डॉ. नीलम महेंद्र
वरिष्ठ स्तंभकार
आज सोशल मीडिया अपनी बात मजबूती के साथ रखने का एक शक्तिशाली माध्यम मात्र नहीं रह गया है, बल्कि यह एक शक्तिशाली हथियार का रूप भी ले चुका है। देश में चलने वाला किसान आंदोलन इस बात का सशक्त प्रमाण है। दरअसल, सिंघु बॉर्डर और गाजीपुर बॉर्डर पर पिछले दो माह से भी अधिक समय से चल रहा किसान आंदोलन भले ही 26 जनवरी के बाद से दिल्ली की सीमाओं में प्रवेश नहीं कर पा रहा हो, लेकिन ट्विटर पर अपने प्रवेश के साथ ही उसने अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को पार कर लिया। वैसे होना तो यह चाहिए था कि बीतते समय और इस आंदोलन को लगातार बढ़ते हुए अंतरराष्ट्रीय मंचों की उपलब्धता के साथ आंदोलनरत किसानों के प्रति देश भर में सहानुभूति की लहर उठती और देश का आम जन सरकार के खिलाफ खड़ा हो जाता। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बल्कि इसी साल की जनवरी में एक अमेरिकी डाटा फर्म की सर्वे रिपोर्ट सामने आई, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी को भारत ही नहीं विश्व का सबसे लोकप्रिय और स्वीकार्य राजनेता माना गया। इस सर्वे में अमरीका, फ्रांस, ब्राज़ील, जापान सहित दुनिया के 13 लोकतांत्रिक देशों को शामिल किया गया था। जिसमें 75 फीसदी लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व पर भरोसा जताया है।
लेकिन यहां प्रश्न प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता का नहीं है, बल्कि किसान आंदोलन की विश्वसनीयता और देश के आम जनमानस के ह्रदय में उसके प्रति सहानुभूति का है। क्योंकि देखा जाए तो 26 जनवरी की हिंसा के बाद से किसान आंदोलन ने अपनी प्रासंगिकता ही खो दी थी और किसान नेताओं सहित इस पूरे आंदोलन पर ही प्रश्नचिन्ह लगने शुरू हो गए थे। क्योंकि जब 26 जनवरी को देश ने दिल्ली पुलिस के जवानों पर आंदोलनकारियों का हिंसक आक्रमण देखा तो इस आंदोलन ने देश की सहानुभूति भी खो दी। दरअसल, लोग इस बात को बहुत अच्छे से समझते हैं कि देश का किसान जो इस देश की मिट्टी को अपने पसीने से सींचता है वो देश के उस जवान पर कभी प्रहार नहीं कर सकता जो देश की आन को अपने खून से सींचता है। शायद यही कारण है कि जो सहानुभूति इस आंदोलन के लिए “आंदोलनजीवी” नहीं खोज पाए, उस सहानुभूति को उनके द्वारा अब विदेश से प्रायोजित करवाने के प्रयास किए जा रहे हैं। जिसमें ट्विटर जैसी माइक्रोब्लॉगिंग साइट और अन्य विदेशी मंचों का सहारा लिया जाता है। आइए कुछ घटनाक्रमों पर नज़र डालते हैं –
कुछ तथाकथित अंतरराष्ट्रीय सेलेब्रिटीज़ द्वारा किसान आंदोलन के समर्थन में उनके द्वारा किए गए ट्वीट के बदले में उन्हें 2.5 मिलियन डॉलर दिए जाने की खबरें सामने आती हैं। इन तथाकथित सेलेब्रिटीज़ में एक 18 साल की लड़की है और दो ऐसी महिलाएं हैं जो स्वयं अपने बारे में भी एक महिला की भौतिक देह से ऊपर उठ कर नहीं सोच पातीं। जब ऐसी महिलाएं किसान आंदोलन पर ट्वीट करके चिंता व्यक्त करती हैं तो कहने को कम और समझने के लिए ज्यादा हो जाता है। इतना ही नहीं कथित पर्यावरणविद ग्रेटा थनबर्ग द्वारा पहले किसान आंदोलन से संबंधित टूलकिट को शेयर किया जाता है और फिर हटा लिया जाता है जो अपने आप में कई गंभीर सवालों को खड़ा कर देता है।
