आपदा प्रभावितों की उपेक्षा के खिलाफ कांग्रेस का उपवास आज, कई कांग्रेस नेता होंगे शामिल..
उत्तराखंड: आपदा प्रभावितों की उपेक्षा के खिलाफ कांग्रेस गुरुवार को सचिवालय गेट के सामने एक दिवसीय सांकेतिक धरना-उपवास करेगी। जिसमे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गणेश गोदियाल और पूर्व सीएम हरीश रावत सहित तमाम नेता शामिल होंगे।
उपाध्यक्ष एवं मीडिया सलाहकार सुरेंद्र कुमार का कहना हैं कि 17, 18 एवं 19 अक्तूबर को राज्य के विभिन्न स्थानों पर भीषण दैवीय आपदा आने के कारण कई लोेगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। जानमाल का भारी नुकसान हुआ था।
आपको बता दे कि कांग्रेस के तमाम नेताओं ने आपदा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा कर स्थिति का जायजा लिया। कांग्रेस ने सरकार से पांच दिन में आपदा पीड़ितों को राहत पहुंचाने की मांग की थी, लेकिन राज्य सरकार की ओर से इस संबंध में अब तक जरूरी कदम नहीं उठाए गए हैं। इसलिए पार्टी आज धरना-उपवास के माध्यम से सरकार को जगाने का काम कर रही है।
900 करोड़ रुपये के नुकसान का प्राथमिक आकलन..
आपदा में मरने वाले लोगों का आंकड़ा 77 पहुंच गया है। विभागों की ओर से सौंपी गई रिपोर्ट के आधार पर 900 करोड़ रुपये के नुकसान का प्राथमिक आकलन किया गया है। 232 से अधिक परिसंपत्तियों को नुकसान पहुंचा है। क्षति का आंकड़ा और भी बढ़ने के आसार हैं।
सिद्धू 72 दिन के प्रदेश अध्यक्ष, कहा-पंजाब के भविष्य से समझौता नहीं करूंगा..
देश-विदेश: पंजाब कांग्रेस में चल रहे घमासान के बीच मंगलवार को पार्टी प्रधान नवजोत सिद्धू ने 72 दिन बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। कुछ दिन पहले ही पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपने पद से इस्तीफा दिया था। इसके बाद चरणजीत चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया गया था। उसके बाद से सिद्धू पर सुपर सीएम होने के आरोप लग रहे थे।
मंगलवार को पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के नाम संबोधित त्यागपत्र में सिद्धू ने लिखा कि समझौता करने से व्यक्ति का चरित्र खत्म हो जाता है। मैं पंजाब के भविष्य और पंजाब की जनता के कल्याण के एजेंडा से कभी समझौता नहीं कर सकता हूं। उन्होंने आगे लिखा, इसलिए मैं पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देता हूं।
मैं कांग्रेस की सेवा करता रहूंगा। उनके इस्तीफे के बाद कैप्टन अमरिंदर ने अपनी पहली प्रतिक्रिया ट्वीट के माध्यम से दी। उन्होंने लिखा कि मैंने तो पहले ही कहा था कि यह आदमी स्थिर नहीं है और सीमावर्ती राज्य पंजाब के लिए सिद्धू सही नहीं है।
पंजाब की राजनीति में उलटफेर जारी है। मंगलवार को पूर्व सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह के गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात पर अटकलों का सिलसिला खत्म भी नहीं हुआ था कि नवजोत सिद्धू ने इस्तीफा देकर नया धमाका कर दिया। वहीं सूत्रों के अनुसार, सिद्धू इकबाल प्रीत सहोता को डीजीपी बनाए जाने से नाराज थे।
पार्टी की जीत के साथ ही शुरू हुए थे विवाद..
आपको बता दे कि आज पंजाब कांग्रेस जिस समस्या से जूझ रही है, उसकी शुरुआत 2017 चुनाव में पार्टी की जीत के साथ ही हुई थी। बता दे कि नवजोत सिंह सिद्धू 2017 चुनाव से पहले कांग्रेस में शामिल हुए थे। बेबाक अंदाज वाले सिद्धू राहुल और प्रियंका वाड्रा की पसंद थे। पार्टी जीती तो सिद्धू को डिप्टी सीएम बनाने की चर्चाएं तेज हो गई।
लेकिन जब कैप्टन सीएम बने तो उन्होंने साफ कर दिया कि पंजाब को डिप्टी सीएम की जरूरत नहीं है। राजनीति के जानकार मानते हैं कि अति महत्वाकांक्षी सिद्धू के लिए ये पहला झटका था और कैप्टन सिद्धू विवाद की शुरुआत यहीं से हो गई थी।
हरक सिंह रावत को हरीश धामी ने कहा कुछ ऐसा…
उत्तराखंड: प्रदेश में चुनावी माहौल शुरू होते ही नेताओ के एक दूसरे पर व्यंग्य औऱ टीका टिप्पणी शुरू हो गई हैं। आपको बता दें कि हाल ही में भाजपा के पूर्व सीएम त्रिवेंद्र रावत औऱ मंत्री हरक सिंह के बीच तीखी तकरार हो गई थी । जिसके बाद दोनों ने एक दूसरे पर व्यक्तिगत टिप्पणी भी की थी। बता दें कि इस बार भी व्यंग के घेरे में मंत्री हरक सिंह रावत ही हैं।
अब कांग्रेस के हरीश धामी ने मंत्री हरक सिंह रावत पर व्यंग्य कसते हुए कहा है कि कांग्रेस का प्रिंसिपल भाजपा में जाकर एलकेजी का स्टूडेंट् बन गया है। आगे उन्होंने कहा कि जिस तरह की बयानबाजी हरक सिंह कर रहे हैं उससे स्पष्ट हो गया है कि पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत ने उन्हें ढेंचा ढेंचा कहकर ढेंचू बना दिया है। हरीश धामी का कहना हैं कि हरक सिंह रावत कांग्रेस में प्रिंसिपल की भूमिका में थे उनकी हालत आज भाजपा में एक एलकेजी स्टूडेंट् की तरह है।
कांग्रेस के उम्मीदवारों को टिकट के लिए ढीली करनी होगी जेब, 11 हजार रुपये के साथ जमा होंगे आवेदन
