पोरस की वजह से सोशल मीडिया पर ट्रोल हुए सैफ और करीना..
देश-विदेश: हरियाणवी डांसर सपना चौधरी ने अपनी अदाओ और खूबसूरती से सबको दीवाना बना दिया। बच्चे से बुढा तक सपना को एक नज़र देखने के लिए पागल हो जाते है। लाखों दिलो की धडकन बढ़ाने वाली सपना चौधरी सोशल मिडिया पर भी एक्टिव रहती है। और अपने फेंस के लिए अक्सर तस्वीरे पोस्ट करती रहती है।
आपको बता दें कि सपना चौधरी ने पिछले साल जनवरी में हरियाणवी एक्टर और सिंगर वीर साहू से शादी की थी और अक्टूबर में वह मां बन गई थीं। हालांकि आज तक सपना चौधरी में ना तो अपने बेटे का चेहरा दिखाया और ना ही बेटे के नाम का खुलासा किया। सपना चौधरी ने अपने बेटे का पहला जन्मदिन 4 अक्टूबर को मनाया था। मगर जन्मदिन से ज्यादा सपना चौधरी के बेटे के नाम की चर्चा हो रही है।
जी हां, बिग बॉस फेम और हरियाणवी डांसर सपना चौधरी ने अपने बेटे के पहले जन्मदिन पर अपने बेटे के नाम का खुलासा कर दिया है परंतु उनके नाम शेयर करते हैं नाम का कनेक्शन करीना कपूर और सैफ अली खान से जोड़ा जा रहा है। दरअसल, कारण ही कुछ ऐसी है। सैफ अली खान के बेटे का नाम तैमूर रखने पर सभी लोग जमकर आलोचना कर रहे हैं। वहीं सपना चौधरी के बेटे का नाम जानकर सभी उनकी तारीफ कर रहे हैं। इंटरनेट पर सैफ अली खान और करीना कपूर को फिर से उनके बेटे के नाम की वजह से लोग जमकर ट्रोल कर रहे हैं।
आपको बता दें कि सपना चौधरी के बेटे की पहली तस्वीर देखने के लिए फैंस बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। इस तस्वीर को सपना चौधरी के परिवार ने ही शेयर किया था और यह सोशल मीडिया पर एकदम से वायरल हो गया था। सपना चौधरी और उनके पति वीर साहू ने बेटे का नाम “पोरस” बताया है। पहले जन्मदिन पर माता-पिता ने बेटे के नाम का खुलासा किया है, जिसके बाद से ही सपना चौधरी के बेटे के नाम को लेकर हर तरफ से अच्छी अच्छी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं।
अगर हम इतिहास में देखें तो पोरस और सिकंदर का युद्ध काफी प्रसिद्ध रहा है। पोरस या राजा पुरुषोत्तम, पोरवा के वंशज थे। इनका कार्यकाल 340 ईसा पूर्व से 315 ईसा पूर्व के बीच माना जाता है। वर्तमान पंजाब में झेलम से लेकर चेनाब नदी तक इनका विशाल साम्राज्य फैला था। इतिहासकारों के अनुसार, आसपास के अन्य राज्यों में पोरस को काफी शक्तिशाली शासक माना जाता था। सिकंदर जब विश्व विजय पर निकला तो उसका सामना पोरस से हुआ। सिकंदर के आगे कई बड़े शासकों ने समर्पण कर दिया था और वह बुरी तरह से हार गए थे। परंतु पोरस ने सिकंदर की विशाल सेना के आगे घुटने नहीं टेके थे।
326 ईसा पूर्व में दोनों के बीच जबरदस्त युद्ध हुआ था। सिकंदर की विशाल सेना को काफी नुकसान पहुंचा था। हालांकि पोरस हार गया और उन्हें सिकंदर के सामने पेश किया गया। सिकंदर ने पोरस से पूछा कि उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाए। तब उसने पूरे आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के साथ कहा कि वैसा ही, जैसा एक शासक दूसरे शासक के साथ करता है। इस जवाब ने सिकंदर को इतना प्रभावित किया कि उसने पोरस संग दोस्ताना रिश्ते स्थापित किए। ताकि भविष्य में वह उनकी सहायता प्राप्त कर पाए।
अब बात करते हैं आखिर सैफ अली खान और करीना कपूर इंटरनेट मीडिया पर क्यों ट्रोल हो रहे हैं। बता दें कि सपना चौधरी ने अपने बेटे का नाम पोरस रखा है, जिन्होंने भारतीय जमीन पर विदेशी ताकतों का डटकर सामना किया। वहीं सैफ अली खान और करीना कपूर ने अपने बेटे का नाम तैमूर रखा है, जिसने भारत पर आक्रमण करते हुए यहां के लोगों पर काफी जुल्म किए थे। इसी वजह से इंटरनेट पर लोग दोनों सेलिब्रिटीज के बेटों के नाम की तुलना कर रहे हैं, जिसकी वजह से सैफ अली खान और करीना कपूर को ट्रोल किया जा रहा है।
आपको बता दें कि सपना चौधरी और वीर साहू ने साल 2020 जनवरी के महीने में कुछ लोगों की मौजूदगी में शादी की थी और अक्टूबर 2020 में सपना चौधरी मां बनी थीं। इन दोनों की शादी की खबर किसी को भी पता नहीं थी परंतु जब एकदम से सपना चौधरी की मां बनने की खबर सामने आई तो दोनों की शादी की बात सार्वजनिक हुई थी। सपना चौधरी के मां बनने की जानकारी सबसे पहले युवा हर्ष छिकारा ने पोस्ट के माध्यम से दी थी। उन्होंने सपना चौधरी के मां बनने पर बधाई संदेश दिया था। उसके तुरंत बाद फैंस एक्टिव हो गए और सपना चौधरी को ट्रोल कर डाला, जिस बात से पति वीर साहू बेहद नाराज हुए थे।
द कपिल शर्मा शो में सिद्धू के लौटने की चर्चा पर अर्चना ने कहा कुछ ऐसा..
