– नरेन्द्र सहगल
वरिष्ठ स्तंभकार
चिर सनातन अखण्ड भारत की सर्वांग स्वतंत्रता के लिए कटिबद्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक के संस्थापक डॉ. हेडगेवार स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे अज्ञात सेनापति थे, जिन्होंने अपने तथा अपने संगठन के नाम से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में अपना सब कुछ भारत माता के चरणों में अर्पित कर दिया था. बाल्यकाल से लेकर जीवन की अंतिम श्वास तक भारत की स्वतंत्रता के लिए जूझते रहने वाले इस महान स्वतंत्रता सेनानी ने न तो अपनी आत्मकथा लिखी और न ही इतिहास और समाचार पत्रों में अपना तथा अपनी संस्था का नाम प्रकट करवाने का कोई प्रचलित हथकंडा ही अपनाया.
डॉ. हेडगेवार तो लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल, त्रलोक्यनाथ, सरदार भगत सिंह, वीर सावरकर, सुभाष चंद्र बोस, रासबिहारी बोस, श्याम जी कृष्ण वर्मा जैसे असंख्य स्वतंत्रता सेनानियों की श्रेणी के महापुरुष थे, जिन्हें स्वाधीनता प्राप्ति के बाद सत्ता पर बैठने वाले शासकों ने पूर्णतया दरकिनार कर स्वतंत्रता संग्राम का पट्टा अपने नाम लिखवा लिया. आजाद हिंद फौज, अभिनव भारत, गदर पार्टी, अनुशीलन समिति, हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना, हिन्दू महासभा, आर्य समाज और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसी संस्थाओं के योगदान को धत्ता बताकर स्वतंत्रता संग्राम को एक ही नेता और एक ही दल के खाते में जमा कर देना एक राजनीतिक अनैतिकता और ऐतिहासिक अन्याय नहीं तो और क्या है?
उपरोक्त संदर्भ में सबसे अधिक घोर अन्याय डॉ. हेडगेवार के साथ हुआ, जिसने सशस्त्र क्रांति से लेकर सभी अहिंसक आंदोलनों एवं सत्याग्रहों में न केवल अग्रणी भूमिका ही निभाई, अपितु स्वतंत्रता संग्राम को राष्ट्रीय दिशा देने का भरपूर प्रयास भी किया. डॉ. हेडगेवार की इस महत्वपूर्ण पार्श्व भूमिका को स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में समझना वर्तमान समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है. इस ऐतिहासिक सच्चाई से कौन इंकार करेगा कि सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात समस्त भारत में तेज गति से हो रहे हिन्दुत्व के जागरण, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुर्नस्थापन, चातुर्दिक क्रांतिकारी गतिविधियों, भारतीयों की स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए उत्कट इच्छा को कुचलकर उसे दिशा भ्रमित करने के लिए एक कट्टरपंथी ईसाई नेता ए.ओ. ह्यूम ने 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की थी.
ये प्रारम्भिक कांग्रेस अंग्रेज हुकूमत का सुरक्षा कवच (सेफ्टी वाल्व) था. अतः अंग्रेजों की इसी कुटिल चाल को विफल करने, भारतीयता को विदेशी और विधर्मी षड्यंत्रों से बचाने और स्वतंत्रता संग्राम को राष्ट्रीय सनातन आधार प्रदान करने के लिए डॉ. हेडगेवार ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी. यह संघ भारत की सनातन राष्ट्रीय पहचान ‘हिन्दुत्व’ का सुरक्षा कवच था और है. राष्ट्र की सर्वांग स्वतंत्रता एवं सर्वांग सुरक्षा के लिए देशभक्त स्वतंत्रता सेनानियों का शक्तिशाली संगठन.
डॉ. हेडगेवार की सबसे बड़ी चिंता यह थी कि सैन्य पौरुष, ज्ञान विज्ञान, अतुलनीय समृद्धि, गौरवशाली संस्कृति इत्यादि सब कुछ होते हुए भी हम परतंत्र क्यों हुए? परतंत्रता के कारणों को जाने बिना स्वतंत्रता प्राप्ति के सभी प्रयासों का परिणाम अच्छा नहीं होगा, यही हुआ भी. सदियों पुराने राष्ट्र का दुखित विभाजन और आधी-अधूरी राजनीतिक स्वतंत्रता.