किसान आंदोलन को लेकर ट्विटर की भूमिका संदेह के घेरे। भ्रामक एवं हिंसा भड़काने वाली जानकारी फैलाने वालों के खिलाफ सरकार के कहने के बाद भी ट्विटर उन पर आसानी से कार्रवाई को राजी नहीं हुआ। हाल ही में अमेरिका की लोकप्रिय सुपर बाउल लीग के दौरान भी किसान आंदोलन से जुड़ा विज्ञापन चलाया जाता है, जिसमें इसे ”इतिहास का सबसे बड़ा प्रदर्शन” बताया जाता है। इस बीच लेबर पार्टी के सांसद तनमजीत सिंह धेसी के नेतृत्व में 40 ब्रिटिश सांसदों द्वारा किसान आंदोलन के मुद्दे को ब्रिटेन की संसद में उठाकर भारत पर दबाव बनाने का प्रयास किया जाता है। लेकिन ब्रिटेन की सरकार इसे भारत का अंदरूनी मामला बताकर खारिज कर देती है।
जाहिर है इन तथ्यों से देश में फॉरेन डिस्ट्रक्टिव आइडियोलॉजी का प्रवेश तथा आन्दोलनजीवियों के हस्तक्षेप से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन किसान आंदोलन के पीछे चल रही इस राजनीति के बीच जब देश के कृषि मंत्री देश की संसद में यह खुलासा करते हैं कि पंजाब में जो कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट बना है, उसमें करार तोड़ने पर किसान पर न्यूनतम पांच हजार रुपये जुर्माना जिसे पांच लाख तक बढ़ाया जा सकता है, इसका प्रावधान है। जबकि केंद्र द्वारा लागू कृषि कानूनों में किसान को सजा का प्रावधान नहीं है तो कांग्रेस का दोहरा चरित्र देश के सामने रखते हैं। क्योंकि पंजाब में फार्मिंग कॉन्ट्रैक्ट का यह कानून 2013 में बादल सरकार ने पारित किया था।
हैरत की बात है कि पंजाब की वर्तमान कांग्रेस सरकार ने केंद्र के कृषि क़ानूनों के विरोध में तो प्रस्ताव पारित कर दिया। लेकिन पहले से जो फार्मिंग कॉन्ट्रैक्ट कानून पंजाब में लागू था, जिसमें किसानों के लिए भी सजा का प्रावधान था उसे रद्द करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। इस प्रकार मूलभूत तथ्यों को दरकिनार करते हुए जब किसानों के हितों के नाम विपक्ष द्वारा की जाने वाली राजनीति देश विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देती हैं तो तात्कालिक लाभ तो दूर की बात है, इस प्रकार के कदम यह बताते हैं कि विपक्ष में दूरदर्शी सोच का भी अभाव है। काश कि वो यह समझ पाते कि इस प्रकार के आचरण से कहीं उनकी भावी स्वीकार्यता भी समाप्त न हो जाए।
सुखदेव वशिष्ठ
वरिष्ठ पत्रकार
किसान आंदोलन को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को घेरने और देश के बढ़ते यश को कम करने के लिए बनाई गई रणनीति का खुलासा हो गया। दरअसल, बुधवार को स्वीडन की क्लाइमेट चेंज एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग ने एक टूलकिट (गूगल फॉर्म) को ट्वीट किया था। जिसमें किसान आंदोलन को लेकर मोदी सरकार को घेरने और भारत को बदनाम करने को रची गई साजिश की जानकारी थी। ग्रेटा ने बवाल बढ़ता देख इस ट्वीट को तुरंत डिलीट भी कर दिया। हालांकि, बाद में उन्होंने दूसरा ट्वीट कर नए टूलकिट को शेयर किया। जिसमें कुछ संस्थानों, व पत्रकारों के नाम गायब थे। किसान आंदोलन के समर्थन में पॉप स्टार रिहाना का ट्वीट वायरल होने के बाद से ही आंदोलन को लेकर सोशल मीडिया पर सक्रियता बढ़ गई थी, जो ग्रेटा के ट्वीट के बाद और बढ़ी।
विदेश मंत्रालय ने इसे लेकर एक बयान जारी किया। जिसमें स्पष्ट कहा कि ऐसे मामलों पर कॉमेंट करने से पहले मुद्दे को अच्छी तरह से समझ लिया जाए। सनसनी के लालच में सोशल मीडिया चल रहे हैशटैग्स और कॉमेंट्स, खासकर जिन्हें सेलिब्रिटी कर रहे हैं, ना तो वे सही हैं और न ही जिम्मेदारी भरे हैं।
विदेश मंत्रालय की तरफ से दिये गए बयान के बाद बॉलीवुड के सुपरस्टार अक्षय कुमार और अजय देवगन सहित बॉलीवुड व देश की नामचीन हस्तियों, खिलाड़ियों ने कृषि बिल पर सरकार के पक्ष का समर्थन किया. और सोशल मीडिया पर इंडिया टुगेदर और इंडिया अगेंस्ट प्रोपेगेंडा हैशटैग ट्रेड करने लगे.