देश-विदेश: बॉलीवुड का राजनीति से भी कुछ ऐसा जुड़ाव रहा है कि अगर राजनीति में कुछ विवाद हो तो उसका असर मनोरंजन जगत में भी देखने को मिलता है। इन दिनों नवजोत सिंह सिद्धू के पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष पद के इस्तीफे के बाद से टीवी जगत में ऐसे ही हलचल मची हुई है। आपको बता दे कि सिद्धू ‘द कपिल शर्मा शो’ में जज की कुर्सी संभाल रहे थे लेकिन जब उन्हें पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनने का मौका मिला तो उन्होंने शो छोड़ दिया। इसके बाद अर्चना पूरन सिंह को शो में जज बनाया गया।
आपको बता दे कि कपिल शर्मा अक्सर मजाक करते हैं कि अर्चना ने यहां से एक मंत्री तक निकलवा दिया साथ ही ये भी कि अर्चना का पहला प्यार उनके पति परमीत नहीं बल्कि कुर्सी है। अब जैसे ही सिद्धू के इस्तीफे की खबर सामने आई सोशल मीडिया पर अर्चना को लेकर मीम बनने लगे कि उनकी नौकरी संकट में है। वहीं अर्चना ने एक इंटरव्यू में इस बारे में अपनी राय साफ कर दी है। साथ ही उन्होंने कह दिया कि अगर सिद्धू शो पर लौटते हैं तो वो क्या करेंगी।
इस पर अर्चना का कहना हैं कि ये एक ऐसा मजाक है जो सालों से होता आया है और सच तो ये है कि मुझे फर्क ही नहीं पड़ता है, ना ही मैं इसे बहुत गंभीरता से लेती हूं। अगर सिद्धू सच में फिर से शो में एंट्री लेते हैं और मेरी जगह आते हैं तो मेरे पास और भी दूसरे काम हैं जो मैं कर सकती हूं। मैं काफी सालों से कुछ और करना चाहती थी।
अर्चना पूरन सिंह लंबे समय से कॉमेडी शोज को जज करती आईं हैं। कॉमेडी सर्कस के दौरान अर्चना जज की कुर्सी पर विराजमान थी और उनके जबरदस्त हंसने का अंदाज फैंस को काफी पसंद आता है। ऐसे में जब सिद्धू शो से बाहर हुए तो कपिल के पास अर्चना से बेहतर कोई रिप्लेसमेंट ही नहीं था।
बता दें कि अर्चना ने खुलासा किया कि जब सिद्धू पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे तो मेरे घर पर लोगों ने खूब फूल भेजे थे। उन्होंने कहा कि लोगों ने फूलों के साथ संदेश भेजा था कि, अर्चना मैम मुबारक हो क्योंकि वो वहां पर बन गए हैं। दरअसल लोगों का ये कहना था कि अब सिद्धू पार्टी को लेकर अपना फर्ज पूरा करेंगे तो शो पर लौटेंगे नहीं। ऐसे में अर्चना की कुर्सी को कई नुकसान नहीं होगा।
आपको बता दे कि नवजोत सिंह सिद्धू ने पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। लेकिन उनका कहना है कि वे कांग्रेस में बने रहेंगे। सिद्धू ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लिखे खत में कहा कि वे कांग्रेस पार्टी के सदस्य बने रहेंगे। 23 जुलाई को उन्होंने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार ग्रहण किया था।
– अजेंद्र अजय
संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र को विशेष क्षेत्र के रूप में अधिसूचित (Special Notified Area)किया जाना आज समय की मांग है। समुदाय विशेष के धर्म स्थलों के निर्माण / स्थापना पर पूर्ण प्रतिबंध के साथ-साथ संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र में भूमि के क्रय-विक्रय के लिए विशेष प्राविधान आवश्यक है। भू-कानून के साथ-साथ भूमि कानूनों में सुधार, चकबंदी आदि जैसे विषयों पर भी ठोस उपाय किए जाने आवश्यक है। इस हेतु एक विशेषज्ञ समिति गठित की जाए जो इस संबंध में विभिन्न पहलुओं का अध्ययन कर नए कानून के प्रारूप को तैयार कर सके।
किसी भी प्रदेश के निर्माण के पीछे उसके इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, परंपरा, भाषा आदि के सरंक्षण की भावना छिपी होती है। अगर ये तत्व गायब हो जाएं तो वो प्रदेश आत्माविहीन माना जाएगा। लिहाजा, प्रदेश के भौतिक विकास के साथ-साथ इन सबके सरंक्षण की भी आवश्यकता है। वर्तमान में सोशल मीडिया में #उत्तराखंड_मांगे_भू_कानून व #uk_needs_landlaw हैशटैग के साथ युवाओं द्वारा एक व्यापक अभियान चलाया जा रहा है। इस अभियान के पीछे यही मूल भावना छिपी हुई है।
यह सुखद आश्चर्य की बात है कि उत्तराखंड में भू -कानून जैसे गंभीर विषय पर युवाओं द्वारा अभियान शुरू किया गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि उत्तराखंड की युवा पीढ़ी भू -कानून को लेकर संवेदनशील है और वो अपनी जड़ों को बचाने के लिए पूरी तरह से जागरूक हैं। युवाशक्ति देवभूमि की सभ्यता, संस्कृति, परंपरा व इतिहास के सरंक्षण के लिए चिंतित है। निःसंदेह युवाशक्ति की इस सक्रियता का परिणाम सुखद ही होगा।
युवाशक्ति का यह अभियान सराहनीय है। मैं स्वयं इस विषय को लेकर चिंतित रहा हूं। वर्ष 2018 में मेरे द्वारा तत्कालीन मुख्यमंत्री जी को इस विषय पर एक विस्तृत पत्र सौंपा गया था। पत्र में मेरे द्वारा देवभूमि उत्तराखंड के “वैशिष्ट्य” को कायम रखने और राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से पर्वतीय क्षेत्र को “विशेष अधिसूचित क्षेत्र” (Special Notified Area) करने की मांग उठाई गई थी। पत्र में पर्वतीय क्षेत्रों में भूमि इत्यादि के क्रय-विक्रय के लिए विशेष प्राविधान किए जाने और समुदाय विशेष के धर्म स्थलों के निर्माण पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी उठाई गई थी। इस हेतु मेरे द्वारा एक विशेषज्ञ समिति गठित करने का सुझाव दिया गया था, जो इस संबंध में विभिन्न पहलुओं का अध्ययन कर नए कानून के प्रारूप को तैयार कर सके।
यह सर्वविदित है देवभूमि उत्तराखंड आदिकाल से अध्यात्म की धारा को प्रवाहित करती आई है। हिंदू धर्म व संस्कृति की पोषक माने जाने वाली गंगा व यमुना के इस मायके में संतों-महात्माओं के तप करने की अनगिनत गाथाएं भरी पड़ी हैं। ऋषि-मुनियों ने ध्यान व तप कर देश दुनिया को यहां से सनातन धर्म की महत्ता का संदेश दिया है। आज भी यहां विभिन्न रूपों में मौजूद उनकी स्मृतियों से दुनिया प्रेरणा प्राप्त करती है। यहां कदम-कदम पर मठ-मंदिर अवस्थित हैं, जिनका तमाम पौराणिक व धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। इससे उनकी प्राचीनता, ऐतिहासिकता, आध्यात्मिकता व सांस्कृतिक महत्व का पता चलता है।
इन अनगिनत देवालयों के अलावा यहां श्री बद्रीनाथ, श्री केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री जैसे विश्व प्रसिद्ध तीर्थ स्थल भी स्थित हैं, जो सदियों से हिंदू धर्मावलंबियों की आस्था के केंद्र रहे हैं। इस क्षेत्र के आध्यात्मिक महत्व को देखते हुए पौराणिक समय से लेकर आधुनिक काल तक प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में साधक व श्रद्धालु हिमालय की कंदराओं का रुख करते आए हैं और यही कारण रहा कि यह क्षेत्र देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