डॉ. हेडगेवार ने तत्कालीन सभी राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक संस्थाओं एवं आंदोलनों में भागीदारी करने के बाद मंथन में से यह निष्कर्ष निकालकर स्वतंत्रता सेनानियों, नेताओं, संतों महात्माओं सहित सभी भारतवासियों के सामने रखा – ‘‘हमारे समाज और देश का पतन मुस्लिम हमलावरों या अंग्रेजों के कारण नहीं है. अपितु, राष्ट्रीय भावना शिथिल होने पर व्यक्ति और समष्टि के वास्तविक संबंध बिगड़ गये तथा इस प्रकार की असंगठित व्यवस्था के कारण ही एक समय दिग्विजय का डंका दसों दिशाओं में बजाने वाला हिन्दू (भारतीय) समाज सैकड़ों वर्षों से विदेशियों की आसुरिक सत्ता के नीचे पददलित है’’. डॉ. हेडगेवार मानते थे कि भारत के वैभव, पतन, संघर्ष और उत्थान का इतिहास हिन्दुओं के सामाजिक उतार चढ़ाव के साथ जुड़ा हुआ है. अर्थात भारत की परतंत्रता के लिए हिन्दुओं में व्याप्त हो चुका जातिवाद, अंतर्कलह, एक दूसरे को नीचा दिखाने की मनोवृत्ति, असंगठित व्यवस्था और छुआछूत की भयंकर बीमारी इत्यादि ही देश की पतन अवस्था के लिए जिम्मेदार हैं.
इसलिए देश को स्वतंत्र करने एवं बाद में स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए देश के बहुसंख्यक प्राचीन राष्ट्रीय समाज हिन्दू को संगठित, शक्तिशाली, चरित्रवान, स्वदेशी, स्वाभिमानी बनाना अति आवश्यक है. डॉ. हेडगेवार के इसी चिंतन ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जन्म दिया. अद्भुत कार्यपद्धति की सर्वोत्तम विशेषता यही है कि उन्होंने हिन्दू संगठन और स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के दोनों मुख्य काम एक साथ करने में सफलता प्राप्त की.
डॉ. हेडगेवार द्वारा प्रदत हिन्दुत्व की कल्पना और अवधारणा में सभी भारतवासी शामिल हैं. जो भी भारतवर्ष को अपनी मातृभूमि, पितृभूमि और पुण्य भूमि मानता है, वह व्यक्ति हिन्दू ही है. हिन्दुत्व किसी जाति मजहब का परिचायक न होकर भारत की सनातन काल से चली आ रही राष्ट्रीय जीवन व्यवस्था है. देश के भूगोल और संस्कृति की पहचान है हिन्दुत्व. कथित रूप से कहे जाने वाले अल्पसंख्यक समाज इसी राष्ट्रीय पहचान का अभिन्न हिस्सा हैं. इसलिए हिन्दुत्व ही वह आधार है, जिस पर सभी भारतवासियों की एकता सम्भव है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना किसी विशेष मजहब, जाति या दल के विरोध में नहीं हुई. भारत को स्वतंत्र करवाना और स्वतंत्रता को सुरक्षित रखना संघ का एकमात्र लक्ष्य था और आज भी है. संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने बाल्यकाल से ही अंग्रेजी साम्राज्य का विद्रोह शुरू कर दिया था. उनके बचपन की तीन घटनाएं उनके द्वारा भविष्य में स्थापित होने वाले शक्तिशाली संगठन और उसके महान उद्देश्य का शिलान्यास थीं. बाल केशव हेडगेवार द्वारा स्कूल में महारानी विक्टोरिया के जन्मदिन पर बंटने वाली मिठाई को यह कहकर कूड़ेदान में फैंक दिया गया – ‘‘मैंने अंग्रेजी साम्राज्य को कूड़ेदान में फेंक दिया है, विदेशी राजा के जन्मदिन पर बांटी गई मिठाई को मैं नहीं खा सकता’’. नागपुर के सीताबर्डी किले पर लगे यूनियन जैक (अंग्रेजों का झंडा) के स्थान पर भगवा ध्वज लहराने के लिए घर के एक कमरे में ही अपने बाल सखाओं के साथ सुरंग खोदने का काम शुरु कर देना.