देश-विदेश: अगले साल उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं इसके तहत सभी पार्टियां तैयारियों में जुट गई हैं। इस बीच कांग्रेस पार्टी के यूपी अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू ने सूचना जारी की है कि जिन लोगों को कांग्रेस का टिकट चाहिए वह आवेदन के साथ 11000 रुपये जमा कर दे।
सभी आवेदनकर्ताओं को यूपी विधानसभा की टिकट पाने के लिए 25 सितंबर तक आवेदन कर देना होगा। उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी की तरह से जो ज्ञापन जारी किया गया है उसमें लिखा है, आगामी विधानसभा चुनाव 2022 के लिए आवेदन-पत्र जमा करने हेतु जिला मुख्यालय पर जिला/शहर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्षों एवं प्रदेश स्तर पर संजय शर्मा और विजय बहादुर को अधिकृत किया गया गया है। सभी आवेदक जिला या प्रदेश स्तर पर उक्त अधिकृत लोगों के पास अपना आवेदन-पत्र सहयोग राशि 11 हजार रुपये के आरटीजीएस अथवा डिमांड ड्राफ्ट या पे ऑर्डर से 25 सितंबर तक जमा कर पावती प्राप्त कर सकेंगे।
- अजेंद्र अजय
पीवी नरसिम्हा राव, एचडी देवगौड़ा, अशोक गहलोत, राबड़ी देवी, चौधरी बंशी लाल, गिरधर गोमांग समेत कई नेता प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री अथवा मंत्री रहते हुए एक वर्ष से कम समयावधि के बावजूद उप चुनाव लड़ चुके हैं।
पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया और मीडिया के एक हिस्से में यह चर्चा बड़ी तेजी से फैलाई जा रही है कि उत्तराखंड में संवैधानिक संकट की स्थिति पैदा होने वाली है। इस चर्चा में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के एक प्रावधान का उल्लेख करते हुए राज्य में संवैधानिक संकट की आशंका जताई जा रही है। आश्चर्य की बात तो यह है कि सोशल मीडिया से उठे इस मुद्दे को प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने ऐसा लपका मानो उसके हाथ कोई जादुई चिराग लग गया हो।
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह से लेकर कई अन्य वरिष्ठ नेताओं ने बाकायदा बयान जारी कर सितंबर माह में प्रदेश में संवैधानिक संकट की ज्योतिषीय घोषणा तक कर डाल दी है। कांग्रेस नेताओं ने बयानबाजी करने से पहले इस मुद्दे से जुड़े संवैधानिक प्रावधानों और कानून के तकनीकि पक्षों को जरा सा भी समझने की कोशिश नहीं की और अनाड़ी व नौसिखिये राजनीतिज्ञों की तरह हो-हल्ला मचाना शुरू कर दिया।
दरअसल, प्रकरण प्रदेश के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के उप चुनाव को लेकर है। भाजपा नेतृत्व ने विगत 11 मार्च को गढ़वाल लोकसभा क्षेत्र से सांसद तीरथ सिंह रावत को प्रदेश के मुख्यमंत्री की कमान सौंपी थी। संवैधानिक प्रावधानों के तहत उन्हें मुख्यमंत्री के पद पर नियुक्ति से छः माह के भीतर अर्थात आगामी 10 सितंबर तक उत्तराखंड विधान सभा का सदस्य निर्वाचित होना है।
कांग्रेस नेता लोक प्रतिनिधित्व अधिनियमम -1951 की धारा- 151 (क) को मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के लिए उप चुनाव लड़ने में बाधक बता रहे हैं। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के भाग- 9 में उप निर्वाचन शीषर्क में संसद के दोनों सदनों और राज्यों के विधान मंडलों में आकस्मिक रिक्तियों के चुनावों को लेकर उपबंध तय किये गए हैं। भाग -9 की धारा -151 (क) में किसी कारण से रिक्त हुई सीट पर छः माह की अवधि के भीतर चुनाव करने का प्रावधान है। यह धारा कहती है कि –
151 क. धारा 147, धारा 149, धारा 150 और धारा 151 में निर्दिष्ट रिक्तियों को भरने के लिए समय की परिसीमा – धारा 147, धारा 149, धारा 150 और धारा 151 में किसी बात के होते हुए भी, उक्त धाराओं में से किसी में निर्दिष्ट किसी रिक्ति को भरने के लिए उप निर्वाचन, रिक्त होने की तारीख से छः मास की अवधि के भीतर कराया जाएगा :
परन्तु इस धारा की कोई बात उस दशा में लागू नहीं होगी, जिसमें –
(क) किसी रिक्ति से संबंधित सदस्य की पदावधि का शेष भाग एक वर्ष से कम है ; या
(ख) निर्वाचन आयोग, केंद्र सरकार से परामर्श करके, यह प्रमाणित करता है कि उक्त अवधि के भीतर ऐसा उप निर्वाचन करना कठिन है।
कांग्रेस द्वारा धारा-151क (क) को आधार बना कर तिल का ताड़ बनाया जा रहा है। कांग्रेस का कहना है कि चूंकि उत्तराखंड विधान सभा के आम चुनावों के लिए एक वर्ष से भी कम का समय रह गया है। लिहाजा, अब उप चुनाव नहीं हो सकते हैं और मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत उप चुनाव नहीं लड़ सकते।
यह सही है कि धारा-151क (क) रिक्ति की पदावधि का शेष भाग एक वर्ष से कम होने पर उप चुनाव की अनुमति नहीं देता है। मगर कोई सामान्य समझ वाला व्यक्ति भी धारा-151क (ख) को देख कर कह सकता है की यह उप चुनाव कराने की पूरी गुंजाइश रखती है। यह सोचने वाली बात है कि यदि गुंजाइश नहीं होती तो 151क (क) के बाद अधिनियम में “या” शब्द जोड़ने का क्या औचित्य था ?