बिगत कुछ वर्षों में पर्वतीय क्षेत्रों से रोजगार एवं अन्य कारणों से वहा के मूल निवासियों द्वारा व्यापक पैमाने पर पलायन किया गया। इसके विपरीत मैदानी क्षेत्रों से एक समुदाय विशेष ने विभिन्न प्रकार के व्यवसायों के माध्यम से वहां पर अपनी आबादी में भारी बढ़ोतरी की है। यही नहीं कई बार मीडिया एवं अन्य माध्यमों में बांग्लादेशी व रोहिग्याओं द्वारा घुसपैठ किए जाने की चर्चा भी सुनाई देती है। अन्तर्राष्ट्रीय सीमा से जुड़े होने के कारण ऐसी परिस्थितियां देश की सुरक्षा की दृष्टि से आशंकित करने वाली हैं। समुदाय विशेष द्वारा तमाम स्थानों पर गुपचुप ढंग से अपने धार्मिक स्थलों का निर्माण किए जाने की चर्चा भी समय-समय पर सुनाई देती हैं, इस कारण कई बार सांप्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा हो जाती है।
बिना पहचान व सत्यापन के रह रहे लोगों के कारण आज पर्वतीय क्षेत्रों में अपराधों में वृद्धि हुई है। विगत समय में सतपुली, घनसाली, अगस्त्यमुनि आदि स्थानों पर हुई घटनाएं आंखें खोलने वाली हैं। इन घटनाक्रमों में पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों में तमाम तरह की आशंकाएं घर करने के साथ ही भारी आक्रोश भी व्याप्त है। इसके साथ ही “लव जिहाद” जैसी घटनाएं भी समय-समय पर सुनाई देने लगी हैं।
सामरिक दृष्टि से उत्तराखंड का यह हिमालयी क्षेत्र बेहद संवेदनशील है। पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों की विशिष्ट भाषाई व सांस्कृतिक पहचान रही है। अत्यंत संवेदनशील सीमा के निकट लगातार बदल रहा सामाजिक ताना-बाना आसन खतरे का कारण बन सकता है। उपरोक्त तथ्य राज्य में असम जैसी परिस्थितियों का कारक भी बन सकते हैं।
आदिकाल से सनातन धर्म की आस्था और हिंदू मान बिंदुओं की प्रेरणा रहे भूभाग की पवित्रता व उसके आध्यात्मिक, सांस्कृतिक स्वरूप को बरकरार रखने के लिए संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र को विशेष क्षेत्र के रूप में अधिसूचित किया जाना आज समय की मांग है। समुदाय विशेष के धर्म स्थलों के निर्माण/स्थापना पर पूर्ण प्रतिबंध के साथ-साथ संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र में भूमि के क्रय-विक्रय के लिए विशेष प्राविधान आवश्यक है। भू-कानून के साथ-साथ भूमि कानूनों में सुधार, चकबंदी आदि जैसे विषयों पर भी ठोस उपाय किए जाने आवश्यक है। इस हेतु एक विशेषज्ञ समिति गठित की जाए जो इस संबंध में विभिन्न पहलुओं का अध्ययन कर नए कानून के प्रारूप को तैयार कर सके।
(लेखक राजनीतिक कार्यकर्ता व स्वतंत्र पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)
- अजेंद्र अजय
पीवी नरसिम्हा राव, एचडी देवगौड़ा, अशोक गहलोत, राबड़ी देवी, चौधरी बंशी लाल, गिरधर गोमांग समेत कई नेता प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री अथवा मंत्री रहते हुए एक वर्ष से कम समयावधि के बावजूद उप चुनाव लड़ चुके हैं।
पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया और मीडिया के एक हिस्से में यह चर्चा बड़ी तेजी से फैलाई जा रही है कि उत्तराखंड में संवैधानिक संकट की स्थिति पैदा होने वाली है। इस चर्चा में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के एक प्रावधान का उल्लेख करते हुए राज्य में संवैधानिक संकट की आशंका जताई जा रही है। आश्चर्य की बात तो यह है कि सोशल मीडिया से उठे इस मुद्दे को प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने ऐसा लपका मानो उसके हाथ कोई जादुई चिराग लग गया हो।
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह से लेकर कई अन्य वरिष्ठ नेताओं ने बाकायदा बयान जारी कर सितंबर माह में प्रदेश में संवैधानिक संकट की ज्योतिषीय घोषणा तक कर डाल दी है। कांग्रेस नेताओं ने बयानबाजी करने से पहले इस मुद्दे से जुड़े संवैधानिक प्रावधानों और कानून के तकनीकि पक्षों को जरा सा भी समझने की कोशिश नहीं की और अनाड़ी व नौसिखिये राजनीतिज्ञों की तरह हो-हल्ला मचाना शुरू कर दिया।
दरअसल, प्रकरण प्रदेश के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के उप चुनाव को लेकर है। भाजपा नेतृत्व ने विगत 11 मार्च को गढ़वाल लोकसभा क्षेत्र से सांसद तीरथ सिंह रावत को प्रदेश के मुख्यमंत्री की कमान सौंपी थी। संवैधानिक प्रावधानों के तहत उन्हें मुख्यमंत्री के पद पर नियुक्ति से छः माह के भीतर अर्थात आगामी 10 सितंबर तक उत्तराखंड विधान सभा का सदस्य निर्वाचित होना है।
कांग्रेस नेता लोक प्रतिनिधित्व अधिनियमम -1951 की धारा- 151 (क) को मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के लिए उप चुनाव लड़ने में बाधक बता रहे हैं। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के भाग- 9 में उप निर्वाचन शीषर्क में संसद के दोनों सदनों और राज्यों के विधान मंडलों में आकस्मिक रिक्तियों के चुनावों को लेकर उपबंध तय किये गए हैं। भाग -9 की धारा -151 (क) में किसी कारण से रिक्त हुई सीट पर छः माह की अवधि के भीतर चुनाव करने का प्रावधान है। यह धारा कहती है कि –
151 क. धारा 147, धारा 149, धारा 150 और धारा 151 में निर्दिष्ट रिक्तियों को भरने के लिए समय की परिसीमा – धारा 147, धारा 149, धारा 150 और धारा 151 में किसी बात के होते हुए भी, उक्त धाराओं में से किसी में निर्दिष्ट किसी रिक्ति को भरने के लिए उप निर्वाचन, रिक्त होने की तारीख से छः मास की अवधि के भीतर कराया जाएगा :
परन्तु इस धारा की कोई बात उस दशा में लागू नहीं होगी, जिसमें –
(क) किसी रिक्ति से संबंधित सदस्य की पदावधि का शेष भाग एक वर्ष से कम है ; या
(ख) निर्वाचन आयोग, केंद्र सरकार से परामर्श करके, यह प्रमाणित करता है कि उक्त अवधि के भीतर ऐसा उप निर्वाचन करना कठिन है।
कांग्रेस द्वारा धारा-151क (क) को आधार बना कर तिल का ताड़ बनाया जा रहा है। कांग्रेस का कहना है कि चूंकि उत्तराखंड विधान सभा के आम चुनावों के लिए एक वर्ष से भी कम का समय रह गया है। लिहाजा, अब उप चुनाव नहीं हो सकते हैं और मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत उप चुनाव नहीं लड़ सकते।
यह सही है कि धारा-151क (क) रिक्ति की पदावधि का शेष भाग एक वर्ष से कम होने पर उप चुनाव की अनुमति नहीं देता है। मगर कोई सामान्य समझ वाला व्यक्ति भी धारा-151क (ख) को देख कर कह सकता है की यह उप चुनाव कराने की पूरी गुंजाइश रखती है। यह सोचने वाली बात है कि यदि गुंजाइश नहीं होती तो 151क (क) के बाद अधिनियम में “या” शब्द जोड़ने का क्या औचित्य था ?
