वॉट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स (कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिए क्या किया)। यह शीर्षक एक पुस्तक का है। पुस्तक के शीर्षक को देखकर यह अनुमान लगाने में किसी को कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि इसका लेखक कांग्रेस का कोई घोर आलोचक होगा। यह आलोचक कोई और नहीं, दलितों, पिछड़ों, मजदूरों व महिला अधिकारों और सामाजिक समरसता के ध्वजवाहक बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर थे। बाबा साहेब ने अपनी इस पुस्तक में कांग्रेस पार्टी के दलित प्रेम को ढोंग करार दिया है। पुस्तक में डॉ आंबेडकर ने लिखा है कि कांग्रेस ने अनुसूचित जातियों के उद्धार के लिए सैद्धांतिक सहमति देकर भी केवल राजनीतिक लाभ के लिए उनका उपयोग किया। उन्होंने कांग्रेस पर सुधार विरोधी बनने का आरोप लगाया है।
असाधारण प्रतिभा संपन्न व सामाजिक क्रांति के अग्रदूत डॉ आंबेडकर जैसे व्यक्ति को अनुसूचित समाज के प्रति कांग्रेस के रवैए पर पुस्तक लिखने को विवश होना पड़ा तो इसके निहितार्थ तलाशने में किसी को भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए। बाबा साहेब ने दलित समाज की कठिनाइयों को न केवल देखा, बल्कि दलित होने की त्रासदी को जमकर झेला। परिणामस्वरुप, उन्होंने सामाजिक हो या राजनीतिक हर माध्यम से वंचित समाज की लड़ाई को लड़ा। इस लड़ाई के दौरान डॉ साहब को कांग्रेस की कथनी और करनी में फर्क महसूस हुआ तो उन्होंने न केवल अपनी सभाओं में कांग्रेस के चरित्र को उजागर किया, अपितु पुस्तक के द्वारा भी तथ्यों को सामने रखा।
डॉ.आंबेडकर की कांग्रेस के प्रति ऐसी सोच बेवजह नहीं थी। अपने समकालीन राजनेताओं में सर्वाधिक पढ़े-लिखे प्रख्यात कानूनविद व अर्थशास्त्री डॉ आंबेडकर को खुद कांग्रेस के राजनीतिक षड्यंत्र का शिकार होना पड़ा। कांग्रेस नहीं चाहती थी बाबा साहब को पंडित नेहरू जैसे नेता के समकक्ष मान्यता मिले। कांग्रेस डॉ आंबेडकर की भूमिका मात्र एक दलित नेता तक सीमित रखना चाहती थी। इसका सबसे बड़ा प्रमाण वर्ष 1952 में देश के पहले लोकसभा चुनाव के दौरान देखने को मिला। कांग्रेस ने कम्युनिस्टों के साथ मिलकर बाबा साहेब को संसद में न पहुंचने देने के लिए पूरी ताकत का इस्तेमाल किया। बाबा साहेब उत्तरी मुंबई लोकसभा क्षेत्र से चुनाव हार गए। डॉ आंबेडकर ने वर्ष 1954 में भंडारा लोकसभा क्षेत्र से उपचुनाव लड़ा। इस उपचुनाव में पंडित जवाहरलाल नेहरु खुद चुनाव प्रचार में उतरे और डॉ आंबेडकर को हार का सामना करना पड़ा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने दोनों चुनावों में डॉ आंबेडकर का समर्थन किया।
यहां इस तथ्य की चर्चा करना प्रासंगिक होगा कि डॉ अंबेडकर संघ के सामाजिक समरसता के प्रयासों से प्रभावित थे। संघ के संस्थापक डॉ केशवराव बलिराम हेडगेवार के अनुरोध पर आंबेडकर वर्ष 1936 में पुणे में संघ के एक कार्यक्रम में शामिल हुए थे। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद वे स्वयंसेवकों के बीच घूमे और स्वयंसेवकों से मिले। महात्मा गांधी की हत्या के बाद वर्ष 1948 में संघ पर जब पहली बार प्रतिबंध लगा तो डॉ अंबेडकर ने इसका विरोध किया। प्रतिबंध समाप्त होने के बाद संघ के तत्कालीन सर संघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ”श्री गुरु जी” ने डॉ अंबेडकर को पत्र लिखकर इसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित की।
डॉ.आंबेडकर के प्रति उपेक्षित व्यवहार के बावजूद कई बार कांग्रेस के कुछ नेता उनके नाम को भुनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते हैं। कुछ कांग्रेसी तर्क देते हैं कि उनकी पार्टी ने उन्हें संविधान निर्माण की जिम्मेदारी दी और केंद्र सरकार में मंत्री बनाया। मगर यह बात पूरी तरह से सही नहीं है।