दिल्ली पुलिस ने कहा कि एक खास सोशल मीडिया अकाउंट से एक डॉक्यूमेंट/’टूल किट अपलोड किया गया था। यह टूल किट खालिस्तान से जुड़े एक संगठन ‘पोएटिक जस्टिस’ का है।’ स्पेशल कमिश्नर के अनुसार, ‘एक सोशल मीडिया हैंडल से अपलोड किए गए टूल किट में किसान आंदोलन के नाम पर डिजिटल स्ट्राइक की बात कही गई है। 26 जनवरी को फिजिकल ऐक्शन, ट्वीट स्टॉर्म की बात कही गई है। 26 जनवरी और उसके आसपास के हिंसा को देखें तो इससे पता चलता है कि पूरे प्लान तरीके से इसी के अनुसार सब कुछ किया गया है। यह दिल्ली पुलिस के लिए चिंता की बात है। ‘
इस टूलकिट या टेररकिट के लिंक पर क्लिक करके अंदर जाने पर किसान आंदोलन से जुड़ी कई सामग्री मिलती है। साथ में पेज नंबर तीन पर वेबसाइट का लिंक www.askindiawhy मिलता है। इस वेबसाइट के आखिरी पेज पर एक लिंक मिलता है ‘पोएटिक जस्टिस फाउंडडेशन’। संस्था के इंस्टाग्राम पेज से पता चलता है कि यह संस्था पॉप सिंगर रिहाना और ग्रेटा थनबर्ग को फंड करती है।
बता दें कि फाउंडेशन को चलाने वाले एम ओ धालीवाल और सिक्ख फॉर जस्टिस के मुख्य संरक्षक गुरपतवंत सिंह पन्नु का सिक्ख फॉर जस्टिस एक खालिस्तानी संगठन है और भारत में इस पर प्रतिबंध है। साथ ही इस पन्नु को भी यूएपीए के तहत आतंकी घोषित किया गया है।
खालिस्तान के विफल प्रयोग को कुछ लोग अभी भी उनके निजी हितों के कारण ढो रहे हैं, जबकि पंजाब का युवा इस सबसे दूर वैश्वीकरण के दौर में पूरे विश्व से अपनी प्रतिभा के बल पर सबसे आगे चलना चाहता है। भारत एक परिपक्व लोकतांत्रिक देश है, भारत की समझदार जनता ने पूर्ण बहुमत से राष्ट्र को आगे लेकर जाने के लिए कुशल नेतृत्व को अपनी बागडोर सौंपी है। भारत कैसा हो, भारत को कैसा चलाया जाना है, भारत का विकास किस प्रकार किया जाए, इसके जिम्मेदारी भारतीय समाज की है। विदेशों से हस्तक्षेप करने वाले लोग अपने देश की रंगभेदी, नस्लभेदी नीतियों के बारे में विषय रखें तो अच्छा रहेगा. क्लाइमेट चेंज के बारे में बात करने वाले भारत के कृषि और उसका पर्यावरण पर प्रभाव इस विषय का भी अध्ययन करें तो अच्छा रहेगा।
किसान आंदोलन की आड़ में छिपी विदेशी ताकतों के प्रयोग का सावधानीपूर्ण सामना करना होगा। सरकार द्वारा असली किसानों के प्रति धैर्य और स्नेह के भाव से आंदोलन को गलत दिशा में ले जाने वाली विदेशी ताकतों के चेहरे बेनकाब होते जा रहे हैं। (विसंकें)
गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली में किसानों के अराजक प्रदर्शन के दौरान घायल हुए पुलिसकर्मियों का बुधवार को गृह मंत्री अमित शाह ने हालचाल पूछा। अमित शाह ने दिल्ली के तीरथ राम अस्पताल और सुश्रुत ट्रॉमा सेंटर जाकर घायल पुलिस जवानों से मुलाकात की। घायल जवानों से मुलाकात का ट्विटर पर वीडियो जारी करते हुए गृह मंत्री ने कहा कि हमें उनके साहस व बहादुरी पर गर्व है।
उल्लेखनीय है कि नए कृषि कानूनों के विरोध में लम्बे समय से आंदोलनरत किसानों ने गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में ट्रैक्टर रैली आयोजित करने की अनुमति मांगी थी। दिल्ली पुलिस ने कुछ शर्तों के साथ रैली को अनुमति दी थी। इन शर्तों में रैली को एक निर्धारित रुट से ले जाना भी शामिल था। मगर आयोजकों ने अनुमति की किसी भी शर्त का पालन नहीं किया। उल्टा प्रदर्शनकारियों ने दिल्ली में तोड़फोड़, हिंसा व अराजकता का नंगा नाच किया। सरेआम तलवारें लहराई गईं। लाल किले पर तिरंगे का अपमान कर एक अन्य ध्वज फहराया गया।
किसानों के नाम पर हुए इस हिंसक प्रदर्शन के दौरान दिल्ली पुलिस ने बेहद संयम का परिचय दिया और अराजक तत्वों के मंसूबो को कामयाब नहीं होने दिया। प्रदर्शन के दौरान दिल्ली पुलिस के करीब 400 पुलिसकर्मी घायल हो गए थे, जिनमें से कुछ गंभीर रूप से घायल हैं। बुधवार को अमित शाह इन घायल जवानों को मिलने अस्पताल पहुंचे।