“या” शब्द जोड़ने के बाद 151क (ख) में कहा गया है कि निर्वाचन आयोग, केंद्र सरकार से परामर्श करके, यह प्रमाणित करता है कि उक्त अवधि के भीतर ऐसा उप निर्वाचन करना कठिन है। यानी अगर उप चुनाव नहीं कराने होंगे तो चुनाव आयोग केंद्र सरकार से चर्चा करके बताएगा कि चुनाव कराने में क्या कठिनाई है ?
स्पष्ट है कि किसी विशेष प्रकार की परिस्थितियों के मद्देनजर ही “या” शब्द जोड़ा गया होगा और अधिनियम बनाने वालों ने भविष्य में किसी संभावित समस्या को देखते हुए यह प्रावधान किया होगा। कोई नियम अथवा अधिनियम संवैधानिक संकट पैदा ना हो, इस उद्देश्य से बनाया जाता है, ना कि संकट पैदा करने के लिए। यहां यह स्पष्ट है कि धारा-151 चुनाव आयोग को उप चुनाव नहीं कराने को लेकर किसी प्रकार से बाध्य नहीं करता है। आयोग उप चुनाव करा सकता है।
अब बारी आती है संविधान की। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-75(5) बिना किसी सदन की सदस्यता के छः माह तक किसी भी व्यक्ति को केंद्र सरकार में मंत्री अथवा प्रधानमंत्री और अनुच्छेद-164 (4) किसी भी व्यक्ति को प्रदेश का मुख्यमंत्री अथवा मंत्री नियुक्त होने की अनुमति देता है। अर्थात अगर कोई व्यक्ति संसद के किसी भी सदन का सदस्य निर्वाचित हुए बगैर प्रधानमंत्री अथवा केंद्रीय मंत्री बनता है तो, उसे छः माह के भीतर संसद के किसी भी सदन का सदस्य चुना जाना आवश्यक है। इसी प्रकार की बाध्यता मुख्यमंत्री व राज्य के मंत्रियों के लिए भी है। उन्हें विधान सभा अथवा जिन राज्यों में विधान परिषद् है, में से किसी एक सदन का सदस्य निर्वाचित होना आवश्यक है।
यानी बिना किसी सदन के सदस्य हुए बगैर छः माह तक किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री, मंत्री या देश का प्रधानमंत्री बनने का किसी भी भारतीय नागरिक को भारतीय संविधान पूरा अधिकार देता है। अब सवाल यह है की क्या किसी मुख्यमंत्री अथवा मंत्री को संविधान प्रदत्त इस अधिकार से कैसे आसानी से वंचित किया जा सकता है ? चुनाव आयोग भी संविधान प्रदत्त अधिकारों को सरंक्षण देते हुए ही अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करता है। तमाम ऐसे उदाहरण हैं जब चुनाव आयोग ने आकस्मिकताओं को ध्यान में रख कर एक वर्ष अथवा छह माह की अवधि से भी कम समय में उप चुनाव कराएं हैं।
चुनाव मामलों की जानकारी देने वाली इलेक्शन लॉज़, प्रैक्टिस एंड प्रोसीजर पुस्तक के अनुसार चुनाव आयोग ने, सुसंगत नीति के मामले में, हमेशा मंत्री के रूप में नियुक्त व्यक्ति को, जो उसकी ऐसी नियुक्ति के समय उपयुक्त विधायिका का सदस्य नहीं है, को संवैधानिक आवश्यकता को पूरा करने का अवसर प्रदान किया है। आयोग ने संबंधित व्यक्ति द्वारा पद ग्रहण करने के छह माह के भीतर उप-चुनाव कराकर मंत्री के रूप में अपनी नियुक्ति के संबंध में मतदाताओं को अपना निर्णय देने का अवसर प्रदान किया है।
पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव, एच.डी. देवेगौड़ा समेत वर्ष 1999 में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, वर्ष 1997 में बिहार की मुख्यमंत्री राबड़ी देवी, वर्ष 1993 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री विजय भास्कर रेड्डी एक वर्ष से कम अवधि के दौरान चुनाव लड़ चुके हैं।
वर्ष 1999 में उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग ने प्रदेश की अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित लक्ष्मीपुर विधानसभा क्षेत्र से उप चुनाव लड़ा। प्रदेश की लक्ष्मीपुर समेत कुछ अन्य विधान सभा सीटें खाली पड़ीं थीं। राज्य विधानसभा का शेष कार्यकाल उस रिक्ति की तारीख से एक वर्ष से कम के लिए था। मगर चुनाव आयोग ने मुख्यमंत्री की इच्छा को देखते हुए केवल लक्ष्मीपुर विधानसभा क्षेत्र में ही उप चुनाव आयोजित किया।
उड़ीसा की तरह का मामला वर्ष 1987 में हरियाणा में भी सामने आया था। यहां भी उड़ीसा की तरह चौधरी बंशी लाल तोशम विधान सभा क्षेत्र से उप चुनाव लड़े, जबकि यहां भी विधानसभा का कार्यकाल एक वर्ष से कम था और अन्य कुछ सीटें भी रिक्त थीं। मगर चुनाव आयोग ने चौधरी बंशी लाल को उनके संवैधानिक अधिकार की पूर्ति एक ही सीट पर उप चुनाव कराया। इस मामले को किसी ने हाई कोर्ट में चुनौती दी थी। मगर कोर्ट ने कोई हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी चुनाव आयोग के उस निर्णय में हस्तक्षेप नहीं किया।
उत्तराखंड के सन्दर्भ में विपक्षी दलों द्वारा विभिन्न न्यायालयों के जिन भी मामलों का उल्लेख किया जा रहा है, वे यहां कतई प्रासंगिक नहीं हैं। उन प्रकरणों की प्रकृति अलग तरह की थी। उत्तराखंड से कुछ अंश मात्र मिलते-जुलते मामलों की चर्चा की जाए तो देखा जा सकता है की सभी न्यायालयों ने सकारात्मक निर्णय ही दिए हैं। न्यायालयों ने चुनाव आयोग के आदेशों में हस्तक्षेप नहीं किया है।
