– अजेंद्र अजय
संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र को विशेष क्षेत्र के रूप में अधिसूचित (Special Notified Area)किया जाना आज समय की मांग है। समुदाय विशेष के धर्म स्थलों के निर्माण / स्थापना पर पूर्ण प्रतिबंध के साथ-साथ संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र में भूमि के क्रय-विक्रय के लिए विशेष प्राविधान आवश्यक है। भू-कानून के साथ-साथ भूमि कानूनों में सुधार, चकबंदी आदि जैसे विषयों पर भी ठोस उपाय किए जाने आवश्यक है। इस हेतु एक विशेषज्ञ समिति गठित की जाए जो इस संबंध में विभिन्न पहलुओं का अध्ययन कर नए कानून के प्रारूप को तैयार कर सके।
किसी भी प्रदेश के निर्माण के पीछे उसके इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, परंपरा, भाषा आदि के सरंक्षण की भावना छिपी होती है। अगर ये तत्व गायब हो जाएं तो वो प्रदेश आत्माविहीन माना जाएगा। लिहाजा, प्रदेश के भौतिक विकास के साथ-साथ इन सबके सरंक्षण की भी आवश्यकता है। वर्तमान में सोशल मीडिया में #उत्तराखंड_मांगे_भू_कानून व #uk_needs_landlaw हैशटैग के साथ युवाओं द्वारा एक व्यापक अभियान चलाया जा रहा है। इस अभियान के पीछे यही मूल भावना छिपी हुई है।
यह सुखद आश्चर्य की बात है कि उत्तराखंड में भू -कानून जैसे गंभीर विषय पर युवाओं द्वारा अभियान शुरू किया गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि उत्तराखंड की युवा पीढ़ी भू -कानून को लेकर संवेदनशील है और वो अपनी जड़ों को बचाने के लिए पूरी तरह से जागरूक हैं। युवाशक्ति देवभूमि की सभ्यता, संस्कृति, परंपरा व इतिहास के सरंक्षण के लिए चिंतित है। निःसंदेह युवाशक्ति की इस सक्रियता का परिणाम सुखद ही होगा।
युवाशक्ति का यह अभियान सराहनीय है। मैं स्वयं इस विषय को लेकर चिंतित रहा हूं। वर्ष 2018 में मेरे द्वारा तत्कालीन मुख्यमंत्री जी को इस विषय पर एक विस्तृत पत्र सौंपा गया था। पत्र में मेरे द्वारा देवभूमि उत्तराखंड के “वैशिष्ट्य” को कायम रखने और राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से पर्वतीय क्षेत्र को “विशेष अधिसूचित क्षेत्र” (Special Notified Area) करने की मांग उठाई गई थी। पत्र में पर्वतीय क्षेत्रों में भूमि इत्यादि के क्रय-विक्रय के लिए विशेष प्राविधान किए जाने और समुदाय विशेष के धर्म स्थलों के निर्माण पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी उठाई गई थी। इस हेतु मेरे द्वारा एक विशेषज्ञ समिति गठित करने का सुझाव दिया गया था, जो इस संबंध में विभिन्न पहलुओं का अध्ययन कर नए कानून के प्रारूप को तैयार कर सके।
यह सर्वविदित है देवभूमि उत्तराखंड आदिकाल से अध्यात्म की धारा को प्रवाहित करती आई है। हिंदू धर्म व संस्कृति की पोषक माने जाने वाली गंगा व यमुना के इस मायके में संतों-महात्माओं के तप करने की अनगिनत गाथाएं भरी पड़ी हैं। ऋषि-मुनियों ने ध्यान व तप कर देश दुनिया को यहां से सनातन धर्म की महत्ता का संदेश दिया है। आज भी यहां विभिन्न रूपों में मौजूद उनकी स्मृतियों से दुनिया प्रेरणा प्राप्त करती है। यहां कदम-कदम पर मठ-मंदिर अवस्थित हैं, जिनका तमाम पौराणिक व धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। इससे उनकी प्राचीनता, ऐतिहासिकता, आध्यात्मिकता व सांस्कृतिक महत्व का पता चलता है।
इन अनगिनत देवालयों के अलावा यहां श्री बद्रीनाथ, श्री केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री जैसे विश्व प्रसिद्ध तीर्थ स्थल भी स्थित हैं, जो सदियों से हिंदू धर्मावलंबियों की आस्था के केंद्र रहे हैं। इस क्षेत्र के आध्यात्मिक महत्व को देखते हुए पौराणिक समय से लेकर आधुनिक काल तक प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में साधक व श्रद्धालु हिमालय की कंदराओं का रुख करते आए हैं और यही कारण रहा कि यह क्षेत्र देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
बिगत कुछ वर्षों में पर्वतीय क्षेत्रों से रोजगार एवं अन्य कारणों से वहा के मूल निवासियों द्वारा व्यापक पैमाने पर पलायन किया गया। इसके विपरीत मैदानी क्षेत्रों से एक समुदाय विशेष ने विभिन्न प्रकार के व्यवसायों के माध्यम से वहां पर अपनी आबादी में भारी बढ़ोतरी की है। यही नहीं कई बार मीडिया एवं अन्य माध्यमों में बांग्लादेशी व रोहिग्याओं द्वारा घुसपैठ किए जाने की चर्चा भी सुनाई देती है। अन्तर्राष्ट्रीय सीमा से जुड़े होने के कारण ऐसी परिस्थितियां देश की सुरक्षा की दृष्टि से आशंकित करने वाली हैं। समुदाय विशेष द्वारा तमाम स्थानों पर गुपचुप ढंग से अपने धार्मिक स्थलों का निर्माण किए जाने की चर्चा भी समय-समय पर सुनाई देती हैं, इस कारण कई बार सांप्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा हो जाती है।
बिना पहचान व सत्यापन के रह रहे लोगों के कारण आज पर्वतीय क्षेत्रों में अपराधों में वृद्धि हुई है। विगत समय में सतपुली, घनसाली, अगस्त्यमुनि आदि स्थानों पर हुई घटनाएं आंखें खोलने वाली हैं। इन घटनाक्रमों में पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों में तमाम तरह की आशंकाएं घर करने के साथ ही भारी आक्रोश भी व्याप्त है। इसके साथ ही “लव जिहाद” जैसी घटनाएं भी समय-समय पर सुनाई देने लगी हैं।
सामरिक दृष्टि से उत्तराखंड का यह हिमालयी क्षेत्र बेहद संवेदनशील है। पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों की विशिष्ट भाषाई व सांस्कृतिक पहचान रही है। अत्यंत संवेदनशील सीमा के निकट लगातार बदल रहा सामाजिक ताना-बाना आसन खतरे का कारण बन सकता है। उपरोक्त तथ्य राज्य में असम जैसी परिस्थितियों का कारक भी बन सकते हैं।
आदिकाल से सनातन धर्म की आस्था और हिंदू मान बिंदुओं की प्रेरणा रहे भूभाग की पवित्रता व उसके आध्यात्मिक, सांस्कृतिक स्वरूप को बरकरार रखने के लिए संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र को विशेष क्षेत्र के रूप में अधिसूचित किया जाना आज समय की मांग है। समुदाय विशेष के धर्म स्थलों के निर्माण/स्थापना पर पूर्ण प्रतिबंध के साथ-साथ संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र में भूमि के क्रय-विक्रय के लिए विशेष प्राविधान आवश्यक है। भू-कानून के साथ-साथ भूमि कानूनों में सुधार, चकबंदी आदि जैसे विषयों पर भी ठोस उपाय किए जाने आवश्यक है। इस हेतु एक विशेषज्ञ समिति गठित की जाए जो इस संबंध में विभिन्न पहलुओं का अध्ययन कर नए कानून के प्रारूप को तैयार कर सके।
(लेखक राजनीतिक कार्यकर्ता व स्वतंत्र पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)
- अजेंद्र अजय
पीवी नरसिम्हा राव, एचडी देवगौड़ा, अशोक गहलोत, राबड़ी देवी, चौधरी बंशी लाल, गिरधर गोमांग समेत कई नेता प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री अथवा मंत्री रहते हुए एक वर्ष से कम समयावधि के बावजूद उप चुनाव लड़ चुके हैं।
पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया और मीडिया के एक हिस्से में यह चर्चा बड़ी तेजी से फैलाई जा रही है कि उत्तराखंड में संवैधानिक संकट की स्थिति पैदा होने वाली है। इस चर्चा में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के एक प्रावधान का उल्लेख करते हुए राज्य में संवैधानिक संकट की आशंका जताई जा रही है। आश्चर्य की बात तो यह है कि सोशल मीडिया से उठे इस मुद्दे को प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने ऐसा लपका मानो उसके हाथ कोई जादुई चिराग लग गया हो।
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह से लेकर कई अन्य वरिष्ठ नेताओं ने बाकायदा बयान जारी कर सितंबर माह में प्रदेश में संवैधानिक संकट की ज्योतिषीय घोषणा तक कर डाल दी है। कांग्रेस नेताओं ने बयानबाजी करने से पहले इस मुद्दे से जुड़े संवैधानिक प्रावधानों और कानून के तकनीकि पक्षों को जरा सा भी समझने की कोशिश नहीं की और अनाड़ी व नौसिखिये राजनीतिज्ञों की तरह हो-हल्ला मचाना शुरू कर दिया।
दरअसल, प्रकरण प्रदेश के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के उप चुनाव को लेकर है। भाजपा नेतृत्व ने विगत 11 मार्च को गढ़वाल लोकसभा क्षेत्र से सांसद तीरथ सिंह रावत को प्रदेश के मुख्यमंत्री की कमान सौंपी थी। संवैधानिक प्रावधानों के तहत उन्हें मुख्यमंत्री के पद पर नियुक्ति से छः माह के भीतर अर्थात आगामी 10 सितंबर तक उत्तराखंड विधान सभा का सदस्य निर्वाचित होना है।
कांग्रेस नेता लोक प्रतिनिधित्व अधिनियमम -1951 की धारा- 151 (क) को मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के लिए उप चुनाव लड़ने में बाधक बता रहे हैं। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के भाग- 9 में उप निर्वाचन शीषर्क में संसद के दोनों सदनों और राज्यों के विधान मंडलों में आकस्मिक रिक्तियों के चुनावों को लेकर उपबंध तय किये गए हैं। भाग -9 की धारा -151 (क) में किसी कारण से रिक्त हुई सीट पर छः माह की अवधि के भीतर चुनाव करने का प्रावधान है। यह धारा कहती है कि –
151 क. धारा 147, धारा 149, धारा 150 और धारा 151 में निर्दिष्ट रिक्तियों को भरने के लिए समय की परिसीमा – धारा 147, धारा 149, धारा 150 और धारा 151 में किसी बात के होते हुए भी, उक्त धाराओं में से किसी में निर्दिष्ट किसी रिक्ति को भरने के लिए उप निर्वाचन, रिक्त होने की तारीख से छः मास की अवधि के भीतर कराया जाएगा :
परन्तु इस धारा की कोई बात उस दशा में लागू नहीं होगी, जिसमें –
(क) किसी रिक्ति से संबंधित सदस्य की पदावधि का शेष भाग एक वर्ष से कम है ; या
(ख) निर्वाचन आयोग, केंद्र सरकार से परामर्श करके, यह प्रमाणित करता है कि उक्त अवधि के भीतर ऐसा उप निर्वाचन करना कठिन है।
कांग्रेस द्वारा धारा-151क (क) को आधार बना कर तिल का ताड़ बनाया जा रहा है। कांग्रेस का कहना है कि चूंकि उत्तराखंड विधान सभा के आम चुनावों के लिए एक वर्ष से भी कम का समय रह गया है। लिहाजा, अब उप चुनाव नहीं हो सकते हैं और मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत उप चुनाव नहीं लड़ सकते।
यह सही है कि धारा-151क (क) रिक्ति की पदावधि का शेष भाग एक वर्ष से कम होने पर उप चुनाव की अनुमति नहीं देता है। मगर कोई सामान्य समझ वाला व्यक्ति भी धारा-151क (ख) को देख कर कह सकता है की यह उप चुनाव कराने की पूरी गुंजाइश रखती है। यह सोचने वाली बात है कि यदि गुंजाइश नहीं होती तो 151क (क) के बाद अधिनियम में “या” शब्द जोड़ने का क्या औचित्य था ?