“या” शब्द जोड़ने के बाद 151क (ख) में कहा गया है कि निर्वाचन आयोग, केंद्र सरकार से परामर्श करके, यह प्रमाणित करता है कि उक्त अवधि के भीतर ऐसा उप निर्वाचन करना कठिन है। यानी अगर उप चुनाव नहीं कराने होंगे तो चुनाव आयोग केंद्र सरकार से चर्चा करके बताएगा कि चुनाव कराने में क्या कठिनाई है ?
स्पष्ट है कि किसी विशेष प्रकार की परिस्थितियों के मद्देनजर ही “या” शब्द जोड़ा गया होगा और अधिनियम बनाने वालों ने भविष्य में किसी संभावित समस्या को देखते हुए यह प्रावधान किया होगा। कोई नियम अथवा अधिनियम संवैधानिक संकट पैदा ना हो, इस उद्देश्य से बनाया जाता है, ना कि संकट पैदा करने के लिए। यहां यह स्पष्ट है कि धारा-151 चुनाव आयोग को उप चुनाव नहीं कराने को लेकर किसी प्रकार से बाध्य नहीं करता है। आयोग उप चुनाव करा सकता है।
अब बारी आती है संविधान की। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-75(5) बिना किसी सदन की सदस्यता के छः माह तक किसी भी व्यक्ति को केंद्र सरकार में मंत्री अथवा प्रधानमंत्री और अनुच्छेद-164 (4) किसी भी व्यक्ति को प्रदेश का मुख्यमंत्री अथवा मंत्री नियुक्त होने की अनुमति देता है। अर्थात अगर कोई व्यक्ति संसद के किसी भी सदन का सदस्य निर्वाचित हुए बगैर प्रधानमंत्री अथवा केंद्रीय मंत्री बनता है तो, उसे छः माह के भीतर संसद के किसी भी सदन का सदस्य चुना जाना आवश्यक है। इसी प्रकार की बाध्यता मुख्यमंत्री व राज्य के मंत्रियों के लिए भी है। उन्हें विधान सभा अथवा जिन राज्यों में विधान परिषद् है, में से किसी एक सदन का सदस्य निर्वाचित होना आवश्यक है।
यानी बिना किसी सदन के सदस्य हुए बगैर छः माह तक किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री, मंत्री या देश का प्रधानमंत्री बनने का किसी भी भारतीय नागरिक को भारतीय संविधान पूरा अधिकार देता है। अब सवाल यह है की क्या किसी मुख्यमंत्री अथवा मंत्री को संविधान प्रदत्त इस अधिकार से कैसे आसानी से वंचित किया जा सकता है ? चुनाव आयोग भी संविधान प्रदत्त अधिकारों को सरंक्षण देते हुए ही अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करता है। तमाम ऐसे उदाहरण हैं जब चुनाव आयोग ने आकस्मिकताओं को ध्यान में रख कर एक वर्ष अथवा छह माह की अवधि से भी कम समय में उप चुनाव कराएं हैं।
चुनाव मामलों की जानकारी देने वाली इलेक्शन लॉज़, प्रैक्टिस एंड प्रोसीजर पुस्तक के अनुसार चुनाव आयोग ने, सुसंगत नीति के मामले में, हमेशा मंत्री के रूप में नियुक्त व्यक्ति को, जो उसकी ऐसी नियुक्ति के समय उपयुक्त विधायिका का सदस्य नहीं है, को संवैधानिक आवश्यकता को पूरा करने का अवसर प्रदान किया है। आयोग ने संबंधित व्यक्ति द्वारा पद ग्रहण करने के छह माह के भीतर उप-चुनाव कराकर मंत्री के रूप में अपनी नियुक्ति के संबंध में मतदाताओं को अपना निर्णय देने का अवसर प्रदान किया है।
पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव, एच.डी. देवेगौड़ा समेत वर्ष 1999 में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, वर्ष 1997 में बिहार की मुख्यमंत्री राबड़ी देवी, वर्ष 1993 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री विजय भास्कर रेड्डी एक वर्ष से कम अवधि के दौरान चुनाव लड़ चुके हैं।
वर्ष 1999 में उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग ने प्रदेश की अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित लक्ष्मीपुर विधानसभा क्षेत्र से उप चुनाव लड़ा। प्रदेश की लक्ष्मीपुर समेत कुछ अन्य विधान सभा सीटें खाली पड़ीं थीं। राज्य विधानसभा का शेष कार्यकाल उस रिक्ति की तारीख से एक वर्ष से कम के लिए था। मगर चुनाव आयोग ने मुख्यमंत्री की इच्छा को देखते हुए केवल लक्ष्मीपुर विधानसभा क्षेत्र में ही उप चुनाव आयोजित किया।
उड़ीसा की तरह का मामला वर्ष 1987 में हरियाणा में भी सामने आया था। यहां भी उड़ीसा की तरह चौधरी बंशी लाल तोशम विधान सभा क्षेत्र से उप चुनाव लड़े, जबकि यहां भी विधानसभा का कार्यकाल एक वर्ष से कम था और अन्य कुछ सीटें भी रिक्त थीं। मगर चुनाव आयोग ने चौधरी बंशी लाल को उनके संवैधानिक अधिकार की पूर्ति एक ही सीट पर उप चुनाव कराया। इस मामले को किसी ने हाई कोर्ट में चुनौती दी थी। मगर कोर्ट ने कोई हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी चुनाव आयोग के उस निर्णय में हस्तक्षेप नहीं किया।
उत्तराखंड के सन्दर्भ में विपक्षी दलों द्वारा विभिन्न न्यायालयों के जिन भी मामलों का उल्लेख किया जा रहा है, वे यहां कतई प्रासंगिक नहीं हैं। उन प्रकरणों की प्रकृति अलग तरह की थी। उत्तराखंड से कुछ अंश मात्र मिलते-जुलते मामलों की चर्चा की जाए तो देखा जा सकता है की सभी न्यायालयों ने सकारात्मक निर्णय ही दिए हैं। न्यायालयों ने चुनाव आयोग के आदेशों में हस्तक्षेप नहीं किया है।