कर्नाटक हाईकोर्ट ने एपी रंगनाथ बनाम मुख्य चुनाव आयोग, 2018 केस में उस याचिका को ख़ारिज कर दिया था, जिसमें लोकसभा सीट पर उप चुनाव के लिए एक वर्ष से थोड़ी ही अधिक अवधि थी। इसमें कोर्ट ने कहा की किसी क्षेत्र को एक वर्ष से अधिक समय के लिए बिना जनप्रतिनिधि के खाली नहीं रखा जा सकता। इस निर्णय का सबसे महत्वपूर्ण पहलु यह था की कोर्ट ने चुनाव आयोग को कहा कि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा-151क की व्याख्या के संबंध में कोई अस्पष्टता उत्पन्न होती है, तो चुनाव सुधार समिति, 1990 की रिपोर्ट का सहारा लिया जाना चाहिए।
ऐसे ही एक मिलते-जुलते मामले प्रमोद लक्ष्मण गुड़धे बनाम भारत निर्वाचन आयोग व अन्य में सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की, कि ऐसी व्याख्या लोकतंत्र के पवित्र सिद्धांत के अनुरूप है कि किसी निर्वाचन क्षेत्र को बिना प्रतिनिधित्व के नहीं रखना है। उप चुनाव पर होने वाले खर्च के संबंध में व्यक्त की गई चिंता को आधार नहीं माना जा सकता। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोकतंत्र को निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा खुद को बनाए रखना होता है।
- सुयश त्यागी
स्वतंत्र पत्रकार व लेखक
सोशल मीडिया का उदय कुछ लोगों के लिए सिर्फ मनोरंजन का एक साधन हो सकता है, पर जब हम वैश्विक पटल पर इसका प्रभाव देखेंगे तो किसी भी लोकतांत्रिक देश के संविधान में दी हुई अभिव्यक्ति की आजादी की कल्पना के वास्तविक स्वरूप इसके उदय के बाद ही बल मिला है। आज हर व्यक्ति के पास समाज के समक्ष अपनी बात रखने की एक ताकत है, एक आवाज है और ना जाने कब उसकी आवाज, एक सामूहिक आवाज का रूप बन जाये, उसकी कल्पना करना भी मुश्किल है।
देश में कई प्रतिभाशाली लोगों को सोशल मीडिया के माध्यम एक ऐसा मंच मिला है, जिसके चलते उनमें छुपी रचनात्मकता व सृजनशीलता का समाज से परिचय हुआ है। आज समाज में ऐसे ही होनहार कई सोशल मीडिया सेलेब्स ने अपना एक खास स्थान बना रखा है। आज एक वर्ग ऐसा भी है, जो ना ही कोई न्यूज़ देखता और ना ही कोई अखबार पढ़ता है पर इन सोशल मीडिया की जानी-मानी हस्तियों से अनेक प्लेटफार्म पर देश भर की गतिविधियों की जानकारी प्राप्त कर लेता है। यहां तक देश के कई पीड़ितों को सोशल मीडिया पर आंदोलन खड़े करने से ही परिणाम मिले हैं।
कभी एक दौर हुआ करता था, जब टी.वी और अखबार पर आने वाली सभी खबरों को सच माना जाता था। किसी भी व्यक्ति के पास उस पर विश्वास करने के अलावा कोई विकल्प ना था। उसकी प्रमाणिकता जांचने का कोई माध्यम ही ना था। पर आज हर व्यक्ति के पास सही-गलत तय करने की एक ताकत है और यही निष्पक्ष ताकत कभी-कभी देश में बड़े सकारात्मक बदलाव लेकर आती है।
हाल हीं में सोशल मीडिया पर एक खबर चली। भारत के लोगों को वैक्सीन उपलब्ध नही हो रही और सरकार विदेशों में निर्यात कर रही है। वास्तव में आधा सत्य कभी-कभी झूठ से भी अधिक घातक होता है और इस वाकये पर कई पोस्ट आपने जरूर देखी होगी, किसी ना किसी व्यक्ति ने अज्ञानवश या अपने तय एजेंडा तहत ये पोस्ट की ही होगी, जो आपके फ़ेसबुक, ट्विटर या इंस्टाग्राम से होकर एक ना एक बार जरूर गुजरी होगी। हम क्यों खबरों को ऊपरी सतह पर ही परखकर सत्य मान लेते है, आखिर गूगल पर फैक्ट चेक करने में समय ही कितना लगता है ? हम एकाउंट से गलत खबर चला देंगे पर थोड़ा समय निकालकर उसकी प्रमाणिकता नही देखेंगे।
वैक्सीन के विषय में बात करें, तो अभी हाल ही में भारत के विदेश मंत्री एस.जयशंकर ने एक साक्षात्कार में बताया वैश्विक स्तर पर देशों के बीच अनेक करार होते है और देशों के बीच का व्यापार वैश्विक बाजार की शर्तों पर होता है ना कि घरेलू शर्तों। वैक्सीन बनाने के लिए लगने वाला कच्चा माल कई देशों से लिया जा रहा, उसके तहत उत्पादन के बाद उन्हें कुछ वैक्सीन देने का करार हुआ था, जिसके तहत ये निर्यात हुए है। अगर हम करार तोड़ेंगे तो विदेशों से आने वाला कच्चा माल रुक जाएगा और वैक्सीन के उत्पादन के लिए मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।
पहले जब वैक्सीन लगवाने लोग आ नही रहे थे। उत्पादन लगातार बढ़ रहा था तब एक-दो देशों को वैक्सीन दी भी गई। पर जब से भारत के लोगों में वैक्सीन लगवाने के लिए जागरूकता आई है, लगभग पूरा उत्पादन भारत में ही लगाया जा रहा है। ऐसी भ्रामक खबरे चलाने वाला यह वही वर्ग है जो कुछ समय पूर्व देश में वैक्सीन के कारगर ना होने का आरोप लगा रहा था। जगह-जगह प्रेस कॉन्फ्रेंस कर जनता से वैक्सीन ना लगवाने का आग्रह कर रहा था और आज फिर करार के तहत हो रहे निर्यात पर प्रश्न उठाकर भारत की छवि धूमिल कर रहा है। यह वही वर्ग है जिसने समाजवाद और साम्यवाद का चोला ओढ़कर उद्योगों और मशीनों का विरोध कर सालों तक भारत को सुविधा और तकनीक विहीन रखा और आज ऑक्सीजन की आपूर्ति कर रहे उद्योगों पर भी मनमानी का दोषरोपण कर राजनीति का निष्कृष्ट रूप प्रस्तुत कर रहा है।