देश की आजादी की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। इसके लिए संविधान सभा का गठन किया जाना था। संविधान सभा के लिए कुल 389 प्रतिनिधियों में से विभिन्न प्रांतों से 296 सदस्यों का चुनाव होना था। डॉ आंबेडकर तत्कालीन संविधान सभा के लिए निर्दलीय सदस्य चुने गए। संविधान सभा का निर्वाचन होने पर कई समितियां गठित की गई। जिनमें से एक समिति संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष डॉ अंबेडकर को नियुक्त किया गया। डॉ आंबेडकर की योग्यताओं क्षमताओं को देखते हुए ही प्रारूप समिति जैसे जटिल कार्य की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई। देश की पहली अंतरिम सरकार में डॉ अंबेडकर को बतौर मंत्री शामिल करने के पीछे सरदार पटेल जैसे नेताओं की सोच थी।
पटेल जैसे नेताओं का मानना था कि मंत्रिमंडल को राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिए कुछ वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं को शामिल किया जाना चाहिए। इस क्रम में भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी, शिक्षाविद् व अर्थशास्त्री जान मथाई एवं डॉ आंबेडकर जैसे तीन गैर कांग्रेसी नेताओं को केंद्र सरकार में मंत्री बनाया गया। हालांकि, सरकार से मतभेदों के चलते तीनों ने बाद में मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया था। इसे दुर्योग ही कहना चाहिए कि तत्कालीन भारतीय राजनीति के दो प्रखर व दिग्गज नेता डॉ मुखर्जी की वर्ष 1953 में रहस्यमय तरीके से मृत्यु हो गई और वर्ष 1956 में बीमारी के कारण डॉ.आंबेडकर चल बसे।
कांग्रेस ने बाबा साहब को उनकी मृत्यु के बाद भी अपेक्षित सम्मान देना उचित नहीं समझा। इंदिरा गांधी अपने प्रधानमंत्रित्व काल में भारत रत्न पुरस्कार पा गईं। पंडित नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक को भारत रत्न से नवाजा गया, किंतु डॉ आंबेडकर को 1990 में भाजपा के समर्थन से गठित वीपी सिंह की सरकार ने डॉ सुब्रमण्यम स्वामी की पहल पर भारत रत्न प्रदान किया। संसद के सेंट्रल हॉल में बाबा साहेब का चित्र लगाने से लेकर अन्य तमाम अवसरों पर बाबा साहब के प्रति कांग्रेस का रवैया नकारात्मक रहा है।
देश में राजनीतिक व सामाजिक परिवर्तन लाने वाले डॉ आंबेडकर के व्यक्तित्व का असल मूल्यांकन केंद्र में भाजपा के नेतृत्व में गठित नरेंद्र मोदी सरकार ने किया। मोदी सरकार ने बाबासाहेब के व्यक्तित्व व विचारों को चिरस्थाई बनाने के लिए वर्ष 2017 में दिल्ली में डॉ अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर की स्थापना की। मोदी सरकार का एक बड़ा निर्णय बाबा साहेब के जीवन से जुड़े पांच स्थानों को “पंचतीर्थ” के रूप में विकसित करने का है। पहला तीर्थ, महू (मध्य प्रदेश) बाबा साहेब का जन्म स्थान। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद महू गए। मोदी देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जो बाबा साहेब के जन्म स्थान पर गए। दूसरा तीर्थ, लंदन (ब्रिटेन)में जहां बाबा साहब ने अध्ययन के दौरान निवास किया था। तीसरा, नागपुर की वह दीक्षाभूमि जहां उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। चौथा, दिल्ली के अलीपुर स्थित महापरिनिर्वाण स्थल और पांचवां, मुंबई स्थित चैत्यभूमी पर समारक।
बहरहाल, डॉ अंबेडकर ने कांग्रेस के विरुद्ध जो अभियान छेड़ा था, आज उसके परिणाम सामने आने लगे हैं। वर्षों तक दलित वोट बैंक की ठेकेदार बनी रही कांग्रेस की कारगुजारियों से आज यह वर्ग भली-भांति वाकिफ हो चुका है और दलित समाज समझ रहा है कि उनके नाम पर कांग्रेस और अन्य गैर भाजपाई दलों ने केवल राजनीति की है। इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि आज देश में सर्वाधिक दलित सांसद, विधायक व मेयर भाजपा के हैं।