नागपुर के नीलसिटी हाई स्कूल में पढ़ते समय वंदे मातरम गीत पर लगे प्रतिबंध को तोड़कर सभी कक्षाओं में बच्चों द्वारा वंदे मातरम के उद्घोष करवाना, आदि घटनाएं उनके भीतर जन्म ले चुके अंग्रेज विरोध तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रत्येक प्रकार का बलिदान करने की दृढ़ता को दर्शाता है. वंदेमातरम गायन पर लगे प्रतिबंध को तोड़ने की सजा मिली ‘स्कूल से निष्काष्न’. किसी तरह पुणे में जाकर विद्यालय की शिक्षा पूरी की. तत्पश्चात उस समय के राष्ट्रीय नेताओं की योजना तथा व्यवस्थानुसार कलकत्ता के नेशनल मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लिया. उद्देश्य था – उस समय के सबसे बड़े क्रांतिकारी संगठन ‘अनुशीलन समिति’ का सदस्य बनकर देश भर के सभी क्रांतिकारियों से संबंध स्थापित कर लेना. वे इस महान कार्य में सफल हुए और 6 वर्ष के बाद डॉक्टरी की डिग्री और सशस्त्र क्रांति का प्रशिक्षण व अनुभव लेकर नागपुर लौट आए. परन्तु डॉक्टरी का व्यवसाय नहीं किया और न ही विवाह किया. अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्र को समर्पित कर दिया.
1915 में प्रथम विश्व युद्ध के बादल मंडराने लगे थे. डॉ. हेडगेवार ने इस अवसर पर पूरे देश में विप्लव करके अंग्रेजों को उखाड़ फैंकने की योजना पर कार्य किया. देश भर में क्रांतिकारियों को तैयार करने, प्रत्येक स्थान पर हथियार भेजने एवं क्रांति का बिगुल बजाने की तैयारी हो गई. परन्तु उस समय के कांग्रेस नेताओं का साथ न मिलने से यह योजना साकार नहीं हो सकी. तो भी देश की स्वतंत्रता के लिए गहन चिंतन और परिश्रम जारी रहा. सभी मार्गों का अनुभव लेने, उनमें भागीदारी करने और उनके संचालन के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे. डॉ. हेडगेवार कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन में भी गए, उन्हें मध्यप्रदेश कांग्रेस का सह-सचिव का पद भी सौंपा गया. नागपुर में सम्पन्न हुए कांग्रेस के अखिल भारतीय अधिवेशन में मुख्य व्यवस्थापकों में भी थे. उन्होंने इस अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव भी रखा था जो पारित नहीं हो पाया.
डॉ. हेडगेवार ने कांग्रेस के भीतर रहकर अखंड भारत, सर्वांग स्वतंत्रता और शक्तिशाली हिन्दू संगठन की आवश्यकता का वैचारिक आधार तैयार करने का पूरा प्रयास किया था. वे कांग्रेस के मंचों पर अंग्रेजों के विरुद्ध उग्र भाषण देने लगे. ऐसे ही एक उग्र भाषण पर डॉ. हेडगेवार को गिरफ्तार कर लिया गया. उन पर मई 1921 में राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया. इसके एकतरफा फैसले में डॉक्टर जी को एक वर्ष के कठोर सश्रम कारावास की सजा दी गई. कारावास में भी पूर्ण स्वतंत्रता का चिंतन चलता रहा. जेल से लौटने के पश्चात भी महात्मा गांधी जी के नेतृत्व में आयोजित होने वाले सभी सत्याग्रहों एवं आंदोलनों में भाग लेते रहे.