भारत की जनता को फिजूल के मुद्दों पर उलझाकर देश में एक नकारात्मक वातावरण बनाना ही इनका एक मात्र लक्ष्य है। ये वर्ग आपको अपने वर्षों तक रहे कार्यकाल पर सवाल नही करने देगा। वह यह नही बताएगा आजादी के इतने वर्ष बाद भी स्वास्थ्य और शिक्षा की बात करने वाले दल ने कितने एम्स और शैक्षिक संस्थान खोले। वह यह भी नही बताएगा कि अफजल की फांसी से लेकर बाटला हाउस एनकाउन्टर पर आंसू बहाने की जगह अगर समय रहते देश की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर ही गंभीरता से ध्यान दिया जाता तो शायद आज ये हालात ना होते। वर्तमान में महाराष्ट्र में सौ करोड़ की मासिक वसूली का प्रसंग हो या फिर 2014 के पहले हो रहे लाखों करोड़ों के घोटालों का, आपको ये वर्ग बस जातीय ध्रुवीकरण व सामाजिक तुष्टिकरण का ही गलत स्वरूप दिखाता रहेगा और देश व समाज को विभिन्न वर्गों में बांटने का प्रयास करता रहेगा।
हाल ही में एक जाने माने पत्रकार ने अपने सोशल मीडिया एकाउंट से एक टेंट के नीचे लेटे कुछ मरीजों की फोटो साझा की, जिन्हें बॉटल व ऑक्सीजन लगी हुई थी। उस पर हेडिंग दी गुजरात का स्वास्थ्य मॉडल। उनकी उसी पोस्ट पर एक दूसरे पत्रकार ने पूछा आखिर गुजरात के किस जिले की खबर है? उन्होंने जवाब दिया – जिला तापी गुजरात। कुछ देर बाद दूसरे पत्रकार ने उस चित्र से जुड़ा एक वीडियो शेयर किया और उस पर लिखा – ये मेरे द्वारा की हुई रिपोर्टिंग है और ये तस्वीर नवापूर महाराष्ट्र से है, ना कि गुजरात से। अपनी किरकिरी होते देख मजबूरन पत्रकार महोदय को अपनी पोस्ट हटानी पड़ी।
ऐसे एजेंडा आधारित प्रसंगों को देख आज सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत के साथ उसके दुरुपयोग की भी अधिक चिंता है। देश के प्रत्येक नागरिक का जागरूक व टेक्नोलॉजी से यूजर फ्रेंडली होना आज डिजिटल दुनिया के युग में एक बड़ी जिम्मेदारी है। इस बढ़ती जिम्मेदारी के साथ हमारा देश आज एक महामारी से भी गुजर रहा है। ऐसे में जब व्यक्ति घरों में बंद हो, करने को कोई काम ना हो, हर तरफ दहशत का मौहाल हो, तो जाहिर सी बात है, यही उसका मनोरंजन का अंतिम व आसान विकल्प होगा। ऐसे में फेक न्यूज़ की मंडियां भी अपने जोरों पर है। कब वहां से कोई फेक न्यूज़ पढ़कर वो अपने परिचितों को भेज दे, उसे कुछ खबर ही नही होती।
आज देश की अधिकांश जनता इन भ्रामक खबरों के चलते कोरोना एक्सपर्ट भी बन बैठी है, जो कभी-कभी अपने घर पर ही किसी कोरोना से पीड़ित मरीज का व्हाट्सएप्प के माध्यम से प्राप्त जानकारी के आधार पर ही उपचार शुरू कर देती हैं। इन नादानियों से आज हमें स्वयं भी बचना है व समाज को भी बचाना है। सभी राज्य व केंद्र की सरकार व अनेक सामाजिक संस्थाओं द्वारा विशषज्ञों के नंबर लगातार जारी किये जा रहे हैं। बिना सोचे समझे और डॉक्टर के परामर्श के बिना हमें किसी भी प्रकार के प्रयोग से बचना चाहिए और शासन द्वारा जारी किये गए निर्देशों का ही पूर्ण रूप से पालन कर देश व समाज की भलाई में अपना योगदान देना चाहिए।
बीते एक वर्ष में कोरोना महामारी ने सभी को प्रभावित किया है। इस दौरान सामाजिक, आर्थिक और मानसिक रूप से देश के प्रत्येक वर्ग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। हालांकि, समाज का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो लोगों का सहयोग करने के साथ-साथ समाज में सकारात्मकता फैलाने का कार्य भी कर रहा है। लेकिन, जैसे कि हर समाज की सच्चाई है… कुछ ऐसे समूह भी हैं जो विपरीत परिस्थितियों में भी सिर्फ नकारात्मकता परोसते हैं और वर्षों से क्रांतिकारी होने का ढोंग करने वाले लोग अब अपने-अपने बिल में छिपे हुए हैं।
अफजल गुरु की बरसी मनाने और भारत के टुकड़े करने के नारे लगाने के आरोप में देशद्रोह का मुकदमा झेल रहे कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कन्हैया कुमार गायब हैं। उनकी ओर से कोरोना के खिलाफ जंग में कोई क्रांतिकारी पहल नहीं दिख रही।
वामपंथी मीडिया द्वारा क्रांतिकारी के रूप में प्रस्तुत किए गए कन्हैया कुमार जब देश में विपत्ति आई तो अपने बिल में जाकर छिप गए हैं। सिर्फ इतना ही नहीं समय-समय पर मुख्यतः केंद्र की सरकार पर तंज कसने वाले कन्हैया कुमार खुद आगे बढ़कर किसी की भी मदद करते हुए नजर नहीं आ रहे।
एक अन्य़ कथित क्रांतिकारी हार्दिक पटेल, जिसके माध्यम से गुजरात में सरकार गिराने के लिए पाटीदार आंदोलन करवाया गया था, वह आज गुजरात कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष हैं। हार्दिक पटेल वर्तमान समय में कहीं पर भी कोरोना वायरस महामारी से लोगों को बचाने के लिए सहयोग का पहल करते हुए दिखाई नहीं दे रहे हैं। हां, सोशल मीडिया पर अवश्य एक्टिव हैं।
अक्सर अपने विवादित ट्वीट के कारण चर्चाओं में रहने वाली स्वरा भास्कर भी वर्तमान संकट के समय गायब हैं। सरकार को तो कोस रही हैं, लेकिन अपने स्तर पर समाज या कुछ लोगों की सहायता को कोई कार्य किया हो तो हमें भी बताएं। जिन्हें सरकार के खिलाफ भड़का रही थीं, या जिनके साथ आंदोलन कर रही थीं, उनकी ही सहायता कर रही हों तो भी बताएं ?
