उत्तराखंड सचिवालय की कार्यप्रणाली अक्सर चर्चाओं में रहती है। जन आकांक्षाओं का सर्वोच्च केंद्र माने जाने वाले सचिवालय में कई बार आम आदमी तो दूर, सरकारी तंत्र से जुड़े लोगों की उम्मीदें भी टूटने लगती हैं। ऐसा ही प्रकरण एक अधिकारी की पदोन्नति से जुड़ा हुआ सामने आया है। अधिकारी का पदोन्नति का आदेश 10 माह तक अनुभाग में ही दबा रह गया और अधिकारी को सूचना के अधिकार (RTI) का सहारा लेना पड़ा।
प्राप्त जानकारी के अनुसार ऑडिट विभाग में जिला लेखा परीक्षा अधिकारी के पद पर प्रमोशन के लिए नवंबर, 2019 को चयन समिति की बैठक सम्पन्न हुई थी। बैठक में जिला लेखा परीक्षा अधिकारी के पद के लिए बलबीर सिंह का चयन किया गया था। फरवरी, 2020 में इस सम्बन्ध में आदेश भी तैयार कर दिया गया था। मगर प्रोन्नत अधिकारी को यह आदेश नहीं मिला और आदेश सचिवालय के संबंधित अनुभाग में ही दबा रह गया।
थक-हार कर बलबीर सिंह ने RTI का सहारा लिया। उन्होंने RTI में अपनी पदोन्नति को लेकर जानकारी मांगी। RTI लगने के बाद संबंधित अनुभाग ने किसी प्रकार का जवाब देने के बजाय अधिकारी को पदोन्नति का आदेश ही थमा दिया। आदेश मिलने के बाद अब जाकर अधिकारी ने पदोन्नत पद पर कार्यभार ग्रहण किया है।
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उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को प्रदेश सचिवालय की कार्यप्रणाली को चुस्त-दुरस्त करने और कार्मिकों के रवैये में सुधार लाने के लिए पिछले दिनों कई सख्त फैसले लेने पड़े थे। मगर सचिवालय के कुछ कार्मिकों ने तो शायद यह ठान रखी है कि चाहे कुछ भी हो जाए, वो सुधरेंगे नहीं। वर्तमान में एक प्रकरण वन विभाग से जुड़ा हुआ सामने आया है, जिसमें वन अनुभाग के कार्मिकों की गैर जिम्मेदाराना हरकत के कारण शासन की फजीहत हो गयी। वन अनुभाग के कार्मिकों ने उत्तराखंड वन निगम में प्रतिनियुक्ति से संबंधित एक मामले के आदेश की प्रति प्रमुख सचिव के हस्ताक्षर हुए बिना ‘लीक’ कर दी।
दरअसल, मई माह में उत्तराखंड वन विकास निगम के के प्रबंध निदेशक मोनिष मल्लिक ने प्रदेश के मुख्य वन सरंक्षक, मानव संसाधन विकास एवं कार्मिक प्रबंधन मनोज चंद्रन को एक पत्र लिखा। पत्र में उन्होंने वन निगम में विभिन्न अधिकारियों के सेवानिवृत होने के फलस्वरूप रिक्त पड़े पदों के कार्य संचालन में हो रही कठिनाइयों का उल्लेख किया और वन विभाग से 10 राजि अधिकारी स्तर के कार्मिकों को प्रतिनियुक्ति पर भेजने का अनुरोध किया।
वन निगम के पत्र पर तत्काल कार्रवाई करते हुए मनोज चंद्रन ने मुख्य वन सरंक्षक, गढ़वाल और कुमायूं को निगम के पत्र का हवाला देते हुए प्रतिनियुक्ति हेतु वन क्षेत्राधिकारियों, प्रभारी वन क्षेत्राधिकारियों तथा वरिष्ठ उप वन क्षेत्राधिकारियों से आवेदन पत्र एक निर्धारित प्रारूप पर भेजने को कहा। इस क्रम में इच्छुक कार्मिकों द्वारा विभागीय माध्यम से अपने आवेदन पत्र भेज दिए गए। वन मुख्यालय ने अपने स्तर से आवश्यक कार्रवाई कर इस प्रकरण को शासन को भेज दिया।