डॉ. हेडगेवार ने विजयदशमी 1925 में नागपुर में संघ की स्थापना की. उस समय संघ के स्वयंसेवकों ने एक प्रतिज्ञा लेनी होती थी – ‘मैं अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए तन-मन-धन पूर्वक आजन्म और प्रमाणिकता से प्रयत्नरत रहने का संकल्प लेता हूं.’ डॉ. हेडगेवार ने घोषणा की – ‘हमारा उद्देश्य हिन्दू राष्ट्र की पूर्ण स्वतंत्रता है, संघ का निर्माण इसी महान लक्ष्य को पूर्ण करने के लिए हुआ है.’ जब कांग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित किया तो डॉ. हेडगेवार ने संघ की सभी शाखाओं पर 26 जनवरी, 1930 को सायंकाल 6 बजे स्वतंत्रता दिवस मनाने का आदेश दिया. सभी शाखाओं के स्वयंसेवकों ने पूर्ण गणवेश पहनकर नगरों में पथ संचलन निकाले और स्वतंत्रता संग्राम में बढ़चढ़कर भाग लेने की प्रतिज्ञा दोहराई. ध्यान दें कि संघ ऐसी पहली संस्था थी, जिसने सबसे पहले पूर्ण स्वतंत्रता का उद्देश्य रखा था.
1930 से पहले कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता का नाम तक नहीं लिया. यह दल हाथ में कटोरा लेकर अंग्रेजों से आजादी की भीख मांगता रहा. तो भी डॉ. हेडगेवार ने महात्मा गांधी जी के सभी सत्याग्रहों और आंदोलनों में स्वयंसेवकों को भाग लेने की अनुमति दी. गांधी जी के नेतृत्व में आयोजित असहयोग आंदोलन में स्वयं डॉ. हेडगेवार ने 6 हजार से अधिक स्वयंसेवकों के साथ ‘जंगल सत्याग्रह’ में भाग लिया था. उन्हें 9 मास के सश्रम कारावास की सजा हुई थी. इसी प्रकार 1942 में महात्मा गांधी जी के नेतृत्व में सम्पन्न ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन’ में संघ के स्वयंसेवकों ने सरसंघचालक श्री गुरुजी के आदेशानुसार भाग लिया था. इतना ही नहीं कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं को संघ के कार्यकर्ताओं ने अपने घरों में शरण भी दी थी. उदाहरणार्थ, दिल्ली के उस समय के प्रांत संघचालक हंसराज गुप्त जी के घर में अरुणा आसफ अली और जय प्रकाश नारायण ठहरे थे.
राष्ट्रीय अभिलेखागार में गुप्तचर विभाग की एक रिपोर्ट सुरक्षित रखी हुई है. इस रिपोर्ट में संघ के अनेक कार्यकर्ताओं के नाम भी मिलते हैं, जो १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन में भागीदारी करने के कारण विभिन्न स्थानों पर हिरासत में लिए गए और जेलों में सजा भुगती. इन रिपोर्टों से यह भी पता चलता है कि विदर्भ के चिमूर आश्थी नामक स्थान पर संघ के कार्यकर्ताओं ने स्वतंत्र सरकार की स्थापना भी कर ली थी. संघ के स्वयंसेवकों ने अंग्रेज पुलिस के अमानवीय अत्याचारों का सामना किया. गुप्तचर विभाग की रिपोर्टों से पता चलता है कि अपनी सरकार स्थापित करने के बाद सरकारी आदेशों से हुए लाठीचार्ज/गोलीबारी में एक दर्जन से ज्यादा स्वयंसेवक बलिदान हुए थे.
नागपुर के निकट रामटेक में संघ के नगर कार्यवाह रमाकांत केशव देशपांडे उपाख्य बालासाहब देशपांडे को 1942 “अंग्रेजों भारत छोड़ो” के आन्दोलन में सक्रिय भाग लेने पर मृत्युदंड की सजा सुनाई गयी थी. परन्तु बाद में उन्हें इस सजा से मुक्त कर दिया गया. इन्हीं बालासाहब देशपांडे ने बाद में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की थी.