गुजरात से विधायक और एक बड़े क्रांतिकारी जिग्नेश मेवाणी भी जमीन पर कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं। इसके विपरीत वे ट्विटर पर क्रांति करते दिखाई दे रहे हैं और ट्विटर के माध्यम से फेक खबरें परोस रहे हैं। मंगलवार को उन्होंने एक ट्वीट किया – ”मोदी जी के जन्मस्थल वडनगर में ऑक्सीजन प्लांट के फेल हो जाने के चलते 8 मरीजों की मौत हो गई। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना दोबारा न हो उसे सुनिश्चित करने के बजाय या दोषियों के खिलाफ जांच के आदेश के बजाय रुपाणी सरकार लगी है हकीकत छुपाने में। क्या हो रहा है गुजरात में ? कहां है मोदी जी?”
मेवाणी के ट्वीट के बाद गुजरात के आरोग्य कमिश्नर को आधिकारिक बयान जारी करना पड़ा और स्पष्ट करना पड़ा कि वडनगर के अस्पताल में ऑक्सीजन प्लांट फेल होने की बात पूरी तरह गलत है। वडनगर में इस तरह का कोई भी हादसा नहीं हुआ है, यहां तक कि यहां मरीज की मौत होने की बात भी बेबुनियाद है।
साफ है कि इस तरह की गलत बात सोशल मीडिया में कहे जाने पर लोगों में डर का माहौल पैदा होता है। मगर मेवाणी जैसे कथित क्रांतिकारियों को इससे कोई लेना देना नहीं है। उन्हें तो अपनी क्षुद्र राजनीति से मतलब है।
इनके अलावा भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर आजाद रावण व अन्य अनेक कथित क्रांतिकारी-समाजसेवी संकट के समय नजर नहीं आ रहे। जो नजर आ रहे हैं वो अपनी हरकत से बाज नहीं आ रहे और समाज में नकारात्मकता फैलाने का ही काम कर रहे हैं। वामपंथी मीडिया और पत्रकार समूह जिन्हें आने वाले समय का नेतृत्वकर्ता बताते हुए नहीं थकता, जब देश पर विपत्ति आई है तो ये नेतृत्वकर्ता क्रांतिकारी नदारद हैं।
डॉ. नीलम महेंद्र
वरिष्ठ स्तंभकार
आज सोशल मीडिया अपनी बात मजबूती के साथ रखने का एक शक्तिशाली माध्यम मात्र नहीं रह गया है, बल्कि यह एक शक्तिशाली हथियार का रूप भी ले चुका है। देश में चलने वाला किसान आंदोलन इस बात का सशक्त प्रमाण है। दरअसल, सिंघु बॉर्डर और गाजीपुर बॉर्डर पर पिछले दो माह से भी अधिक समय से चल रहा किसान आंदोलन भले ही 26 जनवरी के बाद से दिल्ली की सीमाओं में प्रवेश नहीं कर पा रहा हो, लेकिन ट्विटर पर अपने प्रवेश के साथ ही उसने अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को पार कर लिया। वैसे होना तो यह चाहिए था कि बीतते समय और इस आंदोलन को लगातार बढ़ते हुए अंतरराष्ट्रीय मंचों की उपलब्धता के साथ आंदोलनरत किसानों के प्रति देश भर में सहानुभूति की लहर उठती और देश का आम जन सरकार के खिलाफ खड़ा हो जाता। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बल्कि इसी साल की जनवरी में एक अमेरिकी डाटा फर्म की सर्वे रिपोर्ट सामने आई, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी को भारत ही नहीं विश्व का सबसे लोकप्रिय और स्वीकार्य राजनेता माना गया। इस सर्वे में अमरीका, फ्रांस, ब्राज़ील, जापान सहित दुनिया के 13 लोकतांत्रिक देशों को शामिल किया गया था। जिसमें 75 फीसदी लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व पर भरोसा जताया है।
लेकिन यहां प्रश्न प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता का नहीं है, बल्कि किसान आंदोलन की विश्वसनीयता और देश के आम जनमानस के ह्रदय में उसके प्रति सहानुभूति का है। क्योंकि देखा जाए तो 26 जनवरी की हिंसा के बाद से किसान आंदोलन ने अपनी प्रासंगिकता ही खो दी थी और किसान नेताओं सहित इस पूरे आंदोलन पर ही प्रश्नचिन्ह लगने शुरू हो गए थे। क्योंकि जब 26 जनवरी को देश ने दिल्ली पुलिस के जवानों पर आंदोलनकारियों का हिंसक आक्रमण देखा तो इस आंदोलन ने देश की सहानुभूति भी खो दी। दरअसल, लोग इस बात को बहुत अच्छे से समझते हैं कि देश का किसान जो इस देश की मिट्टी को अपने पसीने से सींचता है वो देश के उस जवान पर कभी प्रहार नहीं कर सकता जो देश की आन को अपने खून से सींचता है। शायद यही कारण है कि जो सहानुभूति इस आंदोलन के लिए “आंदोलनजीवी” नहीं खोज पाए, उस सहानुभूति को उनके द्वारा अब विदेश से प्रायोजित करवाने के प्रयास किए जा रहे हैं। जिसमें ट्विटर जैसी माइक्रोब्लॉगिंग साइट और अन्य विदेशी मंचों का सहारा लिया जाता है। आइए कुछ घटनाक्रमों पर नज़र डालते हैं –
कुछ तथाकथित अंतरराष्ट्रीय सेलेब्रिटीज़ द्वारा किसान आंदोलन के समर्थन में उनके द्वारा किए गए ट्वीट के बदले में उन्हें 2.5 मिलियन डॉलर दिए जाने की खबरें सामने आती हैं। इन तथाकथित सेलेब्रिटीज़ में एक 18 साल की लड़की है और दो ऐसी महिलाएं हैं जो स्वयं अपने बारे में भी एक महिला की भौतिक देह से ऊपर उठ कर नहीं सोच पातीं। जब ऐसी महिलाएं किसान आंदोलन पर ट्वीट करके चिंता व्यक्त करती हैं तो कहने को कम और समझने के लिए ज्यादा हो जाता है। इतना ही नहीं कथित पर्यावरणविद ग्रेटा थनबर्ग द्वारा पहले किसान आंदोलन से संबंधित टूलकिट को शेयर किया जाता है और फिर हटा लिया जाता है जो अपने आप में कई गंभीर सवालों को खड़ा कर देता है।
किसान आंदोलन को लेकर ट्विटर की भूमिका संदेह के घेरे। भ्रामक एवं हिंसा भड़काने वाली जानकारी फैलाने वालों के खिलाफ सरकार के कहने के बाद भी ट्विटर उन पर आसानी से कार्रवाई को राजी नहीं हुआ। हाल ही में अमेरिका की लोकप्रिय सुपर बाउल लीग के दौरान भी किसान आंदोलन से जुड़ा विज्ञापन चलाया जाता है, जिसमें इसे ”इतिहास का सबसे बड़ा प्रदर्शन” बताया जाता है। इस बीच लेबर पार्टी के सांसद तनमजीत सिंह धेसी के नेतृत्व में 40 ब्रिटिश सांसदों द्वारा किसान आंदोलन के मुद्दे को ब्रिटेन की संसद में उठाकर भारत पर दबाव बनाने का प्रयास किया जाता है। लेकिन ब्रिटेन की सरकार इसे भारत का अंदरूनी मामला बताकर खारिज कर देती है।
