट बैंक
पूरे विश्व में फैली कोरोना महामारी के चलते सभी देशों में तुलनात्मक रूप से राजस्व संग्रहण में बहुत कमी आई है। भारत में भी यही स्थिति देखने में आई है और करों की वसूली एवं अन्य स्त्रोतों से आय वित्तीय वर्ष 2020-21 में वर्ष 2019-20 की तुलना में बहुत कम रही है। हालांकि कोरोना महामारी के बाद, अब जब आर्थिक विकास दर में पुनः वृद्धि दृष्टिगोचर है तब करों की वसूली में भी सुधार देखने में आ रहा है। माह दिसम्बर 2020 में जीएसटी संग्रहण रिकार्ड स्तर पर, रुपए 1.15 लाख करोड़ रुपए का हुआ है। माह अक्टोबर 2020 एवं नवम्बर 2020 में भी यह एक लाख करोड़ रुपए से अधिक का रहा था।
कोरोना महामारी के चलते राजस्व के संग्रहण में आई कमी के चलते केंद्र सरकार ने आवश्यक ख़र्चों विशेष रूप से ग़रीब वर्ग एवं किसानों को सहायता पहुंचाने के लिए होने वाले ख़र्च में कोई कमी नहीं आने दी है। बल्कि, पूंजीगत ख़र्चों को तो पिछले वर्ष की तुलना में बढ़ाया ही है ताकि देश की अर्थव्यवस्था को बल मिल सके एवं रोज़गार के अधिक अवसर निर्मित हो सकें, जिसकी कि आज देश में बहुत अधिक आवश्यकता है। वित्तीय वर्ष 2020-21 में माह दिसम्बर 2020 को समाप्त अवधि तक 499 डीबीटी योजनाओं पर 2.21 लाख करोड़ रुपए ख़र्च किए गए हैं। विपरीत परिस्थितियों में आर्थिक विकास को गति देने के लिए सरकारी ख़र्चों को बढ़ाने की बहुत ज़रूरत है।
माह अप्रेल 2020 से नवम्बर 2020 को समाप्त अवधि में केंद्र सरकार का कुल व्यय 19,06,358 करोड़ रुपए रहा है जबकि वित्तीय वर्ष 2019-20 की इसी अवधि के दौरान यह 18,20,057 करोड़ रुपए रहा था। इसी प्रकार पूंजीगत ख़र्चे भी वित्तीय वर्ष 2020-21 में नवम्बर 2020 तक 2,41,158 करोड़ रुपए के रहे हैं जो वित्तीय वर्ष 2019-20 में इसी अवधि का दौरान 2,13,842 करोड़ रुपए के रहे थे। वित्तीय वर्ष 2020-21 में केंद्र सरकार के कुल राजस्व की वसूली 830,851 करोड़ रुपए की रही है जबकि कुल ख़र्चे 19,06,358 करोड़ रुपए के किए गए हैं। इस प्रकार कम राजस्व वसूली का ख़र्चों पर किसी भी तरह से असर आने नहीं दिया गया है। ऐसा कोरोना महामारी जैसी विशेष विषम परिस्थितियों के चलते ही किया गया है ताकि देश की जनता को किसी भी प्रकार की परेशानी न हो सके एवं देश के विकास को गति मिल सके। विशेष रूप से देश में जब निजी निवेश भी गति नहीं पकड़ पा रहा हो, तो केंद्र सरकार को तो आगे आना ही होगा।
वैसे देश में अब परिस्थितियां तेज़ी से बदल रही हैं और आर्थिक विकास दर तेज़ी से वापिस पटरी पर आती दिख रही है। जैसे जैसे आर्थिक विकास दर की रफ़्तार बढ़ेगी वैसे वैसे केंद्र सरकार के राजस्व में भी तेज़ गति से वृद्धि होगी। साथ ही, कोरोना महामारी जैसी विषम परिस्थितियों के कारण विनिवेश के लक्ष्य भी हासिल नहीं किये जा सके और अब जब शेयर बाज़ार में तेज़ी दिखाई पड़ रही है और शेयर बाज़ार नित नई रिकार्ड ऊंचाईयों को छू रहा है। ऐसे में, केंद्र सरकार के लिए विनिवेश के लक्ष्य हासिल करना भी थोड़ा आसान होता दिखाई दे रहा है।
कुछ क्षेत्रों में विकास दर को हासिल करने में अभी और समय लगेगा जैसे टुरिज़म, एवीएशन एवं होटेल उद्योग आदि क्योंकि इन क्षेत्रों को अभी तक पूरे तौर पर खोला भी नहीं गया है। अतः केंद्र सरकार को इन क्षेत्रों सहित अन्य कई क्षेत्रों में प्रोत्साहन/सहायता कार्यक्रम चालू रखने होंगे, केंद्र सरकार ऐसा कर भी रही है।