उल्लेखनीय है कि डॉ. हेडगेवार ने द्वितीय महायुद्ध के मंडराते बादलों को भांप कर देश में एक सशक्त क्रांति करने की योजना पर सुभाष चंद्र बोस, वीर सावरकर और त्रलोक्यनाथ चक्रवर्ती के साथ गहन चर्चा की थी. इसी चर्चा में से सेना में नौजवानों की भर्ती, सेना में विद्रोह और आजाद हिंद फौज के गठन का विचार उत्पन्न हुआ था. सारी योजना तैयार हो गई और काम शुरु हो गया. नौजवान योजनाबद्ध फौज में भर्ती हुए और सुभाष चंद्र बोस द्वारा विदेशों में जाकर आजाद हिंद फौज का नेतृत्व संभाल लिया और इधर अभिनव भारत, हिन्दू महासभा, आर्य समाज, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सभी सशस्त्र क्रांतिकारी संगठनों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बजाने के लिए शक्ति अर्जित करनी प्रारम्भ कर दी.
आखिर वह समय आया जब फौज में विद्रोह हुआ और आजाद हिंद फौज भी इम्फाल तक पहुंच गई. अंग्रेजों को भय लगा, इस भयंकर विकट परिस्थिति से निपटने में अपने को असमर्थ पाकर अंग्रेजों ने अपने पहले फैसले को बदलकर 10 महीने पहले ही 15 अगस्त, 1947 को देश के विभाजन की घोषणा कर दी. पहले फैसले के अनुसार विभाजन की तिथि 8 जून, 1948 थी. यह देश का और स्वतंत्रता सेनानियों का दुर्भाग्य ही था कि कांग्रेस के नेताओं ने 1200 वर्षों से चले आ रहे स्वतंत्रता संग्राम और लाखों बलिदानी हुतात्माओं के ‘‘अखण्ड भारत की सर्वांग स्वतंत्रता’’ के उद्देश्य को ध्वस्त करते हुए देश का विभाजन स्वीकार करके आधी-अधूरी आजादी प्राप्त कर ली. यदि एक वर्ष और ठहर जाते तो स्वतंत्रता भी मिलती और भारत का विभाजन भी न होता.
विभाजन के बाद महात्मा गांधी जी ने एक पत्र लिखकर कांग्रेस के नेताओं को सुझाव दिया था कि अब कांग्रेस को समाप्त करके इसे एक सेवादल में परिवर्तित कर दो. महात्मा गांधी जी की इस इच्छा को ठुकरा दिया गया. उधर, संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने स्वयंसेवकों को तेज गति से अपनी शक्ति बढ़ाने का आदेश दिया. उन्होंने कहा कि ‘डॉ. हेडगेवार का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ, उनका उद्देश्य था अखण्ड भारत की सर्वांग स्वतंत्रता और सर्वांगीण विकास. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 1947 के बाद भी सक्रिय रहा. कश्मीर की सुरक्षा के लिए स्वयंसेवकों ने बलिदान दिया. डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने श्रीनगर में जाकर अपनी कुर्बानी दी. स्वयंसेवकों ने हैदराबाद और गोवा की स्वतंत्रता के लिए सत्याग्रह और संघर्ष किया.
यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि इन सभी संघर्षों में संघ के स्वयंसेवकों ने राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे की छत्रछाया में और तिरंगे की रक्षा के लिए बलिदान दिए हैं. उल्लेखनीय है कि डॉ. हेडगेवार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अंतिम उद्देश्य है – परम वैभवशाली अखंड हिन्दू राष्ट्र. परम वैभवशाली अर्थात : सर्वांग स्वतंत्रता, सर्वांग संगठित, सर्वांग विकसित और सर्वांग सुरक्षित राष्ट्र.