कर्नाटक हाईकोर्ट ने एपी रंगनाथ बनाम मुख्य चुनाव आयोग, 2018 केस में उस याचिका को ख़ारिज कर दिया था, जिसमें लोकसभा सीट पर उप चुनाव के लिए एक वर्ष से थोड़ी ही अधिक अवधि थी। इसमें कोर्ट ने कहा की किसी क्षेत्र को एक वर्ष से अधिक समय के लिए बिना जनप्रतिनिधि के खाली नहीं रखा जा सकता। इस निर्णय का सबसे महत्वपूर्ण पहलु यह था की कोर्ट ने चुनाव आयोग को कहा कि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा-151क की व्याख्या के संबंध में कोई अस्पष्टता उत्पन्न होती है, तो चुनाव सुधार समिति, 1990 की रिपोर्ट का सहारा लिया जाना चाहिए।
ऐसे ही एक मिलते-जुलते मामले प्रमोद लक्ष्मण गुड़धे बनाम भारत निर्वाचन आयोग व अन्य में सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की, कि ऐसी व्याख्या लोकतंत्र के पवित्र सिद्धांत के अनुरूप है कि किसी निर्वाचन क्षेत्र को बिना प्रतिनिधित्व के नहीं रखना है। उप चुनाव पर होने वाले खर्च के संबंध में व्यक्त की गई चिंता को आधार नहीं माना जा सकता। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोकतंत्र को निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा खुद को बनाए रखना होता है।
- सुभाष चमोली
उत्तराखंड की सल्ट विधानसभा के प्रतिष्ठापूर्ण उपचुनाव में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने बाजी मार ली। रविवार को हुई मतगणना में भाजपा प्रत्याशी महेश जीना ने कांग्रेस प्रत्याशी गंगा पंचोली को 4697 मतों से पराजित किया।
चुनाव में भाजपा प्रत्याशी जीना को 21,874 जबकि कांग्रेस की गंगा को 17,177 मत प्राप्त हुए। उप चुनाव में भाजपा, कांग्रेस समेत कुल सात प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे। इस सीट पर मतदान 17 अप्रैल को हुआ था। चुनाव में कुल 43.28 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था।
भाजपा विधायक सुरेंद्र सिंह जीना के मृत्यु के बाद खाली हुई इस सीट पर पार्टी ने उनके बड़े भाई महेश जीना को अपना प्रत्याशी बनाया था, जबकि कांग्रेस पार्टी ने विगत विधानसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी को कड़ी टक्कर दे चुकीं गंगा पंचोली को फिर से मैदान में उतारा था।
उत्तराखंड में अगले वर्ष विधानसभा के चुनाव होने हैं। ऐसे में सल्ट विधानसभा उपचुनाव दोनों ही पार्टियों भाजपा व कांग्रेस के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ था। उपचुनाव प्रदेश के नव नियुक्त मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के लिए इम्तिहान भी था। उनके नेतृत्व में यह कोई भी पहला चुनाव था। सल्ट के परिणामों ने उनके नेतृत्व पर मोहर मार दी और कोरोना काल में उन्हें घेर रहे विपक्ष को भी बड़ा झटका दे दिया है।
उधर, सत्ता में वापसी के लिए छटपटा रही कांग्रेस के लिए सल्ट उपचुनाव के परिणाम किसी सदमे से कम नहीं है। सल्ट में कांग्रेस ही नहीं, अपितु पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की साख भी दांव पर लगी थी। कांग्रेस प्रत्याशी गंगा पंचोली को हरीश रावत के गुट का माना जाता है। इन चुनाव परिणामों के बाद कांग्रेस की राजनीति में नेतृत्व की लड़ाई के और तेज होने के आसार हैं।
उल्लेखनीय है कि हरीश रावत अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने की बात उठा चुके हैं। इसके बाद हरीश रावत के समर्थकों द्वारा लगातार उनके नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ाई जाने की मांग की जा रही थी। मगर सल्ट उपचुनावों से उनकी इस मुहिम को निश्चित ही धक्का पहुंचा है।
वॉट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स (कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिए क्या किया)। यह शीर्षक एक पुस्तक का है। पुस्तक के शीर्षक को देखकर यह अनुमान लगाने में किसी को कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि इसका लेखक कांग्रेस का कोई घोर आलोचक होगा। यह आलोचक कोई और नहीं, दलितों, पिछड़ों, मजदूरों व महिला अधिकारों और सामाजिक समरसता के ध्वजवाहक बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर थे। बाबा साहेब ने अपनी इस पुस्तक में कांग्रेस पार्टी के दलित प्रेम को ढोंग करार दिया है। पुस्तक में डॉ आंबेडकर ने लिखा है कि कांग्रेस ने अनुसूचित जातियों के उद्धार के लिए सैद्धांतिक सहमति देकर भी केवल राजनीतिक लाभ के लिए उनका उपयोग किया। उन्होंने कांग्रेस पर सुधार विरोधी बनने का आरोप लगाया है।
असाधारण प्रतिभा संपन्न व सामाजिक क्रांति के अग्रदूत डॉ आंबेडकर जैसे व्यक्ति को अनुसूचित समाज के प्रति कांग्रेस के रवैए पर पुस्तक लिखने को विवश होना पड़ा तो इसके निहितार्थ तलाशने में किसी को भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए। बाबा साहेब ने दलित समाज की कठिनाइयों को न केवल देखा, बल्कि दलित होने की त्रासदी को जमकर झेला। परिणामस्वरुप, उन्होंने सामाजिक हो या राजनीतिक हर माध्यम से वंचित समाज की लड़ाई को लड़ा। इस लड़ाई के दौरान डॉ साहब को कांग्रेस की कथनी और करनी में फर्क महसूस हुआ तो उन्होंने न केवल अपनी सभाओं में कांग्रेस के चरित्र को उजागर किया, अपितु पुस्तक के द्वारा भी तथ्यों को सामने रखा।