गृह मंत्री शाह द्वारा ट्विटर पर जारी वीडियो में साफ़ देखा जा सकता है कि वे न केवल घायल जवानों की कुशल क्षेम पूछ रहे हैं, अपितु डॉक्टरों से भी बातचीत कर रहे हैं और जवानों के कंधों पर हाथ रख कर उन्हें ढांढस बंधाते भी दिख रहे हैं। शाह ने जवानों के फल भी वितरित किए। शाह ने घायल जवानों से मुलाकात का वीडियो अपने ट्विटर हैंडल पर जारी करते हुए घायल पुलिस कर्मियों के लिए लिखा है कि – ”हमें उनके साहस और बहादुरी पर गर्व है”।
वित्त मंत्री ने कहा दिल्ली पुलिस का अनुकरणीय संयम
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने गृह मंत्री शाह के ट्वीट को रीट्वीट करते हुए उनके द्वारा घायल जवानों के हालचाल पूछे जाने की सराहना की। अपने ट्वीट में निर्मला ने यह भी कहा कि दिल्ली पुलिस ने अनुकरणीय संयम दिखाया। वित्त मंत्री ने ड्यूटी के दौरान घायल हुए जवानों के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना भी की है।
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अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) ने गणतंत्र दिवस पर सुनियोजित हिंसाचार, राष्ट्रीय धरोहर लालकिला प्रांगण में हुई तोड़फोड़, पुलिस व अर्धसैनिक बलों पर तलवारों, फर्से व लाठियों से लैस भीड़ के संगठित हमले तथा राष्ट्रीय प्रतीकों के अनादर में सम्मिलित अपराधियों पर शीघ्र कार्रवाई की मांग की है।
एक बयान में ABVP ने कहा है कि कथित किसान नेताओं ने वकील प्रशांत भूषण तथा दुष्यंत दवे के माध्यम से उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दायर कर आंदोलन के शांतिपूर्ण ढंग से आयोजित होने का आश्वासन दिया था, लेकिन शुरूआती दौर से ही यह कथित किसान आंदोलन बिल्कुल भी शांतिपूर्ण नहीं रहा। ट्रैक्टरों पर तोड़फोड़ करने वाले यंत्रों को लगाने आदि से इस आंदोलन की सुनियोजित हिंसा के षड्यंत्र का अनुमान लगाया जा सकता है।
किसान आंदोलन की आड़ में जिस प्रकार से लाल किले की प्राचीर से तिरंगा का अपमान कर अन्य पताकाओं और अलगाववादी खालिस्तानी व वामपंथी पार्टियों के झंडे लहराए गए, तथा दिल्ली पुलिस व अर्धसैनिक बलों के जवानों के साथ भीड़ ने भीषण हिंसा की, उसके अलग-अलग वीडियो सार्वजनिक हैं। इन वीडियोज की पड़ताल कर दंगाइयों तथा देशविरोधी तत्त्वों पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए।
ABVP की राष्ट्रीय महामंत्री निधि त्रिपाठी ने कहा, “राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को फेंक उसके अनादर के वीडियो लोगों के बीच सार्वजनिक हो चुके हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस तरह राष्ट्रीय प्रतीकों के अनादर से देश गुस्से में है। इस पूरी हिंसा की निष्पक्ष जांच कर सरकार को अपराधियों पर कड़ी कार्रवाई सुनिश्चित करनी होगी। गणतंत्र दिवस जैसे पावन दिन पर अशांति फैलाकर आंदोलन के पीछे की ताकतों की वास्तविकता स्पष्ट है।”
दो महीनों से किसानों की खाल ओढ़कर बैठे भेड़ियों की असली शक्ल गणतंत्र दिवस पर देश के सामने आ गई। आखिरकार वही हुआ जिसकी संभावना बीते कई दिनों से जताई जा रही थी। दिल्ली पुलिस बताती रही कि किसानों के आंदोलन में उपद्रवी तत्व घुस चुके हैं, इंटेलीजेंस बताता रहा कि पाकिस्तान से आन्दोलन को भड़काने की कोशिश कर रही है लेकिन अपने मद में चूर किसान नेता पुलिस की बात को अनसुना करते रहे। पुलिस समझाती रही और किसान नेता कहते रहे कि हम तिरंगा लहराएंगे लेकिन 26 जनवरी को तस्वीरें तलवार लहराने की सामने आईं। मीडिया पर तैर रही तमाम तस्वीरें और वीडियो किसी को भी यह सवाल पूछने के लिए विवश कर देंगे कि क्या यह मेरे देश का किसान है?