कोरोना महामारी के कारण देश में बरोज़गारी की दर में भी इज़ाफ़ा हुआ है। इस मुद्दे को गम्भीरता एवं शीघ्रता से सुलझाने का प्रयास केंद्र सरकार कर रही है। विशेष रूप से हॉस्पिटैलिटी एवं ट्रैवल के क्षेत्रों को धीरे धीरे खोला जा रहा है ताकि इन क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर एक बार पुनः कोरोना महामारी के काल के पहिले के स्तर को प्राप्त कर सकें। अभी तक ये क्षेत्र 50 प्रतिशत से कुछ अधिक खुल पाए हैं। ये थोड़े जोखिम भरे क्षेत्र हैं क्योंकि इन क्षेत्रों को पूरे तौर पर खोलने से कोरोना महामारी के वापिस फैलने का ख़तरा हो सकता है।
हालांकि केंद्रीय बजट में बजटीय घाटे की एक सीमा निर्धारित की गई है जिसका पालन केंद्र सरकार को करना होता है परंतु कोरोना महामारी जैसी विशेष परिस्थितियों के चलते इस सीमा का पालन किया जाना अब बहुत मुश्किल हीं नहीं बल्कि असम्भव भी होगा। अतः वित्तीय वर्ष 2021-22 के केंद्रीय बजट के लिए इस सीमा के पालन में छूट लेते हुए इसे बढ़ाया जाना चाहिए। बजटीय घाटे में यदि वृद्धि भी होती है तो देश की अर्थव्यवस्था पर कोई विपरीत प्रभाव पड़ने वाला नहीं हैं क्योंकि एक तो यह ख़र्चा पूंजीगत मदों पर अधिक किया जा रहा है, दूसरे अब देश में ब्याज की दरें काफ़ी कम हो गई हैं अतः केंद्र सरकार को बाज़ार से लिए जा रहे ऋणों पर कम ब्याज देना पड़ रहा है। साथ ही, यदि यह राशि पूंजीगत मदों पर ख़र्च की जा रही है तो इससे एक तो संपतियों का निर्माण होगा, दूसरे रोज़गार के नए अवसर निर्मित होंगे, तीसरे उत्पादों की मांग बढ़ेगी और इस तरह आर्थिक विकास का पहिया तेज़ी से घूमने लगेगा और केंद्र सरकार के राजस्व में वृद्धि करने में भी सहायक सिद्ध होगा। हां, निर्माण के क्षेत्र में, कृषि के क्षेत्र में एवं अधोसंरचना को विकसित करने के लिए, पूँजीगत ख़र्चे अधिक मात्रा में किए जाने चाहिए क्योंकि इन क्षेत्रों में तुलनात्मक रूप से रोज़गार के अधिक अवसर निर्मित होते हैं।
केंद्र सरकार ने पिछले 6 महीनों के दौरान कई क़दम उठाए हैं और उसका असर नवम्बर एवं दिसम्बर माह के राजस्व संग्रहण में दिखने भी लगा है। कोरोना महामारी के दौरान, दरअसल पूंजीगत ख़र्चे निजी क्षेत्र एवं सरकारी क्षेत्र, दोनों ही क्षेत्रों में कम हो गए थे। परंतु अब जब केंद्र सरकार ने अपने ख़र्चों में बढ़ौतरी करनी शुरू कर दी है तो आशा की जा रही है कि निजी क्षेत्र भी सरकार के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलेगा एवं अपने पूंजीगत ख़र्चों को बढ़ाएगा। विदेशी निवेशक भी अब आगे आ रहे हैं एवं उन्होंने नैशनल हाईवेज़ के प्रोजेक्ट्स में 10,000 करोड़ रुपए का निवेश किया है। इस तरह के प्रोजेक्ट की आस्तियों का मुद्रीकरण (Monetise) किया जा रहा है ताकि निवेश बढ़ाया जा सके। पूंजीगत ख़र्चों को हर हालात में बढ़ाया जा रहा है। एयरपोर्ट्स का निजीकरण किया जा रहा है इससे भी राजस्व की प्राप्ति केंद्र सरकार को होगी।