डॉ.आंबेडकर की कांग्रेस के प्रति ऐसी सोच बेवजह नहीं थी। अपने समकालीन राजनेताओं में सर्वाधिक पढ़े-लिखे प्रख्यात कानूनविद व अर्थशास्त्री डॉ आंबेडकर को खुद कांग्रेस के राजनीतिक षड्यंत्र का शिकार होना पड़ा। कांग्रेस नहीं चाहती थी बाबा साहब को पंडित नेहरू जैसे नेता के समकक्ष मान्यता मिले। कांग्रेस डॉ आंबेडकर की भूमिका मात्र एक दलित नेता तक सीमित रखना चाहती थी। इसका सबसे बड़ा प्रमाण वर्ष 1952 में देश के पहले लोकसभा चुनाव के दौरान देखने को मिला। कांग्रेस ने कम्युनिस्टों के साथ मिलकर बाबा साहेब को संसद में न पहुंचने देने के लिए पूरी ताकत का इस्तेमाल किया। बाबा साहेब उत्तरी मुंबई लोकसभा क्षेत्र से चुनाव हार गए। डॉ आंबेडकर ने वर्ष 1954 में भंडारा लोकसभा क्षेत्र से उपचुनाव लड़ा। इस उपचुनाव में पंडित जवाहरलाल नेहरु खुद चुनाव प्रचार में उतरे और डॉ आंबेडकर को हार का सामना करना पड़ा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने दोनों चुनावों में डॉ आंबेडकर का समर्थन किया।
यहां इस तथ्य की चर्चा करना प्रासंगिक होगा कि डॉ अंबेडकर संघ के सामाजिक समरसता के प्रयासों से प्रभावित थे। संघ के संस्थापक डॉ केशवराव बलिराम हेडगेवार के अनुरोध पर आंबेडकर वर्ष 1936 में पुणे में संघ के एक कार्यक्रम में शामिल हुए थे। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद वे स्वयंसेवकों के बीच घूमे और स्वयंसेवकों से मिले। महात्मा गांधी की हत्या के बाद वर्ष 1948 में संघ पर जब पहली बार प्रतिबंध लगा तो डॉ अंबेडकर ने इसका विरोध किया। प्रतिबंध समाप्त होने के बाद संघ के तत्कालीन सर संघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ”श्री गुरु जी” ने डॉ अंबेडकर को पत्र लिखकर इसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित की।
डॉ.आंबेडकर के प्रति उपेक्षित व्यवहार के बावजूद कई बार कांग्रेस के कुछ नेता उनके नाम को भुनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते हैं। कुछ कांग्रेसी तर्क देते हैं कि उनकी पार्टी ने उन्हें संविधान निर्माण की जिम्मेदारी दी और केंद्र सरकार में मंत्री बनाया। मगर यह बात पूरी तरह से सही नहीं है।
देश की आजादी की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। इसके लिए संविधान सभा का गठन किया जाना था। संविधान सभा के लिए कुल 389 प्रतिनिधियों में से विभिन्न प्रांतों से 296 सदस्यों का चुनाव होना था। डॉ आंबेडकर तत्कालीन संविधान सभा के लिए निर्दलीय सदस्य चुने गए। संविधान सभा का निर्वाचन होने पर कई समितियां गठित की गई। जिनमें से एक समिति संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष डॉ अंबेडकर को नियुक्त किया गया। डॉ आंबेडकर की योग्यताओं क्षमताओं को देखते हुए ही प्रारूप समिति जैसे जटिल कार्य की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई। देश की पहली अंतरिम सरकार में डॉ अंबेडकर को बतौर मंत्री शामिल करने के पीछे सरदार पटेल जैसे नेताओं की सोच थी।
पटेल जैसे नेताओं का मानना था कि मंत्रिमंडल को राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिए कुछ वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं को शामिल किया जाना चाहिए। इस क्रम में भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी, शिक्षाविद् व अर्थशास्त्री जान मथाई एवं डॉ आंबेडकर जैसे तीन गैर कांग्रेसी नेताओं को केंद्र सरकार में मंत्री बनाया गया। हालांकि, सरकार से मतभेदों के चलते तीनों ने बाद में मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया था। इसे दुर्योग ही कहना चाहिए कि तत्कालीन भारतीय राजनीति के दो प्रखर व दिग्गज नेता डॉ मुखर्जी की वर्ष 1953 में रहस्यमय तरीके से मृत्यु हो गई और वर्ष 1956 में बीमारी के कारण डॉ.आंबेडकर चल बसे।
कांग्रेस ने बाबा साहब को उनकी मृत्यु के बाद भी अपेक्षित सम्मान देना उचित नहीं समझा। इंदिरा गांधी अपने प्रधानमंत्रित्व काल में भारत रत्न पुरस्कार पा गईं। पंडित नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक को भारत रत्न से नवाजा गया, किंतु डॉ आंबेडकर को 1990 में भाजपा के समर्थन से गठित वीपी सिंह की सरकार ने डॉ सुब्रमण्यम स्वामी की पहल पर भारत रत्न प्रदान किया। संसद के सेंट्रल हॉल में बाबा साहेब का चित्र लगाने से लेकर अन्य तमाम अवसरों पर बाबा साहब के प्रति कांग्रेस का रवैया नकारात्मक रहा है।
देश में राजनीतिक व सामाजिक परिवर्तन लाने वाले डॉ आंबेडकर के व्यक्तित्व का असल मूल्यांकन केंद्र में भाजपा के नेतृत्व में गठित नरेंद्र मोदी सरकार ने किया। मोदी सरकार ने बाबासाहेब के व्यक्तित्व व विचारों को चिरस्थाई बनाने के लिए वर्ष 2017 में दिल्ली में डॉ अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर की स्थापना की। मोदी सरकार का एक बड़ा निर्णय बाबा साहेब के जीवन से जुड़े पांच स्थानों को “पंचतीर्थ” के रूप में विकसित करने का है। पहला तीर्थ, महू (मध्य प्रदेश) बाबा साहेब का जन्म स्थान। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद महू गए। मोदी देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जो बाबा साहेब के जन्म स्थान पर गए। दूसरा तीर्थ, लंदन (ब्रिटेन)में जहां बाबा साहब ने अध्ययन के दौरान निवास किया था। तीसरा, नागपुर की वह दीक्षाभूमि जहां उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। चौथा, दिल्ली के अलीपुर स्थित महापरिनिर्वाण स्थल और पांचवां, मुंबई स्थित चैत्यभूमी पर समारक।