“या” शब्द जोड़ने के बाद 151क (ख) में कहा गया है कि निर्वाचन आयोग, केंद्र सरकार से परामर्श करके, यह प्रमाणित करता है कि उक्त अवधि के भीतर ऐसा उप निर्वाचन करना कठिन है। यानी अगर उप चुनाव नहीं कराने होंगे तो चुनाव आयोग केंद्र सरकार से चर्चा करके बताएगा कि चुनाव कराने में क्या कठिनाई है ?
स्पष्ट है कि किसी विशेष प्रकार की परिस्थितियों के मद्देनजर ही “या” शब्द जोड़ा गया होगा और अधिनियम बनाने वालों ने भविष्य में किसी संभावित समस्या को देखते हुए यह प्रावधान किया होगा। कोई नियम अथवा अधिनियम संवैधानिक संकट पैदा ना हो, इस उद्देश्य से बनाया जाता है, ना कि संकट पैदा करने के लिए। यहां यह स्पष्ट है कि धारा-151 चुनाव आयोग को उप चुनाव नहीं कराने को लेकर किसी प्रकार से बाध्य नहीं करता है। आयोग उप चुनाव करा सकता है।
अब बारी आती है संविधान की। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-75(5) बिना किसी सदन की सदस्यता के छः माह तक किसी भी व्यक्ति को केंद्र सरकार में मंत्री अथवा प्रधानमंत्री और अनुच्छेद-164 (4) किसी भी व्यक्ति को प्रदेश का मुख्यमंत्री अथवा मंत्री नियुक्त होने की अनुमति देता है। अर्थात अगर कोई व्यक्ति संसद के किसी भी सदन का सदस्य निर्वाचित हुए बगैर प्रधानमंत्री अथवा केंद्रीय मंत्री बनता है तो, उसे छः माह के भीतर संसद के किसी भी सदन का सदस्य चुना जाना आवश्यक है। इसी प्रकार की बाध्यता मुख्यमंत्री व राज्य के मंत्रियों के लिए भी है। उन्हें विधान सभा अथवा जिन राज्यों में विधान परिषद् है, में से किसी एक सदन का सदस्य निर्वाचित होना आवश्यक है।
यानी बिना किसी सदन के सदस्य हुए बगैर छः माह तक किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री, मंत्री या देश का प्रधानमंत्री बनने का किसी भी भारतीय नागरिक को भारतीय संविधान पूरा अधिकार देता है। अब सवाल यह है की क्या किसी मुख्यमंत्री अथवा मंत्री को संविधान प्रदत्त इस अधिकार से कैसे आसानी से वंचित किया जा सकता है ? चुनाव आयोग भी संविधान प्रदत्त अधिकारों को सरंक्षण देते हुए ही अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करता है। तमाम ऐसे उदाहरण हैं जब चुनाव आयोग ने आकस्मिकताओं को ध्यान में रख कर एक वर्ष अथवा छह माह की अवधि से भी कम समय में उप चुनाव कराएं हैं।
चुनाव मामलों की जानकारी देने वाली इलेक्शन लॉज़, प्रैक्टिस एंड प्रोसीजर पुस्तक के अनुसार चुनाव आयोग ने, सुसंगत नीति के मामले में, हमेशा मंत्री के रूप में नियुक्त व्यक्ति को, जो उसकी ऐसी नियुक्ति के समय उपयुक्त विधायिका का सदस्य नहीं है, को संवैधानिक आवश्यकता को पूरा करने का अवसर प्रदान किया है। आयोग ने संबंधित व्यक्ति द्वारा पद ग्रहण करने के छह माह के भीतर उप-चुनाव कराकर मंत्री के रूप में अपनी नियुक्ति के संबंध में मतदाताओं को अपना निर्णय देने का अवसर प्रदान किया है।
पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव, एच.डी. देवेगौड़ा समेत वर्ष 1999 में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, वर्ष 1997 में बिहार की मुख्यमंत्री राबड़ी देवी, वर्ष 1993 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री विजय भास्कर रेड्डी एक वर्ष से कम अवधि के दौरान चुनाव लड़ चुके हैं।
वर्ष 1999 में उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग ने प्रदेश की अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित लक्ष्मीपुर विधानसभा क्षेत्र से उप चुनाव लड़ा। प्रदेश की लक्ष्मीपुर समेत कुछ अन्य विधान सभा सीटें खाली पड़ीं थीं। राज्य विधानसभा का शेष कार्यकाल उस रिक्ति की तारीख से एक वर्ष से कम के लिए था। मगर चुनाव आयोग ने मुख्यमंत्री की इच्छा को देखते हुए केवल लक्ष्मीपुर विधानसभा क्षेत्र में ही उप चुनाव आयोजित किया।
उड़ीसा की तरह का मामला वर्ष 1987 में हरियाणा में भी सामने आया था। यहां भी उड़ीसा की तरह चौधरी बंशी लाल तोशम विधान सभा क्षेत्र से उप चुनाव लड़े, जबकि यहां भी विधानसभा का कार्यकाल एक वर्ष से कम था और अन्य कुछ सीटें भी रिक्त थीं। मगर चुनाव आयोग ने चौधरी बंशी लाल को उनके संवैधानिक अधिकार की पूर्ति एक ही सीट पर उप चुनाव कराया। इस मामले को किसी ने हाई कोर्ट में चुनौती दी थी। मगर कोर्ट ने कोई हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी चुनाव आयोग के उस निर्णय में हस्तक्षेप नहीं किया।
उत्तराखंड के सन्दर्भ में विपक्षी दलों द्वारा विभिन्न न्यायालयों के जिन भी मामलों का उल्लेख किया जा रहा है, वे यहां कतई प्रासंगिक नहीं हैं। उन प्रकरणों की प्रकृति अलग तरह की थी। उत्तराखंड से कुछ अंश मात्र मिलते-जुलते मामलों की चर्चा की जाए तो देखा जा सकता है की सभी न्यायालयों ने सकारात्मक निर्णय ही दिए हैं। न्यायालयों ने चुनाव आयोग के आदेशों में हस्तक्षेप नहीं किया है।
कर्नाटक हाईकोर्ट ने एपी रंगनाथ बनाम मुख्य चुनाव आयोग, 2018 केस में उस याचिका को ख़ारिज कर दिया था, जिसमें लोकसभा सीट पर उप चुनाव के लिए एक वर्ष से थोड़ी ही अधिक अवधि थी। इसमें कोर्ट ने कहा की किसी क्षेत्र को एक वर्ष से अधिक समय के लिए बिना जनप्रतिनिधि के खाली नहीं रखा जा सकता। इस निर्णय का सबसे महत्वपूर्ण पहलु यह था की कोर्ट ने चुनाव आयोग को कहा कि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा-151क की व्याख्या के संबंध में कोई अस्पष्टता उत्पन्न होती है, तो चुनाव सुधार समिति, 1990 की रिपोर्ट का सहारा लिया जाना चाहिए।
ऐसे ही एक मिलते-जुलते मामले प्रमोद लक्ष्मण गुड़धे बनाम भारत निर्वाचन आयोग व अन्य में सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की, कि ऐसी व्याख्या लोकतंत्र के पवित्र सिद्धांत के अनुरूप है कि किसी निर्वाचन क्षेत्र को बिना प्रतिनिधित्व के नहीं रखना है। उप चुनाव पर होने वाले खर्च के संबंध में व्यक्त की गई चिंता को आधार नहीं माना जा सकता। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोकतंत्र को निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा खुद को बनाए रखना होता है।
- प्रवीण गुगनानी
लेखक व स्तंभकार
अब जबकि गांव-गांव, गली-गली और खेतोखेत खरीफ फसल बुआई की तैयारी हो रही है और देश में लॉकडाऊन का दौर ढलान पर है तब सभी को खरीफ कृषि के संदर्भ यह कहावत स्मरण कर लेनी चाहिए –
असाड़ साउन करी गमतरी, कातिक खाये, मालपुआ।
मांय बहिनियां पूछन लागे, कातिक कित्ता हुआ॥
अर्थात – आषाढ़ और सावन मास में जो गांव-गांव में घूमते रहे तथा कार्तिक में मालपुआ खाते रहे (मौज उड़ाते रहे) वे लोग पूछते हैं कि कार्तिक की फसल में कितना अनाज पैदा हुआ? अर्थात जो खेती में व्यक्तिगत रुचि नहीं लेते हैं उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता है। भारत सरकार एवं प्रदेशों की सरकारों को भी चाहिए कि वह लॉकडाऊन के इस दौर में भारतीय कृषि के कार्तिक तत्व अर्थात खरीफ उत्पादन हेतु पर्याप्त व्यवस्थाएं करके किसानों को सहयोग दें।
सर्वविदित है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ-साथ भारतीय जनमानस भी कृषिनिर्भर ही रहता है। यदि कृषि सफल, सुचारू व सार्थक हो रही है तो भारतीय ग्राम प्रसन्न रहते हैं अन्यथा अवसादग्रस्त हो जाते हैं और यह अवसाद समूचे राष्ट्र को दुष्प्रभावित करता है। यदि भारतीय कृषि को छोटे व निर्धन कृषकों की दृष्टि से देखें तो खरीफ की फसल ही भारत की महत्वपूर्ण फसल है क्योंकि इस मौसम में सिंचाई के साधनों की अनुपलब्धता वाले छोटे-छोटे करोड़ों कृषक भी फसल उपजाने में सफल हो पाते हैं।
लगभग राष्ट्रव्यापी लॉकडाऊन के इस कालखंड में जबकि जून के प्रथम सप्ताह से देश भर में अनलॉकका क्रम प्रारंभ हो रहा है तब बहुत कुछ ऐसा है जिसे खरीफ की फसल और छोटे, मध्यम व सीमान्त किसानों की दृष्टि से समायोजित किया जाना चाहिए। छोटा किसान दूध, सब्जी, पशुपालन आदि-आदि छोटी कृषि आधारित इकाइयों से प्राप्त आय से जीवन यापन भी करता है तथा खरीफ फसल को बोने बिरोने के खर्चे भी निकालता है। स्वाभाविक है कि दो माह के लॉकडाऊन के मध्य ये छोटे कृषक अत्यधिक प्रभावित हुए हैं। उनके पास न तो परिवार के भरण-पोषण हेतु समुचित नगदी है और न ही उसकी जीवन रेखा खरीफ फसल को बोने बखरने हेतु नगदी है।