- सुयश त्यागी
स्वतंत्र पत्रकार व लेखक
कोरोना संक्रमण की बढ़ती रफ्तार से ना केवल भारत अपितु सम्पूर्ण विश्व एक गंभीर संकट झेल रहा है। भारत में पिछली लहर के मुकाबले इस लहर से संकट कई अधिक गहरा गया है। संकट गहराने की मुख्य वजह संक्रमण का शहरों के साथ ग्रामों की ओर रुख करना है। लगातार बढ़ते मरीजों के अनुपात में बढ़ती स्वास्थ्य जरूरतों का एक बड़ा अभाव समाज में दिखता है। शासन प्रशासन की पुरजोर कोशिशों के बाद भी शहरों से लेकर ग्रामों तक नागरिकों की पीड़ा उमड़ रही है।
महामारी के प्रकोप से चरमराती व्यवस्था में भारत के अनेक ग्रामों से नागरिकों का शासन से प्रश्न उठना जायज है, पर उन उठते प्रश्नों में गांधी जी की ग्राम स्वराज की अवधारणा से फलीभूत नागरिकों से भी कुछ प्रश्नों का स्वतः समरण हो उठता है। गांधी जी का मानना था भारत का विकास यहां के ग्रामों को केंद्र में रखे बिना संभव नही। उनका चिंतन ग्रामों का भौतिक रूप से पुनर्निर्माण का नही अपितु उन्हें आत्मनिर्भर बनाना था।
कोरोना संक्रमण शहरों की तरह ग्रामों में भी तेजी से पांव पसार रहा है, वहां की स्वास्थ्य सुविधाओं का शहरों से मुकाबला करना ही एक बेमानी सी होगीl गांधी जी की ग्राम स्वराज के माध्यम से ग्राम में निवासरत प्रत्येक ग्रामवासी की भारत के शासन में कैसे सहभागिता हो इसकी कल्पना थी, पर वर्तमान परिदृश्य में वो कल्पना अधूरी सी प्रतीत होती है।
आज हर दूसरा व्यक्ति स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार के लिए राज्य से लेकर केंद्र सरकार तक दोषारोपण करता है। बड़े नेताओं को सड़कों पर कोसता है, किंतु स्वयं के कर्तव्यों का विश्लेषण नहीं करता। अपने दायित्व का कभी बोध नही करता। प्रश्न भी तब करता है, जब बात हाथ से निकल चुकी होती है और उसके वो प्रश्न समाज में एक तनाव, अराजक व नकारात्मक वातावरण की स्तिथि उत्पन्न करने के सिवाय कुछ बड़ा बदलाव नही कर पाते।
उसे कभी स्वयं के मूलभूत अधिकारों की भी विवेचना करनी चाहिए कि उसने अपने ग्राम में होने वाली ग्राम सभाओं में कितनी बार ग्राम के विकास की योजना में सहभागिता ली होगी? कितनी बार अपने ग्राम के सरपंचों से वहां के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों या विद्यालयों की स्थिति पर ध्यान केंद्रित करवाया होगा? कितनी बार वहां पर साक्षरता, स्वच्छ्ता, कोरोना से बचने के लिए जनजागरण जैसे मुद्दों को उठाया होगा? कितनी बार वहां के विकास कार्य, निर्माण कार्य में लगी राशि का जनपद और खंड कार्यालयों में जाकर सत्यापन करवाया होगा? कितनी बार उसने ग्राम में कार्य कर रहे शासकीय कर्मचारियों से काम को गंभीरता व समय के पाबंदी से करने का आग्रह किया होगा?