बहरहाल, डॉ अंबेडकर ने कांग्रेस के विरुद्ध जो अभियान छेड़ा था, आज उसके परिणाम सामने आने लगे हैं। वर्षों तक दलित वोट बैंक की ठेकेदार बनी रही कांग्रेस की कारगुजारियों से आज यह वर्ग भली-भांति वाकिफ हो चुका है और दलित समाज समझ रहा है कि उनके नाम पर कांग्रेस और अन्य गैर भाजपाई दलों ने केवल राजनीति की है। इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि आज देश में सर्वाधिक दलित सांसद, विधायक व मेयर भाजपा के हैं।
- डॉ नीलम महेंद्र
वरिष्ठ स्तंभकार
चार राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश पुड्डुचेरी में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। जहां पुडुचेरी, केरल और तमिलनाडु में 6 अप्रैल को एक ही चरण में चुनाव होंगे, वहीं पश्चिम बंगाल में आठ चरणों तो असम के लिए तीन चरणों में चुनाव कार्यक्रम घोषित किया गया है। भारत केवल भौगोलिक दृष्टि से एक विशाल देश नहीं है अपितु सांस्कृतिक विरासत की दृष्टि से भी वो अपार विविधता को अपने भीतर समेटे है। एक ओर खान-पान, बोली-भाषा एवं धार्मिक मान्यताओं की यह विविधता इस देश को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध तथा खूबसूरत बनाती हैं। तो दूसरी ओर यही विविधता इस देश की राजनीति को जटिल और पेचीदा भी बनाती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में देश की राजनीति की दिशा में धीरे धीरे किंतु स्पष्ट बदलाव देखने को मिल रहा है।
तुष्टिकरण की राजनीति को सबका साथ-सबका विकास और वोट बैंक की राजनीति को विकास की राजनीति चुनौती दे रही है। यही कारण है कि इन पांच राज्यों के चुनाव परिणाम देश की राजनीति की दिशा तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले सिद्ध होंगे। इतिहास में अगर पीछे मुड़कर देखें तो आज़ादी के बाद देश के सामने कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर कोई और विकल्प मौजूद नहीं था। धीरे-धीरे क्षेत्रीय दल बनने लगे, जो अपने-अपने क्षेत्रों में मजबूत होते गए। लेकिन ये दल क्षेत्रीय ही बने रहे। अपने क्षेत्रों से आगे बढ़कर राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का विकल्प बनने में कामयाब नहीं हो पाए।
लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी रहा कि समय के साथ ये दल अपने अपने क्षेत्रों में कांग्रेस का मजबूत विकल्प बनने में अवश्य कामयाब हो गए। आज स्थिति यह है कि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी इन क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ कर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। वहीं आम चुनावों में कांग्रेस की स्थिति का आंकलन इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि वो लगातार दो बार से अपने इतने प्रतिनिधियों को भी लोकसभा में नहीं पहुंचा पा रही कि सदन को नेता प्रतिपक्ष दे पाए। उसे चुनौती मिल रही है एक ऐसी पार्टी से जो अपनी उत्पत्ति के समय से ही तथाकथित सेक्युलर सोच वाले दलों ही नहीं वोटरों के लिए भी राजनैतिक रूप से अछूत बनी रही।
1980 में अपनी स्थापना ,1984 आम चुनावों में में मात्र दो सीटों पर विजय, फिर 1999 में एक वोट से सरकार गिरने से लेकर 2019 लोकसभा में 303 सीटों तक का सफर तय करने में बीजेपी ने जितना लम्बा सफर तय किया है उससे कहीं अधिक लम्बी रेखा अन्य दलों के लिए खींच दी है। क्योंकि आज वो पूर्ण बहुमत के साथ केवल केंद्र तक सीमित नहीं है बल्कि लगभग 17 राज्यों में उसकी सरकारें हैं। वो दल जो केवल हिंदी भाषी राज्यों तक सीमित था, आज वो असम में अपनी सरकार बचाने के लिए मैदान में है, केरल तमिलनाडु और पुड्डुचेरी जैसे राज्यों में अपनी जड़ें जमा रहा है तो पश्चिम बंगाल में प्रमुख विपक्षी दल है।
असम की अगर बात करें तो घुसपैठ से परेशान स्थानीय लोगों की वर्षो से लंबित एनआरसी की मांग को लागू करना, बोडोलैंड समझौता, बोडो को असम की ऑफिशियल भाषा में शामिल करना, डॉ भूपेंद्र हज़ारिका सेतु, बोगिबिल ब्रिज, सरायघाट ब्रिज जैसे निर्माणों से असम को नार्थ ईस्ट के अलग अलग हिस्सों से जोड़ना। कालीबाड़ी घाट से जोहराट का पुल और धुबरी से मेघालय में फुलबारी तक पुल जो असम और मेघालय की सड़क मार्ग की करीब ढाई सौ किमी की वर्तमान दूरी को मात्र 19 से 20 किमी तक कर देगा जैसे विकास कार्यों के साथ भाजपा की वर्तमान सरकार जनता के सामने है। वहीं अपनी खोई जमीन पाने के लिए संघर्षरत कांग्रेस ने अपने पुराने तर्ज़ पर ही चलते हुए,सत्ता में आने पर सीएए को निरस्त करना, सभी परिवारों को 200 यूनिट तक बिजली मुफ्त देना, राज्य की हर महिला को 2000 रूपए प्रति माह देना और 5 लाख नौकरियां देने जैसे वादे किए हैं।