केंद्र सरकार ने स्ट्रीटीजिक उद्योग नीति की घोषणा की है। इससे कई क्षेत्रों का निजीकरण करने में आसानी होगी। क्षेत्र निर्धारित कर लिए गए हैं। यह एक बड़ा क़दम है, जो केंद्र सरकार द्वारा उठाया जा रहा है। अपने राजस्व में वृद्धि करने के लिए इसी प्रकार के कई क्रांतिकारी क़दम अब राज्य सरकारों को भी उठाने होंगे। देश के आर्थिक विकास को गति देने के उद्देश्य केंद्र एवं राज्य सरकारों को अब मिलकर काम करना आवश्यक हो गया है।
- डॉ.नीलम महेंद्र
वरिष्ठ स्तंभकार
धर्म अथवा पंथ जब तक मानव के व्यक्तिगत जीवन का हिस्सा बनने तक सीमित रहे, वो उसकी आध्यात्मिक उन्नति का माध्यम बन कर उसमें एक सकारात्मक शक्ति का संचार करता है। लेकिन जब वो मानव के व्यक्तिगत जीवन के दायरे से बाहर निकल कर समाज के सामूहिक आचरण का माध्यम बन जाता है तो वो समाज में एक सामूहिक शक्ति का संचार करता है। लेकिन यह कहना कठिन होता है कि समाज की यह सामूहिक शक्ति उस समाज को सकारात्मकता की ओर ले जाएगी या फिर नकारात्मकता की ओर। शायद इसीलिए कार्ल मार्क्स ने धर्म को जनता की अफीम कहा था।
दरसअल, पिछले कुछ समय से मजहबी मान्यताओं के आधार पर विभिन्न उत्पादों का हलाल सर्टिफिकेशन राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा में है। हाल ही में योरोपीय महाद्वीप के देश बेल्जियम में हलाल मीट और कोशर मीट पर एक अदालती फैसला आया है। पशु अधिकारों को ध्यान में रखते हुए योरोपीय संघ की अदालत ने बिना बेहोश किए जानवरों को मारे जाने पर लगी रोक को बरकरार रखा है। इसका मतलब यह है कि बेल्जियम में किसी भी जानवर को मारने से पहले उसे बेहोश करना होगा ताकि उसे कष्ट ना हो। योरोपीय संघ की अदालत के इस फैसले ने योरोपीय संघ के अन्य देशों में भी इस प्रकार के कानून बनने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। मजहबी स्वतंत्रता के नाम पर बेल्जियम के मुसलमान और यहूदी संगठन इस कानून का विरोध कर रहे हैं।
भारत की बात करें तो यह चर्चा में इसलिए है कि अप्रैल 2020 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी जिसमें कोविड महामारी के मद्देनजर हलाल मीट पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी जिसे कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि अदालत लोगों की भोजन करने की आदतों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। इसी से संबंधित ताजा मामला दक्षिण दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन के अंतर्गत आने वाले होटलों के लिए लागू किए गए एक नियम का है। इसमें दिल्ली के ऐसे होटल या मीट की दुकान जो दक्षिण दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन (SDMC) के अंतर्गत आते हैं उन्हें अब हलाल या झटका का बोर्ड दुकान के बाहर लगाना अनिवार्य होगा। दरसअल SDMC की सिविक बॉडी की स्टैंडिंग कमेटी ने एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें लिखा है कि हिन्दू और सिख के लिए हलाल मीट खाना वर्जित है। इससे पहले क्रिसमस के दौरान केरल के ईसाइयों ने भी हलाल मांस के विरोध में प्रदर्शन किया था। इस मामले में क्रिश्चियन असोसिएशन ऑफ चर्च के ऑक्सीलरी फ़ॉर सोशल एक्शन ने ईसाइयों से एक अपील भी की थी जिसमें हलाल मांस को उनके धार्मिक लोकाचार के खिलाफ होने के कारण इन्हें खाद्य पदार्थों के रूप में खरीदने से मना किया गया था।