आखिर करे भी तो क्यों! हर कार्यरत्त व्यक्ति ग्राम स्तर पर उसका कहीं ना कहीं परिचित या रिश्तेदार ही होगा। अपने आस-पड़ोस ग्राम और शहर का हाल देख वो पीड़ित भी होता है और लोगों की जवाबदेही तय करने से भी डरता है। हालांकि गलती उसकी भी नही है, ये मानव स्वभाव होता ही ऐसा है, अपनी व समाज की गलतियों को दूसरों पर मढ़ने के लिए हमेशा व्यक्ति सॉफ्ट टारगेट ही चुना करते हैं। गांव में बैठा कोई व्यक्ति राज्य के मुख्यमंत्री या देश के प्रधानमंत्री को कोस कर अपनी कुंठा निकाल लेगा, जमघट लगाकर उसकी निंदा कर लेगा, किंतु स्थानीय स्तर पर जायज लोगों से कभी प्रश्न नही करेगा और ना ही कभी कोई बड़ा बदलाव ला पायेगा।
वो गांव के पंच, सरपंच, जनपद और प्रतिनिधियों से संवाद नही करेगा। उनका उपयोग शायद वो बस अपने घर में होने वाले सामाजिक कार्यक्रमों में शोभा बढ़ाने के लिए ही करेगा। उसे अपने गांव के विकास से ज्यादा इस बात की चिंता रहेगी कि जनप्रतिनिधि सबसे पहले उसके घर पर आकर विराजमान हो, जिससे उसका व उसके परिवार का उसके गांव व आसपास के क्षेत्र में सम्मान बढ़े।
वो परिवर्तन जरूर लाना चाहता है पर उसका वो परिवर्तन सिर्फ विचारों तक ही सीमित है। जब बात वास्तविकता के धरातल पर आएगी तो प्रश्न कभी उसके परिजन पर उठेंगे तो कभी उसके परिचितों पर, जिससे उसकी क्रांति क्षणभर में शून्य होकर अधूरी रह जाएगी। उसे दूसरों राज्य में या किसी शहर में हुए चुनाव दिखेंगे। हरिद्वार में हुआ कुंभ दिखेगा, पर जब वो उनका असर अपने ग्राम पर देखेगा तो उसे दिखेगा की वहां ना अभी चुनाव थे, ना ही कुंभ और ना उन कारणों से वहां संक्रमण फैला, फिर आखिर क्यों उस ग्राम में ऐसी परिस्तिथि का निर्माण हो गया। मूल बात को छोड़कर वो हर अनर्गल बात करेगा, स्वयं तो भ्रमित बैठा ही है दूसरों को भी निरंतर भ्रमित करेगा।
अगर वास्तव में आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी ग्रामों में जमीनी स्तर पर ऐसे बड़े बदलाव आये होते तो यकीनन उनका असर आज ऊपर तक दिखता। वास्तविकता में क्क्त अभी खामियां निकालने की नहीं, ग्राम स्तर से लेकर केंद्र स्तर तक एकजुट होकर इस महामारी से लड़ने का है। आज इस महामारी से पीड़ा की घड़ी में जिला अस्पताल और ब्लॉक स्तर पर बने अस्पतालों की व्यस्तता किसी से छुपी नही है। ऐसे में इस देश में कितने ऐसे गांव होंगे जिन्होंने स्वयं के क्वारंटाइन सेन्टर निर्मित किए होंगे?
प्रदेश और देश की चुनी हुई सरकार आपकी है, तो आपके ग्राम, आपके क्षेत्र का चुना हुआ सरपंच या प्रतिनिधि भी आपका ही है। वहां अनेक-अनेक दायित्वों पर बैठे विभिन्न अधिकारी भी आपके ही हैं, जिनसे सवाल जवाब करना ना सिर्फ आपका अधिकार है, अपितु गांव व क्षेत्र के समग्र विकास के लिए आपका कर्तव्य भी है। बहरहाल, जिस दिन ग्रामों की सहभागिता जब कार्य योजना में बढ़ेगी तो गांधी जी की 150वी जन्मशताब्दी पार चुका भारत और उसे आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प लिए देश के वर्तमान प्रधानमंत्री का स्वप्न वास्तव में सच हो जाएगा।
स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में जिनकी एक पुकार पर हजारों महिलाओं ने अपने कीमती गहने अर्पित कर दिये, जिनके आह्नान पर हजारों युवक और युवतियाँ आजाद हिन्द फौज में भर्ती हो गये, उन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जन्म उड़ीसा की राजधानी कटक के एक मध्यमवर्गीय परिवार में 23 जनवरी, 1897 को हुआ था।