जाहिर है इन तथ्यों से देश में फॉरेन डिस्ट्रक्टिव आइडियोलॉजी का प्रवेश तथा आन्दोलनजीवियों के हस्तक्षेप से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन किसान आंदोलन के पीछे चल रही इस राजनीति के बीच जब देश के कृषि मंत्री देश की संसद में यह खुलासा करते हैं कि पंजाब में जो कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट बना है, उसमें करार तोड़ने पर किसान पर न्यूनतम पांच हजार रुपये जुर्माना जिसे पांच लाख तक बढ़ाया जा सकता है, इसका प्रावधान है। जबकि केंद्र द्वारा लागू कृषि कानूनों में किसान को सजा का प्रावधान नहीं है तो कांग्रेस का दोहरा चरित्र देश के सामने रखते हैं। क्योंकि पंजाब में फार्मिंग कॉन्ट्रैक्ट का यह कानून 2013 में बादल सरकार ने पारित किया था।
हैरत की बात है कि पंजाब की वर्तमान कांग्रेस सरकार ने केंद्र के कृषि क़ानूनों के विरोध में तो प्रस्ताव पारित कर दिया। लेकिन पहले से जो फार्मिंग कॉन्ट्रैक्ट कानून पंजाब में लागू था, जिसमें किसानों के लिए भी सजा का प्रावधान था उसे रद्द करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। इस प्रकार मूलभूत तथ्यों को दरकिनार करते हुए जब किसानों के हितों के नाम विपक्ष द्वारा की जाने वाली राजनीति देश विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देती हैं तो तात्कालिक लाभ तो दूर की बात है, इस प्रकार के कदम यह बताते हैं कि विपक्ष में दूरदर्शी सोच का भी अभाव है। काश कि वो यह समझ पाते कि इस प्रकार के आचरण से कहीं उनकी भावी स्वीकार्यता भी समाप्त न हो जाए।
लगभग 9 साल पहले राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में दरिंदगी व गैंगरेप की शिकार हुई एक गुमनाम निर्भया के परिजनों को न्याय दिलाने के लिए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत पहल करेंगे। मुख्यमंत्री ने निर्भया के माता-पिता को आश्वासन दिया है कि प्रदेश सरकार उनकी हर प्रकार से सहायता करेगी। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र की इस पहल के बाद यह प्रकरण चर्चा में आ गया है।
बुधवार को निर्भया के माता-पिता ने देहरादून में मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र से भेंट की। निर्भया के माता-पिता से बातचीत करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि बेटी के साथ जो हुआ, वह दिल दहलाने वाला था। मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया कि कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए उनका पूरा सहयोग किया जाएगा। राज्य सरकार पीड़िता के परिवार के साथ है और हर प्रकार की मदद के लिए तैयार है।
मुख्यमंत्री ने उन लोगों का भी धन्यवाद किया जिन्होंने सोशल मीडिया के माध्यम से इस आवाज को उठाया है। उन्होंने अपील की कि जिस तरह से राज्यवासियों ने पहले भी दिल्ली में न्याय के लिए आवाज उठाने में पीड़ित परिवार का साथ दिया, अब भी इस आवाज को उठाने में पूरा सहयोग करेंगे। उल्लेखनीय है कि, निर्भया को न्याय दिलाने के लिए मीडिया पर काफी समय से #JusticeForKiranNegi अभियान चल रहा है।
क्या था प्रकरण
दिल्ली के बहुचर्चित निर्भया कांड से लगभग दस माह पहले एक और लड़की किरण नेगी दरिंदों का शिकार बनी थी। मूल रूप से उत्तराखंड के पौड़ी (गढ़वाल) की निवासी किरण नेगी अपने परिजनों के साथ दिल्ली के छावला में रहती थी। वह गुरुग्राम में एक कंपनी में नौकरी करती थी। उसकी आंखों में अपने भविष्य को लेकर तमाम स्वप्न थे।
9 फरवरी, 2012 की एक मनहूस शाम किरण अपनी अन्य सहेलियों के साथ नौकरी से वापस घर लौट रही थी। रास्ते में तीन दरिंदों ने अंधेरे का फायदा उठा कर लड़कियों के साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी। किरण की सहेलियां किसी तरह से जान बचाकर वहां से भाग गई और किरण को दरिंदों ने एक कार में अगवा कर लिया। चार दिन बाद उसकी लाश हरियाणा से बरामद हुई।
दरिंदों ने किरण के साथ जो बर्ताव किया, उसे सुन कर किसी की भी रूह कांप जाएगी। दरिंदे उसे एक सुनसान जगह ले गए। वहां उन्होंने उससे बारी-बारी से बलात्कार किया। फिर हैवानियत की सारी हदों को पार करते हुए किरण को मौत के घाट उतार दिया। लड़की के सिर पर गाड़ी के जैक व पाने से लगातार प्रहार किए गए। लड़की की पहचान छिपाने के लिए उसके शरीर को दागा गया और बियर की बोतल तोड़ कर उसके शरीर पर तब तक वार किया गया, जब तक उन्होंने यह सुनिश्चित नहीं कर लिया की लड़की की मौत हो गई।
पुलिस ने कार व मोबाइल लोकेशन के आधार पर तीनों दरिंदों राहुल, रवि व विनोद को गिरफ्तार कर लिया। 19 फरवरी 2014 को द्वारका की एक अदालत ने तीनों दरिंदों को फांसी की सजा सुनाई। अदालत में अभियोजन पक्ष ने इस मामले को ‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’ बताते हुए दोषियों को फांसी की सजा देने की मांग करते हुए कहा था कि ऐसे लोगों को जिंदा रहने दिया गया तो समाज में गलत सन्देश जाएगा। दिल्ली हाई कोर्ट ने भी दोषियों की सजा को बरकरार रखा था। बाद में यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट में यह प्रकरण विचाराधीन है।
किरण के माता-पिता अपराधियों को शीघ्र मृत्यु दंड दिलाने के लिए लगातार संघर्षरत हैं। किरण के माता-पिता को न्याय दिलाने के लिए दिल्ली स्थित विभिन्न प्रवासी उत्तराखंडियों के संगठन भी सक्रिय हैं। गत वर्ष दिल्ली-एनसीआर में रह रहे प्रवासी उत्तराखंडियों ने प्रकरण को लेकर सर्वोच्च न्यायालय संग्रहालय से इंडिया गेट तक कैंडल मार्च भी निकाला था। सोशल मीडिया पर भी इसको लेकर लंबे समय से अभियान चल रहा है।