मजहब के नाम पर जिस हलाल पर विश्व भर में हायतौबा मची हुई है पहले थोड़ा उसे समझ लेते हैं। हलाल दरसअल एक अरबी शब्द है जिसका उपयोग क़ुरान में भोजन के रूप में स्वीकार करने योग्य वस्तुओं के लिए किया गया है। इस्लाम में आहार संबंधी कुछ नियम बताए गए हैं जिन्हें हलाल कहा जाता है। लेकिन इसका संबंध मुख्य रूप से मांसाहार से है। जिस पशु को भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है उसके वध की प्रक्रिया विशेष रूप से बताई गई है। इसी के चलते मुस्लिम देशों में सरकारें ही हलाल का सर्टिफिकेट देती हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जो मीट वहां परोसा जा रहा है वो उनकी मजहबी मान्यताओं के अनुरूप है।
हमारे देश में भी भारतीय रेल और विमानन सेवाओँ जैसे प्रतिष्ठानों से लेकर फाइव स्टार होटल तक हलाल सर्टिफिकेट हासिल करते हैं जो यह सुनिश्चित करता है कि जो मांस परोसा जा रहा है वो हलाल है। मैकडोनाल्ड, डोमिनोज़, जोमाटो जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां तक इसी सर्टिफिकेट के साथ काम करती हैं। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे देश में यह सर्टिफिकेट सरकार द्वारा नहीं दिया जाता। दरसअल भारत में अलग अलग वस्तुओं के लिए अलग अलग सर्टिफिकेट का प्रावधान है जो उनकी गुणवत्ता सुनिश्चित करते हैं। जैसे औद्योगिक वस्तुओं के लिए ISI मार्क, कृषि उत्पादों के लिए एगमार्क, प्रॉसेस्ड फल उत्पाद जैसे जैम अचार के लिए एफपीओ, सोने के लिए हॉलमार्क, आदि। लेकिन हलाल का सर्टिफिकेट भारत सरकार नहीं देती है। भारत में यह सर्टिफिकेट कुछ प्राइवेट संस्थान जैसे हलाल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, हलाल सर्टिफिकेशन सर्विसेज इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, जमायत उलमा ए हिन्द हलाल ट्रस्ट आदि।
अभी तक देश से निर्यात होने वाले डिब्बाबंद मांस के लिए वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के तहत आने वाले खाद्य उत्पादन निर्यात विकास प्राधिकरण को हलाल प्रमाणपत्र देना पड़ता था क्योंकि दुनिया के अधिकांश मुस्लिम देश हलाल मांसाहार ही आयात करते हैं। लेकिन यह बात जितनी साधारण दिखाई दे रहे है उससे कहीं अधिक पेचीदा है। क्योंकि तथ्य यह बताते हैं कि जो बात मजहबी मान्यताओं के अनुसार पशु वध के तरीके (हलाल) से शुरू हुई थी अब वो दवाईयों से लेकर सौंदर्य उत्पाद जैसे लिपस्टिक और शैम्पू, अस्पतालों से लेकर फाइव स्टार होटल, रियल एस्टेट से लेकर हलाल टूरिज्म और तो और आटा, मैदा, बेसन जैसे शाकाहारी उत्पादों तक के हलाल सर्टिफिकेशन पर पहुच गई है। आयुर्वेदिक औषधियों के लिए भी हलाल सर्टिफिकेट! ऐसा क्यों है? क्योंकि जो भी कंपनी अपना सामान मुस्लिम देशों को निर्यात करती हैं उन्हें इन देशों को यह सर्टिफिकेट दिखाना आवश्यक होता है। अगर हलाल फूड मार्किट के आंकड़ों की बात करें तो यह वैश्विक स्तर पर 19% की है जिसकी कीमत लगभग 2.5 ट्रिलियन $ की बैठती है। आज मुस्लिम देशों में हलाल सर्टिफिकेट उनकी जीवनशैली से जुड़ गया है। वे उस उत्पाद को नहीं खरीदते जिस पर हलाल सर्टिफिकेट नहीं हो। हलाल सर्टिफिकेट वाले अस्पताल में इलाज, हलाल सर्टिफिकेट वाले कॉम्प्लेक्स में फ्लैट औऱ हलाल टूरिज्म पैकेज देने वाली एजेंसी से यात्रा। यहां तक कि हलाल की मिंगल जैसी डेटिंग वेबसाइट।