सुभाष के अंग्रेज भक्त पिता रायबहादुर जानकीनाथ चाहते थे कि वह अंग्रेजी आचार-विचार और शिक्षा को अपनाएँ। विदेश में जाकर पढ़ें तथा आई.सी.एस. बनकर अपने कुल का नाम रोशन करें; पर सुभाष की माता प्रभावती हिन्दुत्व और देश से प्रेम करने वाली महिला थीं। वे उन्हें 1857 के संग्राम तथा विवेकानन्द जैसे महापुरुषों की कहानियाँ सुनाती थीं। इससे सुभाष के मन में भी देश के लिए कुछ करने की भावना प्रबल हो उठी।
सुभाष ने कटक और कोलकाता से विभिन्न परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। फिर पिताजी के आग्रह पर वे आई.सी.एस की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड चले गये। अपनी योग्यता और परिश्रम से उन्होंने लिखित परीक्षा में पूरे विश्वविद्यालय में चतुर्थ स्थान प्राप्त किया; पर उनके मन में ब्रिटिश शासन की सेवा करने की इच्छा नहीं थी। वे अध्यापक या पत्रकार बनना चाहते थे। बंगाल के स्वतन्त्रता सेनानी देशबन्धु चितरंजन दास से उनका पत्र-व्यवहार होता रहता था। उनके आग्रह पर वे भारत आकर कांग्रेस में शामिल हो गये।
कांग्रेस में उन दिनों गांधी जी और नेहरू जी की तूती बोल रही थी। उनके निर्देश पर सुभाष बाबू ने अनेक आन्दोलनों में भाग लिया और 12 बार जेल-यात्रा की। 1938 में गुजरात के हरिपुरा में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बनाये गये; पर फिर उनके गांधी जी से कुछ मतभेद हो गये। गांधी जी चाहते थे कि प्रेम और अहिंसा से आजादी का आन्दोलन चलाया जाये; पर सुभाष बाबू उग्र साधनों को अपनाना चाहते थे। कांग्रेस के अधिकांश लोग सुभाष बाबू का समर्थन करते थे। युवक वर्ग तो उनका दीवाना ही था।
सुभाष बाबू ने अगले साल मध्य प्रदेश के त्रिपुरी में हुए अधिवेशन में फिर से अध्यक्ष बनना चाहा; पर गांधी जी ने पट्टाभि सीतारमैया को खड़ा कर दिया। सुभाष बाबू भारी बहुमत से चुनाव जीत गये। इससे गांधी जी के दिल को बहुत चोट लगी। आगे चलकर सुभाष बाबू ने जो भी कार्यक्रम हाथ में लेना चाहा, गांधी जी और नेहरू के गुट ने उसमें सहयोग नहीं दिया। इससे खिन्न होकर सुभाष बाबू ने अध्यक्ष पद के साथ ही कांग्रेस भी छोड़ दी।
अब उन्होंने ‘फारवर्ड ब्लाक’ की स्थापना की। कुछ ही समय में कांग्रेस की चमक इसके आगे फीकी पड़ गयी। इस पर अंग्रेज शासन ने सुभाष बाबू को पहले जेल में और फिर घर में नजरबन्द कर दिया; पर सुभाष बाबू वहाँ से निकल भागे। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। सुभाष बाबू ने अंग्रेजों के विरोधी देशों के सहयोग से भारत की स्वतन्त्रता का प्रयास किया। उन्होंने आजाद हिन्द फौज के सेनापति पद से जय हिन्द, चलो दिल्ली तथा तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा का नारा दिया; पर दुर्भाग्य से उनका यह प्रयास सफल नहीं हो पाया।
सुभाष बाबू का अन्त कैसे, कब और कहाँ हुआ, यह रहस्य ही है। कहा जाता है कि 18 अगस्त, 1945 को जापान में हुई एक विमान दुर्घटना में उनका देहान्त हो गया। यद्यपि अधिकांश तथ्य इसे झूठ सिद्ध करते हैं; पर उनकी मृत्यु के रहस्य से पूरा पर्दा उठना अभी बाकी है।
गुजरात के हरिपुरा में होगा विशेष कार्यक्रम
शनिवार को इस महान नेता की जयंती पराक्रम दिवस के रूप में मनाई जाएगी। देश भर में आयोजित होने वाले विभिन्न कार्यक्रमों में से एक विशेष कार्यक्रम गुजरात के हरिपुरा में आयोजित होगा। इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल होंगे।
हरिपुरा का नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ एक विशेष संबंध रहा है। 1938 के ऐतिहासिक हरिपुरा अधिवेशन में नेताजी बोस ने कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष पद संभाला था। प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट कर कहा कि हरिपुरा में आयोजित होने वाला कार्यक्रम हमारे राष्ट्र के लिए नेताजी बोस के योगदान को एक श्रद्धांजलि होगी।