यद्यपि मोदी सरकार ने निर्धन परिवारों को निःशुल्क राशन, आयुष योजना व अन्य माध्यमों से सुरक्षित रखने की अनेक योजनाओं की झड़ी लगा दी है तथापि निर्धन, छोटे व सीमान्त किसानों का एक बड़ा वर्ग अब भी संकट में है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। निस्संदेह कोविड-19 ने जब समूचे अर्थतंत्र को दुष्प्रभावित कर दिया है तब किसान भी इससे अछूता नहीं रहा है, बल्कि कृषक वर्ग तो इकोनामिक बैकअप न होने के कारण बेहद असहाय, निर्बल व लाचार हो गया है। देश की केंद्र व प्रदेश सरकारों ने यदि कृषि तंत्र को महंगाई, बेरोजगारी व लॉकडाऊन के इस भीषण दौर में अपना सहारा नहीं दिया तो केवल कृषक समाज नहीं, अपितु समूचे देश को इसके दुष्परिणाम भुगतने होंगे।
पिछले वर्ष जब कोरोना महामारी ने भारत में पांव पसारे थे तब संपूर्ण भारत का उत्पादन तंत्र सिमट गया था और बड़े ही निराशाजनक परिणाम मिले थे। किंतु कृषि एकमात्र ऐसा क्षेत्र था जिसने जीवटतापूर्वक आशाओं से कहीं बहुत अच्छा उत्पादन करके देश की आर्थिक व्यवस्था को संबल प्रदान किया था।
बारिश अच्छी, समय पर व पर्याप्त होने की संभावनाओं के आ जाने के बाद स्वाभाविक ही है कि किसान खरीफ फसल बोने हेतु अत्यधिक उत्सुक व उत्साहित है। किंतु संकट भी है। इस वर्ष बीज बहुत महंगा रहने की आशंका है। खरीफ की प्रमुख फसल धान, सोयाबीन व मक्का के बीज मूल्य तो किसान की पहुंच से बाहर होते जा रहे हैं। देशव्यापी लॉकडाऊन के कारण उर्वरकों का उत्पादन व विपणन तंत्र गड़बड़ा गया है। अतः उर्वरकों के मूल्य भी बढ़ रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय मूल्य तंत्र के कारणों से भी मोदी सरकार उर्वरकों के मूल्य तंत्र को संभालने में असफल रही, किंतु आभार है इस संवेदनशील सरकार का कि उसने उर्वरकों पर सरकारी सहायता (सब्सिडी) बढ़ाकर उर्वरकों की मूल्यवृद्धि को निष्प्रभावी कर दिया है। केंद्र सरकार ने डीएपी खाद पर सब्सिडी 140 प्रतिशत बढ़ा दी है। इस हेतु 1475 करोड़ रूपये की अतिरिक्त सबसिडी जारी कर देश भर के कृषकों को एक बड़ी समस्या से बचा लिया है। निस्संदेह यदि केंद्र की संवेदनशील मोदी सरकार समय पर डीएपी के संदर्भ में यह सटीक निर्णय नहीं लेती तो देश में बुआई का रकबा और खरीफ उपज अवश्य ही प्रभावित हो जाती।
प्रधानमंत्री मोदी ने किसान सम्मान निधि की आठवीं किश्त के रूप में अक्षय तृतीया के शुभ दिन को 19 हज़ार करोड़ रुपए 10 करोड़ किसानों के खाते में सीधे ट्रांसफर करके भी एक बड़ा आर्थिक संबल का वातावरण बना दिया है। महामारी के कठिन समय में ये राशि इन किसान परिवारों के बहुत काम आ रही है। इस योजना से अब तक 1 लाख 35 हज़ार करोड़ रुपए कृषकों के खाते में सीधे पहुंच चुके हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस राशि में से सिर्फ कोरोना काल में ही 60 हज़ार करोड़ रुपए से अधिक किसानों को मिल गए हैं।
मोदी सरकार ने कोरोना काल को देखते हुए, KCC ऋण के भुगतान या फिर नवीनीकरण की समय सीमा को बढ़ा दिया गया है। ऐसे सभी किसान जिनका ऋण बकाया है, वो अब 30 जून तक ऋण का नवीनीकरण कर सकते हैं। इस बढ़ी हुई अवधि में भी किसानों को 4 प्रतिशत ब्याज पर जो ऋण मिलता है, जो लाभ मिलता है, वह यथावत रहेगा।
भारत की केंद्र सरकार द्वारा किये जा रहे सतत कृषि उन्नयन के प्रयासों का ही परिणाम है कि इतनी विपरीत परिस्थितियों के बाद भी गत वर्ष की अपेक्षा खरीफ का रकबा 16.4% बढ़ने की संभावना बताई जा रही है। कृषि मंत्रालय ने आशा जताई है कि पिछले साल अच्छी बारिश होने की वजह से इस बार जमीन में नमी मौजूद है और यह फसलों के लिए बहुत बेहतर स्थिति है। पिछले 10 साल के औसत की तुलना में इस बार देश के जलाशय 21 प्रतिशत तक अधिक भरे हुए हैं। हमें उम्मीद है कि इस बार देश में बंपर कृषि उपज हो सकती है। गतवर्ष की अच्छी वर्षा, जलस्त्रोतों में जल की उपलब्धि व भूमि में नमी का लाभ उठाने हेतु शासन कृषि क्षेत्र को पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराये तो किसान भी देश के गोदामों को अनाज से लबालब भरने में सक्षम हो सकता है।
ग्लोबल रेटिंग एजेंसी फिच सॉल्यूशंस ने भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए नए संकट आने के संकेत दिए हैं। इसका असर आर्थिक विकास दर पर पड़ेगा और वित्त वर्ष 2021-22 में भारत का वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद 9.5% हो सकता है। ऐसी स्थिति में निश्चित ही जीवटता व जिजीविषा से लबालब किसान वर्ग ही भारतीय अर्थव्यवस्था को अपने उत्पादन से एक बड़ा संबल प्रदान कर सकता है। आवश्यकता है कि शासन-प्रशासन भारतीय कृषक के प्रति संवेदनशील रहे।
- जयराम शुक्ल
पत्रकार व लेखक
कहते हैं कि हमारा समाज धर्मभीरु है। उसकी रक्षा के लिए हम किसी पराकाष्ठा तक जा सकते हैं। यदि ऐसा आप भी सोचते हैं तो एकबार चित्रकूट हो आइए, वहां जाकर देखिए कि आस्थाएं किस तरह स्वार्थ की बलि चढ़ा दी जाती हैं।
यहां भगवान श्रीराम साढ़े ग्यारह वर्ष रहे। जहां वे विचरते रहे होंगे, वहीं के जंगल और पहाड़ों के भीतर उम्दा किस्म का बाक्साइट है। इसलिए भगवान राम की स्मृतियां बची रहें या चाहे जाएं चूल्हे भाड़ में। बेरहम विकास यात्रा और ग्रोथरेट के चंद्रखिलौना के लिये हमें वो जंगल और वो पहाड़ चाहिए ही चाहिए।
जिस सिद्धा पहाड़ को देखकर राम ने – भुज उठाय प्रण कीन्ह.. का संकल्प लिया था। उस पहाड़ की गति देखेंगे,जरा भी संवेदना होगी तो रो पड़ेंगे। जेसीबी के पंजों से ऐसे बाक्साईट निकाला है, जैसे गिद्ध शवों से आंतड़ियां निकालते हैं। सरभंग ऋषि का जहां आश्रम था, उस वन प्रांतर को भी खनिज के लिए शिकारी कुत्तों की तरह नोचा खाया गया है।
भोपाल से इंदौर जाते हुए जब मैं देवास बायपास से गुजरता हूं तो कलेजा हाथ में आ जाता है। बायपास शुरू होते ही बाएं हाथ में हनुमान जी की विराट प्रतिमा है, उसके पीछे खड़े पहाड़ का जो दृश्य है, बेहद दर्दनाक है। उसे देखकर कई भाव उभरते हैं कि जैसे चमगादड़ ने अमरूद का आधा हिस्सा खाकर फेंक दिया हो, कि जैसे जंगली कुत्तों ने जिंदा वनभैंसे के लोथड़े निकाल लिए हों, कि जैसे हमने बर्थडे की केक को चाकू से काटा हो।
यदि आपमें जरा भी संवेदना होगी तो इस अधखाए पहाड़ को देखकर कुछ ऐसे ही लगेगा। दाईं ओर गुंगुआती हुई कई चिमनियां दिखेंगी। दृश्य कुछ ऐसा बनता है कि मानो धरती माता के मुंह में जबरन कई सुलगती हुई बीड़ियां दता दी गईं हों। यह दृश्य सिर्फ देवास का नहीं है। जहां है – उसके इर्दगिर्द एक नजर तो डालकर देखिए..!
पद्मपुराण में तालाब, बावड़ी, कुएं खुदवाने का पुण्य प्रताप वर्णित है। वृक्षों का महात्म्य तो दैवतुल्य है। बरगद, पीपल, आम तो हमारी जीवन संस्कृति से जुड़े हैं। महुआ तो वनवासी लोक संस्कृति का सिरमौर है।
कहते हैं, जिनके पुत्र नहीं होता था। वे आम व विभिन्न किस्म के फलदार पौधे लगाते थे। इन वृक्षों से मनुष्य को फल मिलते थे। इनमें जीव जंतु भी पलते थे। सभी आत्मा से उस व्यक्ति को साधुवाद देते व कृतज्ञ भाव व्यक्त करते जिसने बगीचे लगाए थे। सैकड़ों वर्ष तक उस व्यक्ति का नाम बगीचे के साथ चलता था। अब वही बगीचे कटकर पल्प व प्लाईबोर्ड फैक्ट्री में जा रहे हैं।
सड़कों ने भले ही आवागमन को सुगम किया हो, पर इसके लिए अरबों निर्दोष व फलदाई पेड़ों की बलि दी गई। शेरशाह सूरी ने भारत को उत्तर से दक्षिण जोड़ने के लिए जो राजमार्ग बनवाया था। वह बनारस से जबलपुर होते हुए दक्षिण जाता था। वर्षों तक हम इसे नेशनल हाइवे नंबर सात (एनएच 7) के नाम से जानते थे।
इस यवन बादशाह ने सड़कों के किनारे आम, जामुन, इमली, कपित्थ, बेल, महुआ जैसे फलदाई पौधे लगवाए थे। हर एक कोस पर कुएं और दस कोस पर एक बावड़ी व मुसाफिर खाना बने थे। रीवा के राजा अजीत सिंह के कार्यकाल में एक ब्रिटिश ट्रेवलर लेकी इस राजमार्ग से गुजरा था। उसकी डायरी के पन्ने रीवा के स्टेट गजेटियर में छपे हैं। लेकी ने सड़क के किनारे आम्रकुंजों का खूबसूरत वर्णन किया है।
हमारे देसी बादशाहों ने सड़क के विस्तार की योजना बनाई। योजना जब तक कागज से जमीन पर उतरती सड़कों के किनारे के वर्षों पुराने वृक्ष कटकर आरा मिलों में पहुंच गए। इनमें से हजारों-लाखों ऐसे जिनकी उमर पांच सौ वर्षों से एक हजार वर्ष रही होगी। किसी ने उफ तक नहीं किया।
सड़कें विधवा के मांग की भाँति सूनी हैं। गर्मियों में लगता है, रेगिस्तान से गुजर रहे हैं। वृक्षारोपण के नाम पर कनेर और बबूल रोपे गए हैं। कोई चिंता करने वाला नहीं और न ही इन पुरखों के लिए रोने वाला।
यूरोप-अमेरिका में पुराने पेड़ लिफ्ट एंड शिफ्ट किए जाते हैं। मिस्र में तो पहाड़ की शिफ्टिंग के बारे में सुना है। अपने यहां हर विकास विनाश की बुनियाद पर होता है। योजनाकार व इंजीनियर चाहते तो ये सभी पेड़ बच सकते थे। हां, जमीन का मुआवजा जरूर थोड़ा बढ़ता। पर फिकर किसे ? हर कोई घर भरना चाहता है। योजनाकार- इंजीनियर-ठेकेदार- नेता सभी के सब, क्या करियेगा !