बंगाल की बात करें तो यहां लगभग 34 वर्षों तक शासन करने वाली लेफ्ट और 20 वर्षों तक शासन करने वाली कांग्रेस दोनों ही रेस से बाहर हैं। विगत दो बार से सत्ता पर काबिज़ तृणमूल का एकमात्र मुख्य मुकाबला भाजपा से है। उस भाजपा से जिसका 2011 के विधानसभा चुनावों में खाता भी नहीं खुला था। इससे भी दिलचस्प बात यह है कि जिस हिंसा और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर ममता बनर्जी ने वाम का 34 साल पुराना किला ढहाया था, आज उनकी सरकार के खिलाफ भाजपा ने उसी हिंसा और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया है।
केरल में लेफ्ट और कांग्रेस आमने सामने हैं। यह अलग बात है कि अन्य राज्यों में लेफ्ट उसकी सहयोगी होती है। अभी तक ऐसा देखा गया है कि हर पांच साल में दोनों बारी-बारी से सत्ता में आते हैं। इसलिए कांग्रेस को उम्मीद है कि इस बार उसकी सत्ता में वापसी हो सकती है। चुनाव परिणाम क्या आएंगे, यह तो समय ही बताएगा लेकिन चूंकि राहुल गांधी केरल से लोकसभा पहुंचे हैं तो जाहिर तौर पर कांग्रेस के लिए केरल की जीत मायने रखती है। भाजपा की अगर बात करें तो 2011 में उसे केरल विधानसभा में मात्र एक सीट मिली थी और इस बार वो मेट्रोमैन ई.श्रीधरन की छवि और अपने विकास के वादे के साथ मैदान में है। वहीं अपनी सत्ता बचाने के लिए मैदान में उतरी लेफ्ट ने स्थिति की गंभीरता को समझते हुए चुनावों से पहले सबरीमाला से जुड़े सभी केसों को वापस लेने का फैसला लिया है। जाहिर है गैर हिंदी भाषी केरल में भाजपा वर्तमान में अवश्य अपनी जमीन तलाश रही है लेकिन उसकी निगाहें भविष्य पर हैं। यही कारण है कि कांग्रेस और लेफ्ट भले ही केरल में एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं लेकिन दोनों का ही मुख्य मुकाबला भाजपा से है।
पुड्डुचेरी में कांग्रेस सरकार चुनावों से ऐन पहले गिर गई। यह दक्षिण में कांग्रेस की आखिरी सरकार थी। यहां भी भ्रष्टाचार मुख्य चुनावी मुद्दा है। राहुल गांधी के पुड्डुचेरी दौरे पर एक महिला की शिकायत का मुख्यमंत्री द्वारा गलत अनुवाद करने का वीडियो पूरे देश में चर्चा का विषय बना था और पुड्डुचेरी सरकार की हकीकत बताने के लिए काफी था। हालांकि यहां भी भाजपा का अबतक कोई वजूद नहीं था लेकिन आज वो मुख्य विपक्षी दल है।
तमिलनाडु एक ऐसा प्रदेश है जहां हिंदी भाषी नेता जनता को आकर्षित नहीं करते। लेकिन ऐसा 40 सालों में पहली बार होगा जब यहां चुनाव दो दिग्गज जयललिता और करुणानिधि के बिना होने जा रहे हैं। जयललिता छः बार और करुणानिधि पांच बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। इस बार भी टक्कर एआईएडीएमके और डीएमके के बीच ही है। डीएमके और कांग्रेस यहां मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं जबकि भाजपा एआइएडीएमके के साथ गठबंधन में है। जयललिता या करुणानिधि जैसे चेहरे के अभाव में जनता किस को चुनती है यह तो समय बताएगा। तमिलनाडु के चुनावी मुद्दों की बात करें तो यहां सबसे बड़ा मुद्दा भाषा का होता है। दरअसल, तमिल भाषा दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है। राहुल गांधी ने अपने हाल के दौरे में लोगों को भरोसा दिलाया कि तमिल यहां की पहली भाषा होगी। उन पर अन्य कोई भाषा नहीं थोपी जाएगी। वहीं प्रधानमंत्री मोदी ने भी मन की बात कार्यक्रम में कहा कि उनमें एक कमी यह रह गई कि वो तमिल भाषा नहीं सीख पाए।
कहा जा सकता है कि बंगाल, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी जहां कभी क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व था आज भाजपा वहां सबसे मजबूत विपक्ष बनकर उभरी है। जाहिर है वर्तमान परिस्थितियों में इन राज्यों के चुनाव परिणाम ना सिर्फ इन राजनैतिक दलों का भविष्य तय करेंगे बल्कि काफी हद तक देश की राजनीति का भी भविष्य तय करेंगे।
स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में जिनकी एक पुकार पर हजारों महिलाओं ने अपने कीमती गहने अर्पित कर दिये, जिनके आह्नान पर हजारों युवक और युवतियाँ आजाद हिन्द फौज में भर्ती हो गये, उन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जन्म उड़ीसा की राजधानी कटक के एक मध्यमवर्गीय परिवार में 23 जनवरी, 1897 को हुआ था।
सुभाष के अंग्रेज भक्त पिता रायबहादुर जानकीनाथ चाहते थे कि वह अंग्रेजी आचार-विचार और शिक्षा को अपनाएँ। विदेश में जाकर पढ़ें तथा आई.सी.एस. बनकर अपने कुल का नाम रोशन करें; पर सुभाष की माता प्रभावती हिन्दुत्व और देश से प्रेम करने वाली महिला थीं। वे उन्हें 1857 के संग्राम तथा विवेकानन्द जैसे महापुरुषों की कहानियाँ सुनाती थीं। इससे सुभाष के मन में भी देश के लिए कुछ करने की भावना प्रबल हो उठी।
सुभाष ने कटक और कोलकाता से विभिन्न परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। फिर पिताजी के आग्रह पर वे आई.सी.एस की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड चले गये। अपनी योग्यता और परिश्रम से उन्होंने लिखित परीक्षा में पूरे विश्वविद्यालय में चतुर्थ स्थान प्राप्त किया; पर उनके मन में ब्रिटिश शासन की सेवा करने की इच्छा नहीं थी। वे अध्यापक या पत्रकार बनना चाहते थे। बंगाल के स्वतन्त्रता सेनानी देशबन्धु चितरंजन दास से उनका पत्र-व्यवहार होता रहता था। उनके आग्रह पर वे भारत आकर कांग्रेस में शामिल हो गये।