तोड़े सारे नियम
पहले तो किसान अपनी मांगों को लेकर सरकार के सामने अड़ गए। सरकार ने नरम रुख अपनाया। मगर फिर भी उनकी जिद में कहीं से कोई कमी नहीं आई। फिर किसानों ने जिद पकड़ी कि उन्हें 26 जनवरी को परेड निकालनी है। पहले तो पुलिस ने समझाया। बाद में पुलिस ने कुछ शर्तों के साथ उन्हें रैली की इजाजत भी दे दी, लेकिन जब रैली का दिन आया तो उन्होंने सारी शर्तों को धता बता दिया। सारे नियम तोड़ डाले गए। पुलिस के बैरिकेड माचिस की तीलियों की तरह तोड़ दिए गए और देश की राजधानी पर इस तरह से हमला किया गया है मान लो मुगलों की फौज दिल्ली लूटने आई हो।
जगह-जगह हिंसा
मीडिया व सोशल मीडिया के माध्यम से इन कथित किसानों की अराजक तस्वीरें व वीडियो सामने आए हैं। एक वीडियो में एक निहंग सिख खुलेआम पुलिस वाले पर तलवार भांजता दिखाई दे रहा है। कहीं पुलिस वालों के सर से बहता हुआ खून है तो कहीं खिलौने की तरह नाचती हुई बस। पुलिस के ऊपर लाठियां चलाई जा रही है। साथ हीं जगह-जगह पत्थर भी बरसाए जा रहे हैं। प्रदर्शनकारियों ने अराजकता की सारी सीमाओं को पार किया। महिला पुलिसकर्मियों से बदसलूकी की गई।
मोदी विरोधी ताकतों की मंशा पर फिरा पानी
जिस तरह तलवारें लहराई गयी, ईंट पत्थर फेंके गए, ट्रैक्टर से पुलिस वालों को कुचलने की कोशिश की गई, पुलिस ने तब भी संयम बरतते हुए अपनी जान बचाई, यह पूरे देश ने देखा है। मोदी विरोधी ताकतें पूरी उम्मीद में थीं कि मोदी के सब्र का बांध कभी तो टूटेगा और सरकार और उत्पाती आमने-सामने होंगे। लाशें गिरेंगी और इन्हें लोकतंत्र के नाम पर बकैती का अवसर हाथ आएगा। लेकिन सरकार के संयम ने इनकी इस मंशा पर भी पानी फेर दिया।
कथित किसानों का दांव उल्टा पड़ा
किसान आंदोलन के नाम पर कुछ लोग केंद्र सरकार को तानाशाह साबित करने पर तुले थे। मगर केंद्र सरकार ने संयमित रुख अपनाते किसानों की खाल में छिपे असामाजिक तत्वों की अराजकता को पूरी दुनिया के सामने नुमाया कर दिया और सिद्ध कर दिया कि यह पूरा आंदोलन एक बड़े षड्यन्त्र का हिस्सा था और इसके पीछे राष्ट्र विरोधी ताकतों का दिमाग और पैसा था।
- रजनीश कुमार
दिल्ली की सीमा पर किसानों का आंदोलन जारी है। सरकार के प्रयासों से किसान संगठनों और सरकार के बीच संवाद भी जारी है। स्वस्थ लोकतंत्र में संवाद की महत्ता हमेशा से रही है, हमारे यहां पुरानी उक्ति है – वादे वादे जायते तत्वबोध: अर्थात् संवाद से तत्व का ज्ञान होता है। हालांकि किसान संगठन बिल वापस लेने पर अड़ गए हैं। वहीं सरकार का कहना है – जहां आपत्ति होगी, संशोधन करेंगे। किसान संगठनों ने तर्क दिया कि नए कानूनों से न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलेगा, सरकार लिखित आश्वासन देने को तैयार है।
संगठनों ने एपीएमसी यानि मंडियों के समाप्त होने की चिंता प्रकट की, सरकार ने कहा – लिखित में दे देंगे कि मंडियां समाप्त नहीं होंगी। डर जताया कि किसानों की जमीन बिक जाएगी, सरकार ने कहा कि किसानों की फसल की बिक्री होगी, जमीन का कोई एग्रीमेंट नहीं होगा। किसानों ने डर व्यक्त किया कि विवाद की स्थिति में कोर्ट का कोई प्रावधान नहीं किया गया है। सरकार ने उनके डर को दूर करते हुए कहा कि सिविल कोर्ट जाने का अधिकार देंगे, फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाएंगे।
अब इसके बाद किसान प्रदर्शनरत संगठन कह रहे हैं प्रस्ताव मंजूर नहीं, सरकार संवाद को प्राथमिकता देते हुए कह रही है – कोई और समस्या हो तो बताइए। अब किसान संगठन मांग कर रहे हैं कि बिल वापस लो …!