आप जहां भी रहते हों, उसके दस किलोमीटर की परिधि में नजर दौड़ाइए। इससे भी वीभत्स और कारुणिक दृश्य दिखेंगे। पर इसे अंतः से महसूस करने को वाल्मीकि की दृष्टि जगानी होगी, जिन्होंने क्रौंच वध की घटना में क्रौंचनी के अश्रु से उपजी करुणा के चलते सृष्टि की पहली कविता रच दी।
पूरे देश के पहाड़ों और वनों के साथ ऐसे ही निर्दयी व्यवहार हो रहा है। किसलिए ?क्योंकि विकास के लिए ये जरूरी है। इससे ग्रोथरेट बढ़ती है। ग्रोथरेट की गणित बड़ी बेरहम है। खड़े हुए पेड़ों का विकास में कोई योगदान नहीं। इन्हें काटकर वहां से राजमार्ग निकालिए और पेड़ों को आरा मिल भेजिए या पेपर मिल, तभी विकास को गति मिलेगी। खड़े हुए पहाड़ विकास के बाधक हैं। उन्हें केक की तरह काटकर सड़क में पसराना पड़ेगा, विकास की गाड़ी तभी आगे बढ़ेगी। बहती हुई नदियों का विकास में तब तक कोई योगदान नहीं जब तक कि इन्हें बांध कर गांवों को न डुबा दिया जाए। यह विकास का नया फलसफा है। जहां संवेदना, स्मृति, जिंदगी की कोई हैसियत नहीं। विकास के समानांतर विनाश की भी ग्रोथरेट होती है, पर इसे नापे कौन? यह अर्थशास्त्रियों के विमर्श का विषय नहीं है।
हर मनुष्य में यह दृष्टि है….. हां, मैं प्रकृति प्रेमी हूं। मेरी मुक्ति यहीं दिखती है। जब भी समय मिलता है तो विन्ध्य के वनप्रांतर में भटक लेता हूं। सिंगरौली के धुंए से निकल कर उससे लगे जंगलों में खूब भटका हूं। वाल्मीकि आज यहां आकर घूमते तो गश खाकर गिर पड़ते। हम भौतिकवादी खुदगर्ज आदमी हैं। इसलिए ये सब कुछ देख भी लेते हैं। यहां आकर आप देखेंगे कि आदमी ने किस तरह धरती को उलटा पलटकर माटी के धुएं के नंगे पहाड़ खड़े कर दिए। लगभग तीन सौ किलोमीटर की परिधि का नामोनिशां मिट गया। पहाड़ पिसकर बिजली में बदल दिए गए। खैर के अद्भुत जंगलों, वन्यजीवों की बात कौन करे, यहां के वाशिंदे आज किस लोक में हैं, किसी को इसकी खबर नहीं।
विकास का ऑक्टोपस सिंगरौली से लगे सरई क्षेत्र के खूबसूरत जंगलों की ओर बढ़ रहा है। यह दुनिया के सबसे संपन्न जैव विविधता वाला क्षेत्र है। पेड़ पौधों की दृष्टि से और जीव जंतुओं की दृष्टि से भी।
छत्तीसगढ़, झारखंड के हाथियों का यह कॉरीडोर है। भालुओं का प्राकृतिक आवास। गुफाओं की श्रृंखला आदम सभ्यता की कहानी कहती हैं। इस क्षेत्र का गुनाह यह है कि इसके पेट में कोयला है और वह कोयला हमारी ग्रोथरेट के लिए जरूरी है। इसलिये चाहिए हर हाल पर, किसी कीमत पर। कभी कभी, गुण भी मौत के गाहक बन जाते हैं। जैसे कस्तूरी मृग के लिए, मणि नाग के लिए। यह तय है कि आज नहीं तो कल इस खूबसूरत वन की कस्तूरी और मणि की कीमत विकास की बलिबेदी पर चढ़कर चुकानी होगी।
अब ये कुछ सवाल खुद से पूछिये.. क्या हम कोई पहाड़ बना सकते हैं ? क्या जंगल, नदी, झरने पैदा कर सकते हैं ? तो फिर इन्हें सजाए मौत देने, नष्ट भ्रष्ट करने का अधिकार किसी को कहां से मिला ? पुराण कथाओं में पढ़ा है कि एक बार सहस्त्रबाहु ने नर्मदा को बांधने की कोशिश की थी, परशुराम ने उसके सभी हाथ काट ड़ाले। आज हम नदियों को बांधने, उनकी धारा को मोड़ने की, पहाड़ों और जंगलों को खाने की राक्षसी कोशिशें कर रहे हैं।
इन्हें हमारे वैदिक वांग्यमय में माता, पिता, सहोदर, भगिनी, पुत्र, बंधु-बांधवों का दर्जा कुछ सोच समझकर ही दिया गया है। ये हमें देते ही देते हैं। ये हैं तभी हम हैं।
नीति ग्रंथों में लिखा है कि प्रकृति से हम उतना ही लें, जितना कि एक भ्रमर फूल और फल से लेता है। हमें गाय की तरह दुहने की इजाजत है। गाय को ही काटकर खाने की नहीं।
विकास की निर्दयी होड़ ने प्रकृति को कत्लगाह में बदल दिया है। संभल सकें तो संभलिए नहीं तो याद रखिए ईश्वर की लाठी बे-आवाज़ होती है..और हर किए की सजा मिलती है, इसी लोक और इसी काया में।
- प्रशांत पोळ
विचारक व लेखक
इस दुनिया में मात्र दो ही देश धर्म के नाम पर अलग हुए हैं। या यूं कहे, धर्म के नाम पर नए बने हैं। वे हैं – पाकिस्तान और इजराइल। दोनों के बीच महज कुछ ही महीनों का अंतर हैं। पाकिस्तान बना 14 अगस्त, 1947 के दिन। इसके ठीक नौ महीने के बाद, अर्थात 14 मई, 1948 को इजराइल की राष्ट्र के रूप में घोषणा हुई।
पाकिस्तान मुस्लिम धर्म के नाम पर बना, तो इजराइल यहुदियों (ज्यू धर्मियों) के लिए था। किन्तु दोनों देशों में जमीन – आसमान का अंतर हैं। पाकिस्तान ने विगत 73 वर्षों में धर्म के नाम पर राजनीति की। अमेरिका जैसी महाशक्ति से मदद लेना जारी रखा। आतंकवाद को प्रश्रय दिया। और इन सब के बीच अपने देश के विकास का डिब्बा गुल किया। कटोरी लेकर खड़ा हुआ देश ऐसा पाकिस्तान का यथार्थ वर्णन किया जाता हैं। इसके ठीक विपरीत, एक करोड़ से भी कम लोकसंख्या के इजराइल ने इतने ही समय में ऐसी दमखम दिखाई, की विश्व की राजनीति इजराइल के बगैर पूरी हो ही नहीं सकती।
ज्यू धर्म प्राचीन हैं। ईसाईयत के पहले भी इसका अस्तित्व था। ईसा के पहले हजार–डेढ़ हजार वर्षों तक यहूदियों के उल्लेख इतिहास में मिलते हैं। यहूदी (ज्यू समुदाय) यह इतिहास में सबसे ज्यादा सताया गया समाज हैं। दो–सवा दो हजार वर्ष पहले उन्हें अपनी भूमि से भगाया गया था। चूंकि स्वभावतः ज्यू मेहनती एवम होशियार होते हैं। वे जहां भी गए, वहां तरक्की कर गए। स्वाभाविकतः अन्य लोगों के ईर्ष्या की बलि चढ़े।
दुनिया भर के सताए हुए (भारत अपवाद रहा) यहुदियों के मन में अपने मातृभूमि को लौटने की इच्छा प्रबल थी। इसे झायोनिस्ट विचारधारा कहा गया। इसी विचारधारा के चलते, बीसवी शताब्दी के प्रारंभ में, प्रथम विश्व युद्ध के पहले, लगभग चालीस हजार यहुदी, इजराइल में जा बसे।
बाद में दूसरे विश्व युद्ध में जर्मन नाजियों ने इन यहूदियों का अभूतपूर्व नरसंहार किया। साठ लाख से ज्यादा ज्यू धर्मियों को गैस चैम्बर या अन्य यातनाएं देकर मारा गया। इसके कारण पूरी दुनिया में ज्यू समुदाय के प्रति सहानुभूति उमड़ पडी। वैश्विक समुदाय ने इन यहूदियों को बसने के लिए दो स्थान प्रस्तावित किए। एक था युगांडा देश का एक हिस्सा और दूसरा वह, जो उनकी मातृभूमि था – इजराइल।
स्वाभाविक रूप से ज्यू समुदाय ने अपनी मातृभूमि का पर्याय स्वीकार किया। इजराइल का भाग्य कुछ ऐसा रहा की अपने निर्माण काल से ही उसे शत्रुओं से जूझना पड़ा। चूंकि मूल इजराइल की भूमि पर मुस्लिम आक्रान्ताओं ने सैकड़ों वर्षों से कब्जा कर रखा था। अतः उस भूमि पर इजराइल का बनना, यह पड़ोसी इजिप्त, सीरिया, जॉर्डन आदि देशों को नागवार गुजरा। जन्म लेते इजराइल को इजिप्त, सीरिया, जॉर्डन, लेबनोन और ईराक से युध्द लड़ना पड़ा। यह युद्ध, 1948 का अरब – इजराइल युद्ध नाम से इतिहास में जाना जाता हैं। इस युद्ध में नई नवेली इजराइली सेना ने अरब देशों को अपनी ताकत दिखा दी और इस युद्ध के बाद इजराइल की भूमि में 26% की बढ़ोतरी हुई।
आगे भी यही सिलसिला चलता रहा। इजराइल ने जितने भी युद्ध लड़े, लगभग सभी युद्धों के बाद उसके क्षेत्रफल में वृद्धि होती गई। इजराइल की इस ताकत और प्रगति को देखकर पड़ोसी अरब राष्ट्रों को काफी तकलीफ हो रही थी। जून 1967 में इजिप्त ने कुछ ऐसे हालात निर्माण किए की इजराइल को युद्ध के अलावा दूसरा कोई पर्याय ही नहीं बचा। 5 जून, 1967 को प्रारंभ हुआ यह युद्ध, मात्र छह दिनों में समाप्त हुआ। इसे सिक्स-डे-वॉर नाम से इतिहास में जाना जाता है।
इस युद्ध में छोटे से इजराइल ने निर्णायक जीत हासिल की थी। युद्ध में इजराइल ने इजिप्त से गाझा पट्टी और सिनाई पेनिन्सुला प्रदेश जीता, तो जॉर्डन से वेस्ट बैंक का क्षेत्र हथिया लिया। सीरिया को भी अपना गोलन हाइट्स का क्षेत्र इजराइल से गवाना पड़ा। कुल मिलाकर इजराइल इस युद्ध से भारी फायदे में रहा। उसके लगभग 800 सैनिक मारे गए। लेकिन इजिप्त, जॉर्डन,और सीरिया के हजारों सैनिक मारे गए। इस युद्ध के बाद अरब देशों में इजराइल की इतनी दहशत हो गई कि तब से आज तक, कुछ छुट-पुट घटनाएं छोड़ दे, तो एक भी बड़ा युद्ध उन्होंने इजराइल के विरुद्ध नहीं लड़ा है।
जब युद्ध में इजराइल को नहीं हरा सकते यह ध्यान में आया तो अरब राष्ट्रों और इस्लामी आतंकवादियों ने इजराइली नागरिकों पर हमले चालू किए। 1974 में जर्मनी के म्यूनिख में संपन्न हुए ओलिंपिक में इस्लामी आतंकवादियों ने इजराइली खिलाड़ियों को अगुवा कर लिया और एक-एक करके सबको समाप्त कर दिया। इस हमले से सारी दुनिया दहल गई, किन्तु आतंकवाद की इस धमकी के आगे न झुकते हुए इजराइली गुप्तचर संस्था मोसाद ने इस हत्याकांड में शामिल सभी आतंकियों को एक-एक करके मौत के घाट उतारा।
मोसाद ने ऐसे और भी अनेक चमत्कारिक ऑपरेशन्स किए हैं। दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी के जिस नाजी सैनिक अधिकारी ने ज्यू समुदाय को बर्बरतापूर्वक मौत के घाट उतारा था, वह युद्ध के बाद फरार हो गया था। मोसाद ने उसे सन 1961 में, अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स में ढूंढ निकाला। अडोल्फ़ आईशमन नाम का यह हिटलर का साथी वहां नाम और भेष बदलकर रह रहा था। मोसाद के लोगों ने उसे वहां से उठाया। इजराइल पहुचाया। और उस पर कानूनी कार्रवाई की। इजराइल के न्यायालय ने उसे मृत्युदंड की सजा सुनाई।