कांग्रेस में उन दिनों गांधी जी और नेहरू जी की तूती बोल रही थी। उनके निर्देश पर सुभाष बाबू ने अनेक आन्दोलनों में भाग लिया और 12 बार जेल-यात्रा की। 1938 में गुजरात के हरिपुरा में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बनाये गये; पर फिर उनके गांधी जी से कुछ मतभेद हो गये। गांधी जी चाहते थे कि प्रेम और अहिंसा से आजादी का आन्दोलन चलाया जाये; पर सुभाष बाबू उग्र साधनों को अपनाना चाहते थे। कांग्रेस के अधिकांश लोग सुभाष बाबू का समर्थन करते थे। युवक वर्ग तो उनका दीवाना ही था।
सुभाष बाबू ने अगले साल मध्य प्रदेश के त्रिपुरी में हुए अधिवेशन में फिर से अध्यक्ष बनना चाहा; पर गांधी जी ने पट्टाभि सीतारमैया को खड़ा कर दिया। सुभाष बाबू भारी बहुमत से चुनाव जीत गये। इससे गांधी जी के दिल को बहुत चोट लगी। आगे चलकर सुभाष बाबू ने जो भी कार्यक्रम हाथ में लेना चाहा, गांधी जी और नेहरू के गुट ने उसमें सहयोग नहीं दिया। इससे खिन्न होकर सुभाष बाबू ने अध्यक्ष पद के साथ ही कांग्रेस भी छोड़ दी।
अब उन्होंने ‘फारवर्ड ब्लाक’ की स्थापना की। कुछ ही समय में कांग्रेस की चमक इसके आगे फीकी पड़ गयी। इस पर अंग्रेज शासन ने सुभाष बाबू को पहले जेल में और फिर घर में नजरबन्द कर दिया; पर सुभाष बाबू वहाँ से निकल भागे। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। सुभाष बाबू ने अंग्रेजों के विरोधी देशों के सहयोग से भारत की स्वतन्त्रता का प्रयास किया। उन्होंने आजाद हिन्द फौज के सेनापति पद से जय हिन्द, चलो दिल्ली तथा तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा का नारा दिया; पर दुर्भाग्य से उनका यह प्रयास सफल नहीं हो पाया।
सुभाष बाबू का अन्त कैसे, कब और कहाँ हुआ, यह रहस्य ही है। कहा जाता है कि 18 अगस्त, 1945 को जापान में हुई एक विमान दुर्घटना में उनका देहान्त हो गया। यद्यपि अधिकांश तथ्य इसे झूठ सिद्ध करते हैं; पर उनकी मृत्यु के रहस्य से पूरा पर्दा उठना अभी बाकी है।
गुजरात के हरिपुरा में होगा विशेष कार्यक्रम
शनिवार को इस महान नेता की जयंती पराक्रम दिवस के रूप में मनाई जाएगी। देश भर में आयोजित होने वाले विभिन्न कार्यक्रमों में से एक विशेष कार्यक्रम गुजरात के हरिपुरा में आयोजित होगा। इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल होंगे।
हरिपुरा का नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ एक विशेष संबंध रहा है। 1938 के ऐतिहासिक हरिपुरा अधिवेशन में नेताजी बोस ने कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष पद संभाला था। प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट कर कहा कि हरिपुरा में आयोजित होने वाला कार्यक्रम हमारे राष्ट्र के लिए नेताजी बोस के योगदान को एक श्रद्धांजलि होगी।
भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता एवं केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा कि कांग्रेस और विपक्ष की अन्य पार्टियां कृषि कानून पर भ्रम फैलाने में जुटी हैं लेकिन सितंबर से लेकर दिसंबर के बीच देश के जिस भी हिस्से में चुनाव हुए हैं, वहां भाजपा को बड़ी जीत मिली है। उन्होंने कहा कि जनता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विश्वास करती है।
सोमवार को दिल्ली में पार्टी के केंद्रीय कार्यालय में आयोजित प्रेस वार्ता को संबोधित करते हुए स्मृति ने देश के अलग-अलग हिस्सों में हुए निकाय चुनाव और पंचायत चुनावों में भाजपा को मिली शानदार सफलता को प्रधानमंत्री मोदी और उनकी नीतियों में विश्वास बताया।
उन्होंने कहा कि इन सभी चुनावों में पूर्व से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक समग्र राष्ट्र की जनता का आशीर्वाद प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा को मिला है। इन चुनावों में भाजपा को मिली ऐतिहासिक विजय यह दर्शाती है कि देश को माननीय प्रधानमंत्री में एवं उनकी नीतियों में अटूट विश्वास है। देश की जनता ने कांग्रेस सहित विपक्ष की नकारात्मक और समाज को बांटने वाली राजनीति को सिरे से खारिज किया है।
केंद्रीय मंत्री ने कहा कि आज कांग्रेस लगातार सिमटती जा रही है। जबकि भारतीय जनता पार्टी को देश के ग्रामीण इलाकों में व्यापक समर्थन मिल रहा है और वह भी तब, जब किसान आंदोलन के नाम पर विपक्ष लोगों को भ्रमित करने का काम कर रहा है। जब से कृषि सुधार बिल देश की संसद ने पारित किए, तब से विपक्षी दल एक भ्रांति फैलाने का प्रयास कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि कांग्रेस का आरोप रहा है कि देश की ग्रामीण जनता भारत सरकार के सामने अपनी पीड़ा व्यक्त कर रही है लेकिन आज हम उन राज्यों में ऐतिहासिक जीत दर्ज कर रहे हैं, जहां कांग्रेस की सत्ता थी तो ये कई मायनों में खास है। उन्होंने कहा कि केरल में भी भारतीय जनता पार्टी की स्थिति मजबूत हुई है जबकि वहां हमारे कार्यकर्ताओं को लगातार मौत के घाट उतारा जा रहा है।