मामला तब चर्चा में आया, जब विभागीय मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत के अनुमोदन के बाद फाइल वापस सचिवालय में पहुंची। सचिवालय पहुंचते ही फाइल से प्रतिनियुक्ति पर जाने वाले कार्मिकों के आदेश की प्रति वन विभाग व वन निगम के कार्मिकों के व्हाट्सएप पर घूमने लगी। मजेदार बात ये है कि इस आदेश पर विभाग के प्रमुख सचिव के हस्ताक्षर भी नहीं हुए थे।
वन निगम के कार्मिकों को आदेश की जानकारी लगने पर उन्होंने इसका विरोध शुरू कर दिया। वन निगम के जूनियर ऑफिसर्स एसोसिएशन ने तर्क दिया की वन विभाग से जिन कार्मिकों को प्रतिनियुक्ति पर लिया जा रहा है, वो कनिष्ठ श्रेणी के हैं और उनको निगम में वरिष्ठ श्रेणी के पदों पर तैनाती देना उचित नहीं होगा। उन्होंने इस संबंध में प्रमुख सचिव (वन) आनंद वर्धन को अपना लिखित ज्ञापन भी सौंपा।
प्रमुख सचिव आनंद वर्धन ने विभागीय मंत्री के अनुमोदन के बावजूद आदेश को जारी होने से रोक दिया और इस पर वन निगम के प्रबंध निदेशक मल्लिक से आख्या मांगी। प्रबंध निदेशक ने निगम के कार्मिकों की मांग के अनुरूप अपनी आख्या शासन को भेज दी। प्रबंध निदेशक की आख्या के बाद प्रमुख सचिव आनंद वर्धन ने शुक्रवार को वन क्षेत्राधिकारी स्तर के पांच कार्मिकों को प्रतिनियुक्ति पर भेजने की स्वीकृति दे दी।
इधर, वन विभाग के कार्मिकों का कहना है इस मामले में वन निगम के कार्मिकों का विरोध औचित्यहीन है। वन निगम में प्रतिनियुक्ति हेतु जिस स्तर के कार्मिक मांगे गए थे, उनके विभाग के कार्मिक उस लिहाज से कहीं कनिष्ठ नहीं हैं। वन निगम में स्केलर पद से पदोन्नति पाए कर्मचारी वरिष्ठ पदों पर कब्ज़ा जमाए हुए हैं और प्रभारी के रूप में चार्ज लिए हुए हैं। वन विभाग के वन क्षेत्राधिकारी, प्रभारी वन क्षेत्राधिकारी तथा वरिष्ठ उप वन क्षेत्राधिकारियों की वरिष्ठता व वेतनमान में प्रतिनियुक्ति हेतु मांगे गए पद में बहुत अंतर नहीं है।
बहरहाल, यह प्रकरण वन विभाग व वन निगम के कार्मिकों में चर्चा का विषय बना हुआ है। सवाल उठ रहा है कि क्या जब प्रतिनियुक्ति के लिए नियम तय किये गए, तब विभागीय अधिकारियों और शासन को वरिष्ठता-कनिष्ठता का पता नहीं था? या फिर वन निगम के प्रबंधक निदेशक अपने कर्मचारी संगठन के दवाब में आ गए ? जब फाइल शासन में विभिन्न स्तरों पर गुजरी तब भी किसी स्तर पर आपत्ति क्यों नहीं लगाई गई ? सवाल यह भी हो रहा है कि विभागीय मंत्री के अनुमोदन के बाद क्या विभागीय प्रमुख सचिव मामले में आपत्ति लगा सकते हैं ? और सबसे बड़ा सवाल कि सचिवालय के जिन कार्मिकों ने बिना हस्ताक्षरों के आदेश को लीक कर शासन की गोपनीयता भंग की और इस मामले को विवादित बना दिया, उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई होगी ?