ऐसा ही एक अद्भुत वाकया हैं, ऑपरेशन एंटेबी । 27 जून, 1976 को मुस्लिम आतंकियों ने एयर फ्रांस का एक हवाई जहाज हाईजैक किया, जिसमें लगभग आधे यात्री ज्यू समुदाय के थे। इस विमान को वो आतंकी, युगांडा के एंटेबी में ले गए। उनकी मांग थी, इजराइल के जेलों में बंद चालीस इस्लामी आतंकियों को रिहा किया जाए। इजराइल ने इसका जबरदस्त जवाब दिया। दुनिया के इतिहास में पहली बार हवाई अपहरण की घटना में आतंकी पूर्णतः परास्त हुए। इजराइल डिफेन्स फोर्सेज (आईडीएफ) ने जवाबी कार्रवाई करते हुए 4 जुलाई, 1976 को अपने 106 यात्रियों में से 102 यात्रियों की सकुशल रिहाई कराई। इस ऑपरेशन में सभी 7 आतंकी मारे गए। उनको प्रश्रय देने वाले 45 युगांडन सैनिक भी मारे गए। युगांडा के एयर फोर्स के लगभग 30 फाईटर जहाज नष्ट किए। इजराइल का मात्र एक सैनिक मारा गया, वो था उनका कैप्टेन – योहन नेतान्याहू। इजराइल के प्रधानमंत्री, बेंजामिन नेतान्याहू का सगा भाई।
ऐसे अनेक, असंभव लगने वाले कारनामे, इज़राइल की सेना ने और उसकी गुप्तचर संस्था मोसाद ने कर दिखाएं हैं। सत्तर के दशक में इराक ने, फ्रांस की मदद से परमाणु बम बनाने की महत्वाकांक्षी योजना बनाई थी। अगर यह बम बन जाता, तो इज़राइल का अस्तित्व निश्चित रूप से खतरे में आता। इसलिए इजराइल के तत्कालीन प्रधानमंत्री मेनशेन बेगीन ने मोसाद को इन परमाणु भट्टियों को नष्ट करने के आदेश दिए। उन दिनों इज़राइल को F-16 युद्धक विमान, नए–नए मिले थे। इज़राइल ने इन्ही विमानों का प्रयोग कर, 7 जून, 1981 को अत्यंत गोपनीय पद्धति से, बम गिराकर इन भट्टियों को नष्ट किया ! सारा अरब जगत देखता रह गया, पर कुछ कर न सका।
युद्ध का अद्भुत कौशल, सुरक्षा में चुस्त, जासूसी में दुनिया में अव्वल यह सब तो इजराइल की विशेषता हैं ही, किन्तु इजराइल इनके परे भी हैं। इजराइल तकनीकी में अग्रेसर राष्ट्र है। यह अत्याधुनिक तकनीक का न सिर्फ प्रयोग करता हैं, वरना निर्माण भी करता हैं। इजराइल को ठीक से समझने के लिए इजराइल को पास से देखना जरूरी हैं।
मैं तीन बार इजराइल गया हूं। तीनों बार अलग-अलग रास्तों से। पहली बार लंदन से गया था। दूसरी बार पेरिस से। लेकिन तीसरी बार मुझे जाने का अवसर मिला, पड़ोसी राष्ट्र जॉर्डन से। राजधानी अम्मान से, रॉयल जॉर्डन एयरलाइन्स के छोटे से एयरक्राफ्ट से तेल अवीव की दूरी मात्र चालीस मिनट की है। मुझे खिड़की की सीट मिली और हवाई जहाज छोटा होने से, तुलना में काफी नीचे से उड़ रहा था। आसमान साफ था। मैं नीचे देख रहा था। मटमैले, कत्थे और भूरे रंग का अथाह फैला रेगिस्तान दिख रहा था। पायलट ने घोषणा की, कि – थोड़ी ही देर में हम नीचे उतरने लगेंगे। और अचानक नीचे का दृश्य बदलने लगा। मटमैले, कत्थे और भूरे रंग का स्थान हरे रंग ने लिया। अपनी अनेक छटाओं को समेटा हरा रंग।
रेगिस्तान तो वही था। मिटटी भी वही थी। लेकिन जॉर्डन की सीमा का इजराइल को स्पर्श होते ही मिटटी ने रंग बदलना प्रारंभ किया। यह कमाल इजराइल का है। उनके मेहनत और जज्बे का है। रेगिस्तान में खेती करने वाला इजराइल आज दुनिया को उन्नत कृषि तकनीकी निर्यात कर रहा है। रोज टनों से फूल और सब्जियां यूरोप को भेज रहा है। आज सारी दुनिया जिस ‘ड्रिप इरीगेशन सिस्टम’ को अपना रही है वह इजराइल की ही देन है।
मात्र अस्सी लाख जनसंख्या का यह देश। तीन से चार घंटे में देश के एक कोने से दूसरे कोने की यात्रा संपन्न होती है। मात्र दो प्रतिशत पानी के भण्डार वाला देश। प्राकृतिक संसाधन नहीं के बराबर। ईश्वर ने भी थोड़ा अन्याय ही किया है। आजु-बाजू के अरब देशों में तेल निकलता है, लेकिन इजराइल में वह भी नहीं।
इजराइल राजनीतिक जीवंतता और समझ की पराकाष्ठा का देश है। इस छोटे से देश में कुल 12 दल हैं। आज तक कोई भी दल अपने बलबूते पर सरकार नहीं बना पाया है। पर एक बात हैं – देश की सुरक्षा, देश का सम्मान, देश का स्वाभिमान और देश हित, इन मुद्दों पर पूर्ण एका है। इन मुद्दों पर कोई भी दल न समझौता करता है, और न ही सरकार गिराने की धमकी देता है। इजराइल का अपना नेशनल एजेंडा, जिसका सम्मान सभी दल करते हैं।
जब इजराइल बना, तब दुनिया के सभी देशों से यहूदी (ज्यू) वहां आये थे। अनेक देशों से आने वाले लोगों की बोली भाषाएं भी अलग-अलग थी। अब प्रश्न उठा की देश की भाषा क्या होना चाहिए ? उनकी अपनी हिब्रू भाषा तो पिछले दो हजार वर्षों से मृतवत पड़ी थी। बहुत कम लोग हिब्रू जानते थे। इस भाषा में साहित्य बहुत कम था। अतः किसी ने सुझाव दिया की अंग्रेजी को देश की संपर्क भाषा बनाई जाए। पर स्वाभिमानी ज्यू इसे कैसे बर्दाश्त करते ? उन्होंने कहा, ‘हमारी अपनी हिब्रू भाषा ही इस देश के बोलचाल की राष्ट्रीय भाषा बनेगी।’
इजराइल सरकार ने मात्र दो महीने में हिब्रू सिखाने का पाठ्यक्रम बनाया। और फिर शुरू हुआ, दुनिया का एक बड़ा भाषाई अभियान। और मात्र पाँच वर्षों में सारा इजराइल हिब्रू के मामले में शत-प्रतिशत साक्षर हो चुका था। आज हिब्रू में अनेक शोध प्रबंध लिखे जा चुके हैं। इतने छोटे से राष्ट्र में इंजीनियरिंग और मेडिकल से लेकर सारी उच्च शिक्षा हिब्रू में होती है। इजराइल को समझने के लिए बाहर के छात्र हिब्रू पढने लगे हैं।
ये है इजराइल.. जीवटता, जिजीविषा और स्वाभिमान का जीवंत प्रतीक..!
- सिद्धार्थ शंकर गौतम
लेखक व पत्रकार
जिस मलेरकोटला की रक्षा का वचन गुरु गोविन्द सिंह जी ने स्वयं दिया था उसी को पंजाब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने ईद के अगले दिन ही पंजाब का 23 वां व एकमात्र मुस्लिम बहुल जिला बनाकर मुस्लिमों को ईदी का तोहफा दिया है। नए बने जिले में मलेरकोटला शहर, अमरगढ़ और अहमदगढ़ सीमा में आएंगे। गौरतलब है कि 1941 में मलेरकोटला में 38 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की थी जबकि सिख 34 प्रतिशत और हिंदू 27 प्रतिशत थे। पूर्व में संगरूर जिले में आने वाला और अब नया जिला बना मलेरकोटला आज मुस्लिम बहुल हो चुका है।
मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने ट्वीट कर कहा कि यह साझा करते हुए खुशी हो रही है कि ईद-उल-फितर के पाक मौके पर मेरी सरकार ने घोषणा की है कि मलेरकोटला राज्य का नवीनतम जिला होगा। 23वें जिले का विशाल ऐतिहासिक महत्व है। जिला प्रशासनिक परिसर के लिए उचित स्थान का तत्काल पता लगान का आदेश दिया है। मलेरकोटला को जिला का दर्जा देना कांग्रेस का चुनाव से पहले किया गया एक वादा था। उन्होंने कहा कि देश की आजादी के वक्त पंजाब में 13 जिले थे। इस दौरान उन्होंने मलेरकोटला में 500 करोड़ रुपए की लागत से मेडिकल कॉलेज, एक महिला कॉलेज, एक नया बस स्टैंड और एक महिला पुलिस थाना बनाने की भी घोषणा की। मेडिकल कॉलेज के लिए वक्फ बोर्ड ने 25 एकड़ जमीन दी है जबकि लड़कियों के कॉलेज के लिए 12 करोड़ और बस स्टैंड के लिए 10 रुपए आवंटित करने की घोषणा भी की गई।
दरअसल, अमरिंदर सिंह ने मुस्लिम बहुल मलेरकोटला को जिला बनाकर कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को ही आगे बढ़ाया है। इससे पूर्व 1990 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ प्रसाद मिश्र ने मुस्लिम बहुल किशनगंज को जिला बनाकर एक नए विवाद को जन्म दिया था। आज यह क्षेत्र बांग्लादेशी मुस्लिम अवैध घुसपैठियों के लिए स्वर्ग है। इसी प्रकार 2005 में हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा ने मेवात को जिला बनाकर इस क्षेत्र को मिनी पाकिस्तान बना डाला। अभी एक साल पहले तक मेवात में हिन्दुओं के ऊपर हुए अत्याचारों व उनके पलायन की ख़बरों ने देश को झकझोर दिया था।
देखा जाए तो पंजाब की कांग्रेस सरकार ने मुस्लिम बहुल मलेरकोटला को जिला बनाकर अपनी वाम समर्थित विचारधारा का ही परिचय दिया है। बिना वाम विचारधारा के कांग्रेस कुछ नहीं है। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि 1969 में वरिष्ठ वामपंथी और केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ई.एम.एस.नम्बूदिरीपाद ने मुस्लिम बहुलता के आधार पर पहली बार मललप्पुरम जिले का गठन किया था जो आज कट्टरवादी मुस्लिमों के संगठन पीएफआई की आतंकी गतिविधियों का गढ़ बन चुका है।
कुल मिलाकर कांग्रेस सदा से ही हिंदुत्व को लेकर असहज रही है और 2014 के बाद राष्ट्रीय फलक पर नरेन्द्र मोदी के आने से उसके सॉफ्ट हिंदुत्व को झटका लगा है। मुस्लिमों के एकजुट वोट बैंक को लेकर उसकी राजनीति हमेशा से ही मुस्लिमों के इर्द-गिर्द चलती रही है। याद कीजिये मनमोहन सिंह सरकार के समय की सच्चर समिति की उस रिपोर्ट को जिसमें कहा गया था कि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में प्रशासनिक अधिकारी से लेकर अन्य शासकीय नियुक्तियां मुस्लिम होना चाहिए ताकि वहां की बहुसंख्यक आबादी उनके साथ सहज हो। ऐसा होना प्रारंभ भी हुआ था किन्तु नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस प्रथा पर रोक लगी।