अब प्रश्न उठता है कि उपर्युक्त तथ्यों के क्या मायने हैं। दरसअल जो बात एक सर्टिफिकेट से शुरू होती है वो बहुत दूर तक जाती है। क्योंकि जब हलाल मांस की बात आती है तो स्वाभाविक रूप से उसे काटने की प्रक्रिया के चलते वो एक मुस्लिम के द्वारा ही कटा हुआ होना चाहिए। जाहिर है इसके परिणामस्वरूप जो हिन्दू इस कारोबार से जुड़े थे वो इस कारोबार से ही बाहर हो गए। इसी प्रकार जब हलाल सर्टिफिकेट मांस तक सीमित ना होकर रेस्टोरेंट या फाइव स्टार होटल पर लागू होता है तो वहाँ परोसी जाने वाली हर चीज जैसे तेल, मसाले चावल, दाल सब कुछ हलाल सर्टिफिकेट की होनी चाहिए। और जब यह हलाल सर्टिफाइड मांसाहार रेल या विमानों में परोसा जाता है तो हिदुओं और सिखों जैसे गैर मुस्लिम मांसाहारियों को भी परोसा जाता है। ये गैर मुस्लिम जिनकी धार्मिक मान्यताएं हलाल के विपरीत झटका मांस की इजाजत देती हैं वो भी इसी का सेवन करने के लिए विवश हो जाते हैं।
लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात जो समझने वाली है वो यह कि इस हलाल सर्टिफिकेट को लेने के लिए भारी भरकम रकम देनी पड़ती है जो गैर सरकारी मुस्लिम संगठनों की झोली में जाति है। माँस से आगे बढ़ कर चावल, आटा, दालों, कॉस्मेटिक जैसी वस्तुओं के हलाल सर्टिफिकेशन के कारण अब यह रकम धीरे-धीरे एक ऐसी समानांतर अर्थव्यवस्था का रूप लेती जा रही है जिस पर किसी भी देश की सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है और इसलिए यह एक वैश्विक चिंता का विषय भी बनता जा रहा है। ऑस्ट्रेलियाई नेता जॉर्ज क्रिस्टेनसेन ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि हलाल अर्थव्यवस्था का पैसा आतंकवाद के काम में लिया जा सकता है। वहीं अंतरराष्ट्रीय लेखक नसीम निकोलस ने अपनी पुस्तक “स्किन इन द गेम” में इसी विषय पर ” द मोस्ट इंटॉलरेंट विंस” (जो असहिष्णु होता है वो जीतता है) नाम का लेख लिखा है। इसमें उन्होंने यह बताया है कि अमरीका जैसे देश में मुस्लिम और यहूदियों की अल्पसंख्यक आबादी कैसे पूरे अमेरिका में हलाल मांसाहार की उपलब्धता मुमकिन करा देते हैं।
अमरीका, ऑस्ट्रेलिया और योरोप के देश इस बात को समझ चुके हैं कि मजहबी मान्यताओं के नाम पर हलाल सर्टिफिकेट के जरिए एक आर्थिक युद्ध की आधारशिला रखी जा रही है जिसे हलालोनोमिक्स भी कहा जा रहा है। यही कारण है कि ऑस्ट्रेलिया की दो बड़ी मल्टी नेशनल कंपनी केलॉग्स और सैनिटेरियम ने अपने उत्पादों के लिए हलाल सर्टिफिकेट लेने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि उनके उत्पाद शुद्ध शाकाहारी होते हैं। इसलिए उन्हें हलाल सर्टिफिकेशन की कोई आवश्यकता नहीं है।
लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में राष्ट्रवाद की बात करने वाले बाबा रामदेव तक अपने शाकाहारी औषधीय उत्पादों का हलाल सर्टिफिकेशन करवाने के लिए मुस्लिम संगठनों को भारी भरकम फीस देते हैं। जब कारोबारी नफा नुकसान के आगे एक योगी की देशभक्ति कमजोर पड़ जाती है तो फिर एक आम आदमी की बिसात ही क्या। आज के युग में जब युद्ध हथियारों के बजाए अर्थव्यवस्ताओं के सहारे खेला जाता है तो योद्धा देश की सेना नहीं देश का हर नागरिक होता है। इसलिए हलाल के नाम पर एक आर्थिक युद्ध की घोषणा तो की जा चुकी है चुनाव अब आपको करना है कि इस युद्ध में सैनिक बनना है या फिर मूकदर्शक। (विसंकें)