सम्प्रति कहां क्या हो रहा है, कुछ ना उसको ज्ञान है
वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है
राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त ने किसानों के मनोभाव को समझते हुए यह पक्तियां लिखी थीं। ये पंक्तियां आज कुछ ज्यादा ही प्रासंगिक हो गई हैं।
किसान बहुत भोले-भाले होते हैं, दूसरों के प्रति भी उनकी दृष्टि बहुत सरल-सहज होती है। शायद इसी कारण से किसानों के इस आंदोलन में अराजकतावादियों ने घुसपैठ कर दी है। अराजक शक्तियों का उद्देश्य स्पष्ट है – देश में अशांति और अराजकता का माहौल स्थापित करना। दुःखद है – किसानों को इस साजिश का कोई भान नहीं है, अशान्ति के अंदेशे का कोई ध्यान नहीं है।
खुफिया सूत्रों के अनुसार किसान आंदोलन से जुड़ी एक रिपोर्ट सरकार को भेजी गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि अल्ट्रा-लेफ्ट नेताओं और प्रो-लेफ्ट विंग के चरमपंथी तत्वों ने किसानों के आंदोलन को हाईजैक कर लिया है। विश्वसनीय खुफिया इनपुट है कि ये तत्व किसानों को हिंसा, आगजनी और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के लिए उकसाने की योजना बना रहे हैं।
अराजक वामपंथी-इस्लामी गठजोड़ के कारण देश में आंतरिक असुरक्षा का माहौल बनने का अंदेशा है। दिल्ली की सीमा पर भारतीय किसान यूनियन (उगराहा) ने दिल्ली दंगे के आरोपी उमर खालिद और शरजील इमाम के साथ-साथ अर्बन नक्सल सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वर्नोन गोंसाल्वेस, अरुण फरेरा और वरवरा राव को रिहा करने की मांग की है।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, इस आंदोलनकारी किसान संघ ने अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस समारोह में कम से कम 20 व्यक्तियों को रिहा करने की मांग की, जिन्हें दिल्ली दंगे और भीमा कोरेगांव हिंसा में उनकी कथित भूमिका पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में डाला गया है।
ये लोग पिछले वर्ष दिल्ली में हुए हिन्दू विरोधी दंगे के आरोपी की रिहाई की मांग कर रहे हैं, उनके मानवाधिकार की बात कर रहे हैं। नक्सल-आतंकी विचारों के पोषक एक किसान संगठन का कहना है कि ये सभी मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और उनको सलाखों के पीछे से बाहर करवाना उनके संगठन का लक्ष्य है।
यह देश की सज्जन शक्ति के लिए खुली चुनौती के समान है। एक तरफ देश को विभाजित करने की मंशा पालने वाले लोगों के समर्थन में दिल्ली की सड़कों पर तख्तियां लहराई जाती हैं, दूसरी ओर देश को अखंड और अक्षुण्ण बनाए रखने वाली सज्जन शक्तियां अपने धैर्य का परिचय दे रही हैं।
यह विचार करने योग्य है कि आज भारतीय समाज के सामने ठीक वैसी ही परिस्थिति है, जैसी नागरिकता संशोधन कानून के समय थी। यह समझने की जरूरत है कि किसान आंदोलन की आड़ में अराजकता पैदा करने की मंशा रखने वाले ये लोग कौन हैं? आपने नागरिकता संशोधन कानून के वक्त भी देखा था, जब इन विभाजनकारी शक्तियों ने समाज में भय और भ्रम पैदा करने की कोशिश की थी।
ठीक वैसे ही कृषि कानूनों से न्यूनतम समर्थन मूल्य और मंडी की व्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन इन कानूनों को उनके विरुद्ध ही बताने की कोशिश की जा रही है। अब किसान संगठनों ने यह घोषणा कर दी है, सरकार से कोई वार्तालाप नहीं होगा, कोई विमर्श- संवाद नहीं होगा। आंदोलनकारियों ने सरकार के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है, आंदोलन को तेज करने का फैसला किया है। संगठनों ने संवाद का अंत कर दिया है, विषय विवाद की तरफ बढ़ रहा है। (विश्व संवाद केंद्र सेवा)
जैविक खेती में नाम कमाने वाले प्रगतिशील किसान पद्मश्री भारत भूषण त्यागी ने कहा कि जो लोग किसानों के कथित समर्थन में अपने पुरस्कार वापस कर रहे हैं, उन्हें खेती में ये पुरस्कार नहीं मिला है। महज़ झूठी ख्याति प्राप्त करने के लिए ऐसा कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि कृषि कानून को द्विपिक्षीय स्वरुप में समझने की ज़रूरत है। बिचौलियों की अंधेरगर्दी कृषि कानून से ही समाप्त होगी। कृषि क़ानून को लेकर सरकार की मंशा में कोई खोट नहीं है, बल्कि इससे खेती के नए विकल्प खुल रहे हैं।