मुस्लिम समाज भी ऐसा चाहता है कि जहां उसकी बहुतायत हो वहां उन्हीं की कौम के अधिकारी रहें, जबकि यह संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है किन्तु इतिहास गवाह है कि कांग्रेस ने कभी संविधान के हिसाब से चलना स्वीकार नहीं किया है। अब जबकि हिन्दू कांग्रेस की मुस्लिमपरस्ती को समझ चुका है वह एक बार पुनः मुस्लिम वोट बैंक के सहारे देश में धर्म के नाम पर विभेद पैदा कर राज करने की मंशा पाले बैठी है। मुस्लिम बहुल मलेरकोटला को जिला बनाने का निर्णय हमें इसी परिपेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है।
अब सवाल यह है कि मुस्लिम बहुल जिलों के इतिहास को देखते हुए क्या मलेरकोटला शांत रह पायेगा? क्या यहाँ रहने वाले सिख और हिन्दू भाई-बहन सुरक्षित रहेंगे? क्या फतेहगढ़ साहिब गुरुद्वारा (जिस स्थान पर गुरु गोविन्द सिंह जी के दोनों बेटों को दीवार में जिन्दा चुनवा दिया गया था उन्हीं की याद में बनाया गया) और किसी अशांति का गवाह नहीं बनेगा? क्या कांग्रेस भारत में अन्दर ही अन्दर कई पाकिस्तान बनाने का प्रयास कर रही है? प्रश्न कई हैं जिनका उत्तर भविष्य के गर्भ में है। फिलहाल तो सिख-मुस्लिम भाई-भाई के नारे पर चढ़कर पंजाब की कांग्रेस सरकार सेकुलरिज्म की नई मिसाल पेश कर रही है।
- प्रहलाद सबनानी
बैंकिंग सेवा के पूर्व अधिकारी और आर्थिक मामलों के जानकार
देश में कोरोना महामारी के दूसरे चरण के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था के मजबूत बने रहने के संकेत मिले हैं। विगत अप्रैल माह के दौरान देश में जीएसटी संग्रहण, पिछले सारे रिकॉर्ड को पार करते हुए, एक नए स्तर पर पहुंच गया। अप्रैल में 141,384 करोड़ रुपए का जीएसटी संग्रहण हुआ है। यह इसी मार्च माह में संग्रहित की गई राशि से 14 प्रतिशत अधिक है। पिछले 7 माह से लगातार जीएसटी संग्रहण न केवल एक लाख रुपए की राशि से अधिक बना हुआ है बल्कि इसमें लगातार वृद्धि दृष्टिगोचर हो रही है।
इसी प्रकार, वित्त वर्ष 2020-21 में सकल व्यक्तिगत आयकर (रिफंड सहित) में पिछले वित्त वर्ष की तुलना में 2.5 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है। आयकर संग्रह में वृद्धि तब हुई है, जब केलेंडर वर्ष 2020 में अधिकतर समय पूरे देश में तालाबंदी लगी हुई थी। वित्त वर्ष 2020-21 में रिकॉर्ड रिफंड जारी किए गए। इसके बावजूद शुद्ध प्रत्यक्ष कर संग्रहण 9.5 लाख करोड़ रुपये का रहा है। पिछले चार सालों में पहली बार कुल प्रत्यक्ष कर संग्रहण संशोधित अनुमान से ज्यादा रहा है। हालांकि, निगमित कर संग्रह 6.4 लाख करोड़ रुपये रहा, जो वित्तीय वर्ष 2019-20 के कर संग्रहण 6.7 लाख करोड़ रुपये से कुछ ही कम है।
2.34 करोड़ व्यक्तिगत करदाताओं को करीब 87,749 करोड़ रुपये का आयकर रिफंड किया गया, जबकि निगमित कर के मामलों में 1.74 लाख करोड़ रुपये के रिफंड किए गए। उल्लेखनीय है कि 94 प्रतिशत से ज्यादा मामलों में करदाताओं का स्पष्टीकरण मान लिया गया है और अतिरिक्त कर या जुर्माना नहीं लगाया गया। सिर्फ 1600 मामलों में यह माना गया है कि आय कम करके दिखाई गई है। उक्त कारणों के चलते वर्ष 2020-21 में शुद्ध प्रत्यक्ष कर संग्रह में कुछ कमी इसलिए भी आई है, क्योंकि अर्थव्यवस्था पर महामारी का नकारात्मक प्रभाव देखकर सरकार द्वारा रिफंड के मामलों का एक निश्चित समय-सीमा के अंदर निपटारा किया गया है।
सकल प्रत्यक्ष कर संग्रह 12.1 लाख करोड़ रुपये रहा, जो पिछले साल के 12.33 लाख करोड़ रुपये के करीब है। माना जा रहा है कि अग्रिम कर में उल्लेखनीय वृद्धि से व्यक्तिगत आयकर संग्रह में वृद्धि हुई है। सकल व्यक्तिगत आयकर संग्रहण वित्तीय वर्ष 2019-20 के 5.55 लाख करोड़ रुपये की तुलना में वित्तीय वर्ष 2020-21 में करीब 5.7 लाख करोड़ रुपये रहा है। बावजूद इसके कि वित्तीय वर्ष 2020-21 में प्रत्यक्ष कर रिफंड पिछले साल की तुलना में 43.3 प्रतिशत अधिक है। केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) ने 2.38 करोड़ से ज्यादा करदाताओं को 2.62 लाख करोड़ रुपये के रिफंड जारी किए हैं। पिछले साल 1.83 लाख करोड़ रुपये के रिफंड जारी किए गए थे।
जीएसटी एवं प्रत्यक्ष कर संग्रहण के इत्तर अगर हाल ही के समय में उद्योग क्षेत्र में दर्ज की गई वृद्धि दर की बात की जाय तो मार्च 2021 में 8 कोर क्षेत्र के उद्योगों द्वारा 6.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। सीमेंट उत्पादन में तो रिकार्ड 32.5 की वृद्धि दृष्टिगोचर हुई है। यह वृद्धि दर इन उद्योगों द्वारा उपयोग की गई ऋण की राशि में भी हुई वृद्धि दर से मिलान दिखाती नजर आ रही है। मार्च 2021 माह में मध्यम उद्योगों द्वारा उपयोग की गई ऋण की राशि में 28.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है जबकि मार्च 2020 के दौरान इन उद्योगों के ऋण की राशि में 0.7 प्रतिशत की ऋणात्मक वृद्धि दर रही थी।
विदेशी व्यापार के क्षेत्र में भी अच्छी खबर आई है। भारत द्वारा विदेशों को किए जाने वाले निर्यात की राशि में भी बहुत अच्छी वृद्धि दर्ज की गई है। जनवरी-मार्च 2021 तिमाही के दौरान भारत के निर्यात में 20 प्रतिशत की प्रभावशाली वृद्धि दर्ज हुई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निर्यात करने वाले सबसे बड़े देशों के बीच यह वृद्धि दर चीन के बाद दूसरे नम्बर पर आती है। विश्व व्यापार संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, केलेंडर वर्ष 2021 के दौरान, वैश्विक स्तर पर भी विदेशी व्यापार में 8 प्रतिशत की असरदार वृद्धि दर रह सकती है, जबकि इसमें केलेंडर वर्ष 2020 के दौरान 5.3 प्रतिशत की कमी दृष्टिगोचर हुई थी।
मुख्यतः कपड़ा उद्योग, जेम्स एवं ज्वेलरी उद्योग, पेपर उद्योग, लेदर उद्योग, ग्लास उद्योग, लकड़ी उद्योग एवं खाद्य पदार्थ प्रसंस्करण उद्योग द्वारा उपयोग किए गए ऋण की राशि में, माह मार्च 2021 में, माह मार्च 2020 की तुलना में, वृद्धि दर अधिक रही है। कृषि क्षेत्र द्वारा उपयोग की गई ऋण की राशि में भी माह मार्च 2021 के दौरान 12.3 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है जबकि माह मार्च 2020 में यह वृद्धि दर मात्र 4.2 प्रातिशत की रही थी। उक्त उद्योगों द्वारा ऋण की अधिक राशि का उपयोग करने का आशय यह है कि इन उद्योगों में उत्पादन गतिवधियों का स्तर बढ़ रहा है।
कृषि क्षेत्र एवं विभिन उद्योगों में बढ़ते उत्पादन के स्तर को देखते हुए भारतीय रिज़र्व बैंक ने भी भारत के सकल घरेलू उत्पाद में वित्तीय वर्ष 2021-22 के दौरान 10.5 प्रतिशत की वृद्धि दर का अनुमान लगाया है जबकि वित्तीय वर्ष 2020-21 में देश के सकल घरेलू उत्पाद में 8 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई थी। भारतीय रिज़र्व बैंक के ही अनुमान के अनुसार वित्तीय वर्ष 2021-22 की प्रथम तिमाही में देश के सकल घरेलू उत्पाद में 26.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज होगी, वहीं द्वितीय तिमाही में यह वृद्धि दर 8.3 प्रतिशत की रह सकती है, तृतीय तिमाही में यह दर 5.3 प्रतिशत की रह सकती है और चतुर्थ तिमाही में 6.2 प्रतिशत की वृद्धि दर रह सकती है।
वित्तीय वर्ष 2020-21 के प्रथम माह अप्रेल 2021 माह में जीएसटी का शानदार संग्रहण, मध्यम उद्योग एवं कृषि क्षेत्र द्वारा ऋणों का अधिक उपयोग, निर्यात के क्षेत्र में आई तेजी एवं देश में कोरोना महामारी को रोकने के उद्देश्य से तेजी से चल रहे टीकाकरण से यह विश्वास हो चला है कि कोरोना महामारी के दूसरे दौर के बावजूद देश की अर्थव्यवस्था वित्तीय वर्ष 2020-21 के दौरान तेज गति से आगे बढ़ने की ओर तत्पर दिखाई दे रही है।
- सुयश त्यागी
स्वतंत्र पत्रकार व लेखक
सोशल मीडिया का उदय कुछ लोगों के लिए सिर्फ मनोरंजन का एक साधन हो सकता है, पर जब हम वैश्विक पटल पर इसका प्रभाव देखेंगे तो किसी भी लोकतांत्रिक देश के संविधान में दी हुई अभिव्यक्ति की आजादी की कल्पना के वास्तविक स्वरूप इसके उदय के बाद ही बल मिला है। आज हर व्यक्ति के पास समाज के समक्ष अपनी बात रखने की एक ताकत है, एक आवाज है और ना जाने कब उसकी आवाज, एक सामूहिक आवाज का रूप बन जाये, उसकी कल्पना करना भी मुश्किल है।
देश में कई प्रतिभाशाली लोगों को सोशल मीडिया के माध्यम एक ऐसा मंच मिला है, जिसके चलते उनमें छुपी रचनात्मकता व सृजनशीलता का समाज से परिचय हुआ है। आज समाज में ऐसे ही होनहार कई सोशल मीडिया सेलेब्स ने अपना एक खास स्थान बना रखा है। आज एक वर्ग ऐसा भी है, जो ना ही कोई न्यूज़ देखता और ना ही कोई अखबार पढ़ता है पर इन सोशल मीडिया की जानी-मानी हस्तियों से अनेक प्लेटफार्म पर देश भर की गतिविधियों की जानकारी प्राप्त कर लेता है। यहां तक देश के कई पीड़ितों को सोशल मीडिया पर आंदोलन खड़े करने से ही परिणाम मिले हैं।
कभी एक दौर हुआ करता था, जब टी.वी और अखबार पर आने वाली सभी खबरों को सच माना जाता था। किसी भी व्यक्ति के पास उस पर विश्वास करने के अलावा कोई विकल्प ना था। उसकी प्रमाणिकता जांचने का कोई माध्यम ही ना था। पर आज हर व्यक्ति के पास सही-गलत तय करने की एक ताकत है और यही निष्पक्ष ताकत कभी-कभी देश में बड़े सकारात्मक बदलाव लेकर आती है।
