- अजेंद्र अजय
वर्ष 2016 में तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री स्व.अरुण जेटली जी ने राज्यसभा में कहा था कि रोज-रोज की अदालती दखल से सरकार को परेशानी हो रही है। प्रख्यात वकील और अपनी विद्वता के लिए विख्यात जेटली जी ने यहां तक कहा था कि – “अब लगता है कि सरकार का काम बजट तैयार करना और टैक्स वसूली करना ही रह गया है। क्योंकि बाकी कामों में किसी न किसी तरह से अदालत का दखल हो जाता है, जिससे समय पर काम पूरा नहीं हो पाता है।”
जेटली जी ने वित्त मंत्री रहते हुए उसी वर्ष किसी एक कार्यक्रम में न्यायिक सक्रियता को लेकर भी एक गंभीर टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था सक्रियता के साथ संयम का मिश्रण होना चाहिए। न्यायपालिका की स्वतंत्रता के नाम पर संविधान के बुनियादी ढांचे के अन्य आयामों के साथ समझौता नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि था – न्यायिक समीक्षा न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र का वैध पहलू है, लेकिन फिर भी सभी संस्थाओं को स्वयं लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी”।
उन्होंने जोर देते हुए कहा था कि सरकारी निर्णय (एक्जकयूटिव) कार्यपालिका द्वारा ही लिए जाने चाहिए। न्यायपालिका द्वारा नहीं। क्योंकि अगर कोई निर्णय कार्यपालिका लेती है तो तब उसमें विभिन्न स्तरों पर पर जवाबदेही तय की जा सकती है। इसे चुनौती दी जा सकती है। उसकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। साथ ही जनता भी अगर ये समझती है कि ये जनहित में नहीं है तो वोट के माध्यम से उस सरकार के विरुद्ध जनादेश दे सकती है। कोर्ट भी कानून सम्मत नहीं पाने पर इसे रद्द कर सकती हैं। मगर अदालत की ओर से सरकारी फैसला लिया जाएगा तो ये सभी विकल्प उपलब्ध नहीं होंगे।
जेटली जी की इन टिप्पणियों का उल्लेख उत्तराखंड की चारधाम यात्रा के संदर्भ में करना आज आवश्यक लगता है। यह सर्वविदित है कि नैनीताल हाई कोर्ट ने कोरोना महामारी का हवाला देते हुए पहले चारधाम यात्रा पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था। प्रदेश सरकार के लगातार प्रयासों के बाद कोर्ट ने यात्रा शुरू करने की अनुमति दी। मगर तमाम प्रतिबंध थोप दिए।
हाईकोर्ट की शर्तो का परिणाम यह है कि यात्रा में अनेक दुश्वारियां पैदा हो गई हैं। पर्याप्त संख्या में श्रद्धालुओं को यात्रा करने की अनुमति नहीं मिल पा रही है। अनेकों लोग आधी-अधूरी यात्रा कर वापस लौट रहे हैं। कोर्ट के निर्देशों के चलते पुलिस श्रद्धालुओं की ऐसी जांच – पड़ताल कर रही है, मानो वे तीर्थ यात्रा पर नहीं, अपितु किसी आतंकी मिशन पर निकले हों।
विगत वर्ष भी कोविड काल के कारण यात्रा व्यवस्था पूरी तरह से ठप रही। इस वर्ष महामारी के काफी हद तक नियंत्रित रहने के कारण श्रद्धालुओं को जहां तीर्थ यात्रा को लेकर उत्साह था, वहीं यात्रा व्यवसाय से जुड़े कारोबारियों को उम्मीद थी कि किसी हद तक उनकी टूटी हुई आर्थिक स्थिति को संबल मिलेगा। यही नहीं प्रदेश सरकार को भी अपने आर्थिक संसाधनों को मजबूत करने का अवसर मिलता।
मगर कोर्ट के निर्देशों ने सब की आशाओं पर गहरा तुषारापात कर दिया। श्रद्धालुओं से लेकर यात्रा व्यवसायियों और प्रदेश सरकार तक को फजीहत झेलनी पड़ रही है। कई स्थानों पर देश-विदेश से आए यात्री व स्थानीय व्यवसाई धरना- प्रदर्शन और बंद कर रहे हैं।
आश्चर्य की बात है कि तमाम मुद्दों पर स्वतः संज्ञान लेने वाली न्यायपालिका इसका क्यों नहीं संज्ञान ले पा रही है? इस वर्ष यात्रा को लगभग एक माह का ही समय रह गया है। प्रदेश सरकार ने फिर से हाई कोर्ट में गुहार लगा दी है। यदि समय रहते न्यायालय ने लोगों को राहत नहीं दी तो न्यायालय की अति सक्रियता पर सवाल खड़े होंगे ही।