उन्होंने कहा कि सबसे बड़ी अफवाह ये फैली है कि मंडियां खत्म हो जाएंगी, एमएसपी खत्म हो जाएगी और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के ज़रिए किसानों की ज़मीनें हड़प ली जाएंगी। ये सरासर गलत है, क्योंकि सरकार ने बार-बार आश्वासन दिया है कि एमएसपी बराबर बनी रहेगी। वस्तु अधिनियम में भंडारण को संरक्षित करने की बात भी कही गई है। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में ज़मीन का कोई मुद्दा नहीं है। इसे किसानों को समझने की ज़रुरत है।
उन्होंने आंदोलन करने वाले किसानों से निवेदन किया कि वो बातचीत के दौरान विरोध की मानसिकता से न जाएं, क्योंकि अगर हम विरोध की मानसिकता से बातचीत करते हैं तो कभी कोई सकारात्मक परिणाम नहीं आते हैं। उन्होंने कहा कि मंडी और बाजारों के जरिए किसानों को फसलों की पूरी कीमत नहीं मिलती थी। इसलिए इसे लेकर सार्थक पहल की ज़रुरत थी जो इस क़ानून में रहेगा। जिन किसानों को ये भ्रम है कि इससे उनका नुकसान होगा तो वो सरासर गलत है।
देशभर में जैविक खेती में नाम कमाने वाले किसान भारत भूषण त्यागी को वर्ष 2019 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया था। बुलंदशहर जनपद की स्याना तहसील क्षेत्र के गांव बीहटा निवासी प्रगतिशील किसान भारत भूषण त्यागी ने जैविक खेती कर और देश-प्रदेश में किसानों को जैविक खेती के लिए जागरूक कर अपनी अलग छाप छोड़ी है। (विश्व संवाद केंद्र सेवा)
- राकेश सैन
CAA में देश के किसी नागरिक का जिक्र न था, परंतु भ्रम फैलाने वालों ने इसे मुसलमान विरोधी बताया और लोगों को सड़कों पर उतार दिया। अब उसी तर्ज पर कृषि सुधार अधिनियम को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा है।
नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग में हुए आंदोलन और केंद्र सरकार द्वारा पारित कृषि सुधार अधिनियम को लेकर पंजाब सहित उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में हो रहे किसान आंदोलन के बीच की समानता को उर्दू शायर फैज के शब्दों में यूं बयां किया जा सकता है कि – ‘वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था, वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है।’
CAA में देश के किसी नागरिक का जिक्र न था, परंतु भ्रम फैलाने वालों ने इसे मुसलमानों का विरोधी बताया और लोगों को सड़कों पर उतार दिया। अब उसी तर्ज पर कृषि सुधार अधिनियम को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा है, इसमें न तो फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को समाप्त करने की बात कही गई है और न ही मंडी व्यवस्था खत्म करने की। परंतु इसके बावजूद आंदोलनकारी इस मुद्दे को जीवन मरण का प्रश्न बनाए हुए हैं। अधिनियम के अस्तित्व में आने के बाद से ही पंजाब में चला आ रहा किसान आंदोलन बीच में मद्धम पड़ने के बाद किसानों के ‘दिल्ली चलो’ के आह्वान के बाद फिर जोर पकड़ रहा है।
जैसी आशंका जताई जा रही थी वही हुआ, आंदोलन के चलते पिछले लगभग दो महीनों से परेशान लोगों की किसानों के अड़ियल रवैये से मुश्किलें और बढ़ गई हैं। ज्यादातर जगहों पर किसानों को रोकने की तमाम कोशिशें बेकार साबित हुईं। लंबे जाम और किसानों के आक्रामक रुख को देखते हुए पुलिस ने ज्यादा सख्ती नहीं की और उन्हें आगे बढ़ने दिया। साफ सी बात है कि आने वाले दिनों में आम लोगों की परेशानी और बढ़ने वाली है, क्योंकि किसान पूरी तैयारी के साथ डटे हैं। उनकी संख्या भी हजारों में है। चाहे कुछ मार्गों पर रेल यातायात कुछ शुरू हुआ है, परंतु यह पूरी तरह बहाल नहीं हो पाया है। अब सड़क मार्ग भी बाधित होने के कारण समस्या और बढ़ गई है। इसके साथ ही सरकार और किसानों के बीच टकराव भी बढ़ता जा रहा है। इसके पीछे राजनीति भी कम जिम्मेदार नहीं है। किसानों को अलग-अलग राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल है। चूंकि पंजाब में लगभग एक साल बाद विधानसभा चुनावों का बिगुल बज जाना है, इसलिए कोई भी इस आंदोलन का लाभ लेने से पीछे हटने के लिए तैयार दिखाई नहीं दे रहा है।
केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों को लेकर जो विरोध हो रहा है, वह साधारण लोगों के लिए तो क्या कृषि विशेषज्ञों व प्रगतिशील किसानों के लिए भी समझ से बाहर की बात है। कुछ राजनीतिक दल व विघ्नसंतोषी शक्तियां अपने निजी स्वार्थों के लिए किसानों को भड़का कर न केवल अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं, बल्कि वे खुद नहीं जानते कि ऐसा करके वह किसानों का कितना बड़ा नुक्सान करने जा रहे हैं। कितना हास्यास्पद है कि पंजाब के राजनीतिक दल उन्हीं कानूनों का विरोध कर रहे हैं जो राज्य में पहले से ही मौजूद हैं और उनकी ही सरकारों के समय में इन कानूनों को लागू किया गया था। इन कानूनों को लागू करते समय इन दलों ने इन्हें किसान हितैषी बताया था और आज वे किसानों के नाम पर ही इसका विरोध कर रहे हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह किसानों के इसी आक्रोश का राजनीतिक लाभ उठाने के उद्देश्य से पंजाब विधानसभा में केंद्र के कृषि कानूनों को निरस्त भी कर चुके हैं और अपनी ओर से नए कानून भी पारित करवा चुके हैं। परंतु उनका यह दांवपेच असफल हो गया क्योंकि प्रदर्शनकारी किसानों ने पंजाब सरकार के कृषि कानूनों को भी अस्वीकार कर दिया है।
संघर्ष के पीछे की राजनीति समझने के लिए हमें वर्ष 2006 में जाना होगा। उस समय पंजाब में कांग्रेस सरकार ने कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम (एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्किट एमेंडमेंट एक्ट) के जरिए राज्य में निजी कंपनियों को खरीददारी की अनुमति दी थी। कानून में निजी यार्डों को भी अनुमति मिली थी। किसानों को भी छूट दी गई कि वह कहीं भी अपने उत्पाद बेच सकता है। साल 2019 के आम चुनावों में कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणापत्र में इसी प्रकार के कानून बनाने का वायदा किया था, जिसका वह आज विरोध कर रही है। अब चलते हैं साल 2013 में, जब राज्य में अकाली दल बादल व भारतीय जनता पार्टी गठजोड़ की स. प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में सरकार सत्तारूढ़ थी। बादल सरकार ने इस दौरान अनुबंध कृषि (कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग) की अनुमति देते हुए कानून बनाया। कृषि विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री स. सरदारा सिंह जौहल अब पूछते हैं कि अब जब केंद्र ने इन दोनों कानूनों को मिला कर नया कानून बनाया है तो कांग्रेस व अकाली दल इसका विरोध किस आधार पर कर रहे हैं।
पंजाब में चल रहे कथित किसान आंदोलन का संचालन ढाई दर्जन से अधिक किसान यूनियनें कर रही हैं। कहने को तो भारतीय किसान यूनियन किसानों का संगठन है, परंतु इनकी वामपंथी सोच जगजाहिर है। दिल्ली में चले शाहीन बाग आंदोलन में किसान यूनियन के लोग हिस्सा ले चुके हैं। किसान आंदोलन को भड़काने के लिए गीतकारों से जो गीत गवाए जा रहे हैं, उनकी भाषा विशुद्ध रूप से विषाक्त नक्सलवादी चाशनी से लिपटी हुई है। ऊपर से रही सही कसर खालिस्तानियों व कट्टरवादियों ने पूरी कर दी। प्रदेश में चल रहे कथित किसान आंदोलन में कई स्थानों पर खालिस्तान को लेकर भी नारेबाजी हो चुकी है। सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर एक नहीं, बल्कि भारी संख्या में पेज ऐसे चल रहे हैं जो इस आंदोलन को खालिस्तान से जोड़ कर देख रहे हैं और युवाओं को भटकाने का काम कर रहे हैं।
सच्चाई तो यह है कि केंद्र के नए कृषि अधिनियम अंतत: किसानों के लिए लाभकारी साबित होने वाले हैं। इनके अंतर्गत ऑनलाइन मार्केट भी लाई गई है, जिसमें किसान अपनी फसल को इसके माध्यम से कहीं भी अपनी इच्छा से बेच सकेगा। इस कानून में राज्य सरकारों को भी अनुमति दी गई है कि वह सोसायटी बना कर माल की खरीददारी कर सकती हैं और आगे बेच भी सकती हैं। नए कानून के अनुसार, किसानों व खरीददारों में कोई झगड़ा होता है तो उपमंडल अधिकारी को एक निश्चित अवधि में इसका निपटारा करवाना होगा। इससे किसान अदालतों के चक्कर काटने से बचेगा। हैरत की बात यह है कि किसानों को नए कानून के लाभ के बारे में कोई भी नहीं जानकारी दे रहा। एक और हैरान करने वाला तथ्य है कि केंद्र सरकार ने हाल ही में पंजाब में धान की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर की है। परंतु इसके बावजूद MSP को लेकर प्रदर्शनकारियों में धुंधलका छंटने का नाम नहीं ले रहा और उन बातों को लेकर विरोध हो रहा है, जिनका जिक्र तक नए कृषि कानूनों में नहीं है। (विश्व संवाद केंद्र)