हाल हीं में सोशल मीडिया पर एक खबर चली। भारत के लोगों को वैक्सीन उपलब्ध नही हो रही और सरकार विदेशों में निर्यात कर रही है। वास्तव में आधा सत्य कभी-कभी झूठ से भी अधिक घातक होता है और इस वाकये पर कई पोस्ट आपने जरूर देखी होगी, किसी ना किसी व्यक्ति ने अज्ञानवश या अपने तय एजेंडा तहत ये पोस्ट की ही होगी, जो आपके फ़ेसबुक, ट्विटर या इंस्टाग्राम से होकर एक ना एक बार जरूर गुजरी होगी। हम क्यों खबरों को ऊपरी सतह पर ही परखकर सत्य मान लेते है, आखिर गूगल पर फैक्ट चेक करने में समय ही कितना लगता है ? हम एकाउंट से गलत खबर चला देंगे पर थोड़ा समय निकालकर उसकी प्रमाणिकता नही देखेंगे।
वैक्सीन के विषय में बात करें, तो अभी हाल ही में भारत के विदेश मंत्री एस.जयशंकर ने एक साक्षात्कार में बताया वैश्विक स्तर पर देशों के बीच अनेक करार होते है और देशों के बीच का व्यापार वैश्विक बाजार की शर्तों पर होता है ना कि घरेलू शर्तों। वैक्सीन बनाने के लिए लगने वाला कच्चा माल कई देशों से लिया जा रहा, उसके तहत उत्पादन के बाद उन्हें कुछ वैक्सीन देने का करार हुआ था, जिसके तहत ये निर्यात हुए है। अगर हम करार तोड़ेंगे तो विदेशों से आने वाला कच्चा माल रुक जाएगा और वैक्सीन के उत्पादन के लिए मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।
पहले जब वैक्सीन लगवाने लोग आ नही रहे थे। उत्पादन लगातार बढ़ रहा था तब एक-दो देशों को वैक्सीन दी भी गई। पर जब से भारत के लोगों में वैक्सीन लगवाने के लिए जागरूकता आई है, लगभग पूरा उत्पादन भारत में ही लगाया जा रहा है। ऐसी भ्रामक खबरे चलाने वाला यह वही वर्ग है जो कुछ समय पूर्व देश में वैक्सीन के कारगर ना होने का आरोप लगा रहा था। जगह-जगह प्रेस कॉन्फ्रेंस कर जनता से वैक्सीन ना लगवाने का आग्रह कर रहा था और आज फिर करार के तहत हो रहे निर्यात पर प्रश्न उठाकर भारत की छवि धूमिल कर रहा है। यह वही वर्ग है जिसने समाजवाद और साम्यवाद का चोला ओढ़कर उद्योगों और मशीनों का विरोध कर सालों तक भारत को सुविधा और तकनीक विहीन रखा और आज ऑक्सीजन की आपूर्ति कर रहे उद्योगों पर भी मनमानी का दोषरोपण कर राजनीति का निष्कृष्ट रूप प्रस्तुत कर रहा है।
भारत की जनता को फिजूल के मुद्दों पर उलझाकर देश में एक नकारात्मक वातावरण बनाना ही इनका एक मात्र लक्ष्य है। ये वर्ग आपको अपने वर्षों तक रहे कार्यकाल पर सवाल नही करने देगा। वह यह नही बताएगा आजादी के इतने वर्ष बाद भी स्वास्थ्य और शिक्षा की बात करने वाले दल ने कितने एम्स और शैक्षिक संस्थान खोले। वह यह भी नही बताएगा कि अफजल की फांसी से लेकर बाटला हाउस एनकाउन्टर पर आंसू बहाने की जगह अगर समय रहते देश की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर ही गंभीरता से ध्यान दिया जाता तो शायद आज ये हालात ना होते। वर्तमान में महाराष्ट्र में सौ करोड़ की मासिक वसूली का प्रसंग हो या फिर 2014 के पहले हो रहे लाखों करोड़ों के घोटालों का, आपको ये वर्ग बस जातीय ध्रुवीकरण व सामाजिक तुष्टिकरण का ही गलत स्वरूप दिखाता रहेगा और देश व समाज को विभिन्न वर्गों में बांटने का प्रयास करता रहेगा।
हाल ही में एक जाने माने पत्रकार ने अपने सोशल मीडिया एकाउंट से एक टेंट के नीचे लेटे कुछ मरीजों की फोटो साझा की, जिन्हें बॉटल व ऑक्सीजन लगी हुई थी। उस पर हेडिंग दी गुजरात का स्वास्थ्य मॉडल। उनकी उसी पोस्ट पर एक दूसरे पत्रकार ने पूछा आखिर गुजरात के किस जिले की खबर है? उन्होंने जवाब दिया – जिला तापी गुजरात। कुछ देर बाद दूसरे पत्रकार ने उस चित्र से जुड़ा एक वीडियो शेयर किया और उस पर लिखा – ये मेरे द्वारा की हुई रिपोर्टिंग है और ये तस्वीर नवापूर महाराष्ट्र से है, ना कि गुजरात से। अपनी किरकिरी होते देख मजबूरन पत्रकार महोदय को अपनी पोस्ट हटानी पड़ी।
ऐसे एजेंडा आधारित प्रसंगों को देख आज सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत के साथ उसके दुरुपयोग की भी अधिक चिंता है। देश के प्रत्येक नागरिक का जागरूक व टेक्नोलॉजी से यूजर फ्रेंडली होना आज डिजिटल दुनिया के युग में एक बड़ी जिम्मेदारी है। इस बढ़ती जिम्मेदारी के साथ हमारा देश आज एक महामारी से भी गुजर रहा है। ऐसे में जब व्यक्ति घरों में बंद हो, करने को कोई काम ना हो, हर तरफ दहशत का मौहाल हो, तो जाहिर सी बात है, यही उसका मनोरंजन का अंतिम व आसान विकल्प होगा। ऐसे में फेक न्यूज़ की मंडियां भी अपने जोरों पर है। कब वहां से कोई फेक न्यूज़ पढ़कर वो अपने परिचितों को भेज दे, उसे कुछ खबर ही नही होती।
आज देश की अधिकांश जनता इन भ्रामक खबरों के चलते कोरोना एक्सपर्ट भी बन बैठी है, जो कभी-कभी अपने घर पर ही किसी कोरोना से पीड़ित मरीज का व्हाट्सएप्प के माध्यम से प्राप्त जानकारी के आधार पर ही उपचार शुरू कर देती हैं। इन नादानियों से आज हमें स्वयं भी बचना है व समाज को भी बचाना है। सभी राज्य व केंद्र की सरकार व अनेक सामाजिक संस्थाओं द्वारा विशषज्ञों के नंबर लगातार जारी किये जा रहे हैं। बिना सोचे समझे और डॉक्टर के परामर्श के बिना हमें किसी भी प्रकार के प्रयोग से बचना चाहिए और शासन द्वारा जारी किये गए निर्देशों का ही पूर्ण रूप से पालन कर देश व समाज की भलाई में अपना योगदान देना चाहिए।
- प्रवीण गुगनानी
लेखक व स्वतंत्र स्तंभकार
बंगाली में एक कहावत है – डूबे डूबे झोल खाबा। इसी भावार्थ की एक देसी कहावत है – ऊंट की चोरी नेवड़े नेवड़े नहीं हो सकती। दोनों ही कहावतों का एक सा अर्थ है कि बड़ी चोरी आज नहीं तो कल पकड़ी ही जाएगी। पश्चिम बंगाल में हिंदू हितों की चोरी ममता दीदी की एक ऐसी ही चोरी थी जिसका पकड़ा भी जाना तय था और उसका दंड मिलना भी तय था। तुर्रा यह था की यहां ममता दीदी द्वारा हिंदू हितों को चोरी करना या बलि चढ़ाने का कार्य डूबे डूबे झोल खाबा की शैली में नहीं, बल्कि बड़ी ही बेशर्मी से सीनाजोरी करके किया जा रहा था। चोरी ऊपर से सीनाजोरी करने की ही हद थी जब ममता दीदी ने उनके द्वारा प्रतिवर्ष कराए जाने वाले एक कार्यक्रम में कहा था – ”पश्चिम बंगाल में 31 फीसद मुस्लिम हैं। इन्हें सुरक्षा देना मेरी जिम्मेदारी है और अगर आप इसे तुष्टीकरण कहते हैं तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है।” यहां उल्लेखनीय है कि ममता दीदी उन्हें केवल सुरक्षा नहीं दे रही थी, बल्कि मुस्लिमों को हिन्दुओं के विरुद्ध समय-समय पर भड़का रही थी और हिंदुओं को बार-बार चिढ़ा रही थी।
ममता दीदी पंडालों में दुर्गा पूजा व विद्यालयों में सरस्वती पूजा को रोक रही थी। मुहर्रम के कारण दुर्गा विसर्जन की तिथियां आगे बढ़ाई जा रही थी। मुस्लिमों हेतु नई सस्ती, सहज, आसान कर्ज नीति लाई जा रही थी। उनके लिए नई रोजगार नीति, मदरसों को धड़ाधड़ मान्यता व सहायता, आवास सब्सिडी, आवास भत्ता, फुरफुरा शरीफ डेवलपमेंट अथारिटी के माध्यम से वित्तीय सहायता से लाद देना, दो करोड़ बच्चों को छात्रवृत्ति, मुस्लिमों को उच्च शिक्षा व सरकारी नौकरी में 17% आरक्षण आदि आदि ऐसे कार्य थे जो मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए तीव्र गति से किए जा रहे थे। ममता दीदी के लिए इस चुनाव में संकट बन चुके अब्बास सिद्दीकी भले ही भाजपा से चिढ़कर कहते हों, किंतु कहते अवश्य हैं कि – “मुहर्रम के कारण दुर्गा विसर्जन की तिथि आगे बढ़ाये जाने के निर्णय गलत थे।”
बंगाल में 35 वर्ष वामपंथ का शासन व 10 वर्ष ममता दीदी का शासन वस्तुतः ऐसा शासन था जिसमें राम के इस प्रदेश में राम का नाम लेना ही गुनाह हो गया था। वामी तो राम के विरोधी थे ही, दीदी उनसे भी बड़ी राम विरोधी निकली और चलती गाड़ी से स्वयं निकलकर जय श्रीराम के नारे लगाते बच्चों को बड़ी ही निर्लज्जता से डांटने लगी थी। बच्चों को श्रीराम का नारा लगाने पर डांटना एक छोटी किंतु प्रतीकात्मक बड़ी घटना है जिसके बड़े ही विशाल अर्थ निकलते हैं।
अतीव ईश्वरवादी, संस्कृतिनिष्ठ व राष्ट्र्प्रेमी प्रदेश बंगाल में 35 वर्षो तक अनीश्वरवादी व संस्कृति विरोधी वामियों व 10 वर्षों का ऐसा ही ममता का शासन अपने आप में आश्चर्य का ही विषय है। 45 वर्षों के इस रामविरोधी या यूं कहें हिंदू विरोधी शासनकाल में भाजपा बंगाल में 2016 तक एक-एक विधानसभा सीट जीतने को भी तरसती रही। इसी मध्य चमत्कार हुआ जब 2018 के पंचायत चुनाव में भाजपा ने अच्छा-खासा मत लेकर सनसनी फैला दी। फिर यहां से प्रारंभ हुई बंगाल में वामपंथ से रामपंथ की यात्रा, जिसका अगला पड़ाव 2019 के लोकसभा चुनाव में आया और भाजपा को बंगाल ने जयश्रीराम कहते हुए 40 प्रतिशत मत व 42 में से 18 लोकसभा सीटें दे दी।
वर्तमान समय में जबकि विधानसभा चुनाव के पांच चरण संपन्न हो चुके हैं तब बंगाल में पुराने वामपंथी भी एक सुर में यह कहते दिखाई दे रहे हैं कि – “21 में राम और 26 में वाम” यानि वर्तमान में सत्ता ममता से लेकर भाजपा को दे दो और फिर 2026 के विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चा की सरकार पुनः ले आओ। आश्चर्यजनक है किंतु यही सत्य है। बंगाल में मैदानी स्तर पर यह बात सतह से ऊपर आकर दिख रही है। बंगाल में मृत्युशैया पर पड़े वामपंथ का अब यही मंतव्य भी है और नियति भी। सार यह कि ममता को सबक सिखाने का मन बंगाल ने बना लिया है।
ये सब अचानक नहीं हुआ है, मुस्लिम तुष्टिकरण की दीदी की नीति ने बंगाल की जनता को विवश कर दिया था। भाजपा के घोर विरोधी व ममता के समर्थक माने जाने वाले नोबेल सम्मानित अर्थशास्त्री अमृत्य सेन की संस्था प्रतीचि ट्रस्ट ने अपनी 2016 की रिपोर्ट “लिविंग रिएलिटी ऑफ़ मुस्लिम्स इन वेस्ट बंगाल” में कहा था कि तृणमूल के प्रभाव वाले क्षेत्रों में मुसलमानों की स्थिति अन्य लोगों की अपेक्षा बहुत सुधर गई है। हावड़ा के पंचपारा मदरसे के बड़े इमाम के अनुसार – ” ममता बनर्जी के आने के बाद से स्थिति बेहतर हुई है। अब बच्चों को राशन, कपड़ा, किताबें सब कुछ मिलता है। पुरानी सरकार की तुलना में इस सरकार ने बेहतर काम किया है।
हुबली के एक शख़्स मोहम्मद फ़ैसल का कहना है कि “दीदी ने जो काम किया है, उसके बाद दीदी के खिलाफ कोई नहीं जा सकता है। दीदी ने जो हम लोगों के लिए किया है, हमारे बच्चों के लिए किया है, वैसा कभी नहीं हुआ। हम लोग बहुत ख़ुश हैं दीदी के राज में। दीदी ने हम लोगों का बहुत ध्यान रखा है।” एक बात यह भी बड़ी विशेष है कि ममता राज में बंगाल पुलिस में भी मुस्लिम नियुक्ति का अनुपात भी बड़े आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ गया है। कम शिक्षित मुस्लिम समाज को अधिक शिक्षित हिंदू समाज की अपेक्षा अधिक नौकरियां मिलना भला बिना किसी उच्चस्तरीय षड्यंत्र के कैसे संभव है? ममता दीदी द्वारा राज्य की 97 प्रतिशत मुस्लिम जनता को ओबीसी में सम्मिलित कर लिया जाना एक बड़ा सामाजिक अन्याय और असमानता उत्पन्न करने का कारण है यहां।
इन कष्टप्रद व संघर्षप्रद परिस्थितियों में 2019 के लोकसभा चुनाव के पूर्व भाजपा के चाणक्य अमित शाह ने संगठन सुदृढ़ करने हेतु मध्यप्रदेश के कद्दावर नेता व हरियाणा चुनाव में प्रभारी के तौर पर स्वयं को सिद्ध कर चुके कैलाश विजयवर्गीय को बंगाल भेजा। कैलाश विजयवर्गीय ने भी जैसे इंदौर को छोड़कर बंगाल को अपना घर ही बना लिया। अथक परिश्रम, सुदृढ़ योजना, कार्यकर्ताओं के घर परिवार तक पहुंचना, उनके दुःख सुख में सतत सम्मिलित होना, केंद्र सरकार की योजनाओं को बंगाल में सुव्यवस्थित रीती-नीति से संचालित करना आदि कैलाश विजयवर्गीय की इस सफल कार्यशैली की विशेषताएं रही है।
भाजपा के प्रदेश प्रभारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बंगाली जनता के विश्वास को मतों में बदलने में सफल होते दिखाई पड़ रहे हैं। इन सब कार्यों से बंगाल में भाजपा का संगठन नये सिरे से खड़ा होता चला गया। बंगाल में एक नया राष्ट्रीय भाव भी सम्मिलित होता चला गया और वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राग में राग मिलाकर “आमार शोनार बांग्ला” भारत माता की जय का भी जयघोष करने लगा। बंगाल की भद्र जनता को “खेला होबे” जैसा असभ्य नारा चिढ़ा रहा है, शोनार बांग्ला के लोग कभी खिलंदड़ नहीं रहे हैं। वे समूचे भारत को बौद्धिक दिशा देने में सक्षम लोग रहे हैं। बंगाल के इस विधानसभा चुनाव में बंगाल की जनता शेष राष्ट्र को क्या संदेश देती है यह देखना बड़ा ही रुचिकर व चर्चा का विषय रहने वाला है।
- सुयश त्यागी
स्वतंत्र पत्रकार व लेखक
कोरोना संक्रमण की बढ़ती रफ्तार से ना केवल भारत अपितु सम्पूर्ण विश्व एक गंभीर संकट झेल रहा है। भारत में पिछली लहर के मुकाबले इस लहर से संकट कई अधिक गहरा गया है। संकट गहराने की मुख्य वजह संक्रमण का शहरों के साथ ग्रामों की ओर रुख करना है। लगातार बढ़ते मरीजों के अनुपात में बढ़ती स्वास्थ्य जरूरतों का एक बड़ा अभाव समाज में दिखता है। शासन प्रशासन की पुरजोर कोशिशों के बाद भी शहरों से लेकर ग्रामों तक नागरिकों की पीड़ा उमड़ रही है।
महामारी के प्रकोप से चरमराती व्यवस्था में भारत के अनेक ग्रामों से नागरिकों का शासन से प्रश्न उठना जायज है, पर उन उठते प्रश्नों में गांधी जी की ग्राम स्वराज की अवधारणा से फलीभूत नागरिकों से भी कुछ प्रश्नों का स्वतः समरण हो उठता है। गांधी जी का मानना था भारत का विकास यहां के ग्रामों को केंद्र में रखे बिना संभव नही। उनका चिंतन ग्रामों का भौतिक रूप से पुनर्निर्माण का नही अपितु उन्हें आत्मनिर्भर बनाना था।
कोरोना संक्रमण शहरों की तरह ग्रामों में भी तेजी से पांव पसार रहा है, वहां की स्वास्थ्य सुविधाओं का शहरों से मुकाबला करना ही एक बेमानी सी होगीl गांधी जी की ग्राम स्वराज के माध्यम से ग्राम में निवासरत प्रत्येक ग्रामवासी की भारत के शासन में कैसे सहभागिता हो इसकी कल्पना थी, पर वर्तमान परिदृश्य में वो कल्पना अधूरी सी प्रतीत होती है।
आज हर दूसरा व्यक्ति स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार के लिए राज्य से लेकर केंद्र सरकार तक दोषारोपण करता है। बड़े नेताओं को सड़कों पर कोसता है, किंतु स्वयं के कर्तव्यों का विश्लेषण नहीं करता। अपने दायित्व का कभी बोध नही करता। प्रश्न भी तब करता है, जब बात हाथ से निकल चुकी होती है और उसके वो प्रश्न समाज में एक तनाव, अराजक व नकारात्मक वातावरण की स्तिथि उत्पन्न करने के सिवाय कुछ बड़ा बदलाव नही कर पाते।
उसे कभी स्वयं के मूलभूत अधिकारों की भी विवेचना करनी चाहिए कि उसने अपने ग्राम में होने वाली ग्राम सभाओं में कितनी बार ग्राम के विकास की योजना में सहभागिता ली होगी? कितनी बार अपने ग्राम के सरपंचों से वहां के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों या विद्यालयों की स्थिति पर ध्यान केंद्रित करवाया होगा? कितनी बार वहां पर साक्षरता, स्वच्छ्ता, कोरोना से बचने के लिए जनजागरण जैसे मुद्दों को उठाया होगा? कितनी बार वहां के विकास कार्य, निर्माण कार्य में लगी राशि का जनपद और खंड कार्यालयों में जाकर सत्यापन करवाया होगा? कितनी बार उसने ग्राम में कार्य कर रहे शासकीय कर्मचारियों से काम को गंभीरता व समय के पाबंदी से करने का आग्रह किया होगा?
आखिर करे भी तो क्यों! हर कार्यरत्त व्यक्ति ग्राम स्तर पर उसका कहीं ना कहीं परिचित या रिश्तेदार ही होगा। अपने आस-पड़ोस ग्राम और शहर का हाल देख वो पीड़ित भी होता है और लोगों की जवाबदेही तय करने से भी डरता है। हालांकि गलती उसकी भी नही है, ये मानव स्वभाव होता ही ऐसा है, अपनी व समाज की गलतियों को दूसरों पर मढ़ने के लिए हमेशा व्यक्ति सॉफ्ट टारगेट ही चुना करते हैं। गांव में बैठा कोई व्यक्ति राज्य के मुख्यमंत्री या देश के प्रधानमंत्री को कोस कर अपनी कुंठा निकाल लेगा, जमघट लगाकर उसकी निंदा कर लेगा, किंतु स्थानीय स्तर पर जायज लोगों से कभी प्रश्न नही करेगा और ना ही कभी कोई बड़ा बदलाव ला पायेगा।
वो गांव के पंच, सरपंच, जनपद और प्रतिनिधियों से संवाद नही करेगा। उनका उपयोग शायद वो बस अपने घर में होने वाले सामाजिक कार्यक्रमों में शोभा बढ़ाने के लिए ही करेगा। उसे अपने गांव के विकास से ज्यादा इस बात की चिंता रहेगी कि जनप्रतिनिधि सबसे पहले उसके घर पर आकर विराजमान हो, जिससे उसका व उसके परिवार का उसके गांव व आसपास के क्षेत्र में सम्मान बढ़े।
वो परिवर्तन जरूर लाना चाहता है पर उसका वो परिवर्तन सिर्फ विचारों तक ही सीमित है। जब बात वास्तविकता के धरातल पर आएगी तो प्रश्न कभी उसके परिजन पर उठेंगे तो कभी उसके परिचितों पर, जिससे उसकी क्रांति क्षणभर में शून्य होकर अधूरी रह जाएगी। उसे दूसरों राज्य में या किसी शहर में हुए चुनाव दिखेंगे। हरिद्वार में हुआ कुंभ दिखेगा, पर जब वो उनका असर अपने ग्राम पर देखेगा तो उसे दिखेगा की वहां ना अभी चुनाव थे, ना ही कुंभ और ना उन कारणों से वहां संक्रमण फैला, फिर आखिर क्यों उस ग्राम में ऐसी परिस्तिथि का निर्माण हो गया। मूल बात को छोड़कर वो हर अनर्गल बात करेगा, स्वयं तो भ्रमित बैठा ही है दूसरों को भी निरंतर भ्रमित करेगा।
अगर वास्तव में आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी ग्रामों में जमीनी स्तर पर ऐसे बड़े बदलाव आये होते तो यकीनन उनका असर आज ऊपर तक दिखता। वास्तविकता में क्क्त अभी खामियां निकालने की नहीं, ग्राम स्तर से लेकर केंद्र स्तर तक एकजुट होकर इस महामारी से लड़ने का है। आज इस महामारी से पीड़ा की घड़ी में जिला अस्पताल और ब्लॉक स्तर पर बने अस्पतालों की व्यस्तता किसी से छुपी नही है। ऐसे में इस देश में कितने ऐसे गांव होंगे जिन्होंने स्वयं के क्वारंटाइन सेन्टर निर्मित किए होंगे?
प्रदेश और देश की चुनी हुई सरकार आपकी है, तो आपके ग्राम, आपके क्षेत्र का चुना हुआ सरपंच या प्रतिनिधि भी आपका ही है। वहां अनेक-अनेक दायित्वों पर बैठे विभिन्न अधिकारी भी आपके ही हैं, जिनसे सवाल जवाब करना ना सिर्फ आपका अधिकार है, अपितु गांव व क्षेत्र के समग्र विकास के लिए आपका कर्तव्य भी है। बहरहाल, जिस दिन ग्रामों की सहभागिता जब कार्य योजना में बढ़ेगी तो गांधी जी की 150वी जन्मशताब्दी पार चुका भारत और उसे आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प लिए देश के वर्तमान प्रधानमंत्री का स्वप्न वास्तव में सच हो जाएगा।