- राकेश सैन
CAA में देश के किसी नागरिक का जिक्र न था, परंतु भ्रम फैलाने वालों ने इसे मुसलमान विरोधी बताया और लोगों को सड़कों पर उतार दिया। अब उसी तर्ज पर कृषि सुधार अधिनियम को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा है।
नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग में हुए आंदोलन और केंद्र सरकार द्वारा पारित कृषि सुधार अधिनियम को लेकर पंजाब सहित उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में हो रहे किसान आंदोलन के बीच की समानता को उर्दू शायर फैज के शब्दों में यूं बयां किया जा सकता है कि – ‘वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था, वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है।’
CAA में देश के किसी नागरिक का जिक्र न था, परंतु भ्रम फैलाने वालों ने इसे मुसलमानों का विरोधी बताया और लोगों को सड़कों पर उतार दिया। अब उसी तर्ज पर कृषि सुधार अधिनियम को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा है, इसमें न तो फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को समाप्त करने की बात कही गई है और न ही मंडी व्यवस्था खत्म करने की। परंतु इसके बावजूद आंदोलनकारी इस मुद्दे को जीवन मरण का प्रश्न बनाए हुए हैं। अधिनियम के अस्तित्व में आने के बाद से ही पंजाब में चला आ रहा किसान आंदोलन बीच में मद्धम पड़ने के बाद किसानों के ‘दिल्ली चलो’ के आह्वान के बाद फिर जोर पकड़ रहा है।
जैसी आशंका जताई जा रही थी वही हुआ, आंदोलन के चलते पिछले लगभग दो महीनों से परेशान लोगों की किसानों के अड़ियल रवैये से मुश्किलें और बढ़ गई हैं। ज्यादातर जगहों पर किसानों को रोकने की तमाम कोशिशें बेकार साबित हुईं। लंबे जाम और किसानों के आक्रामक रुख को देखते हुए पुलिस ने ज्यादा सख्ती नहीं की और उन्हें आगे बढ़ने दिया। साफ सी बात है कि आने वाले दिनों में आम लोगों की परेशानी और बढ़ने वाली है, क्योंकि किसान पूरी तैयारी के साथ डटे हैं। उनकी संख्या भी हजारों में है। चाहे कुछ मार्गों पर रेल यातायात कुछ शुरू हुआ है, परंतु यह पूरी तरह बहाल नहीं हो पाया है। अब सड़क मार्ग भी बाधित होने के कारण समस्या और बढ़ गई है। इसके साथ ही सरकार और किसानों के बीच टकराव भी बढ़ता जा रहा है। इसके पीछे राजनीति भी कम जिम्मेदार नहीं है। किसानों को अलग-अलग राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल है। चूंकि पंजाब में लगभग एक साल बाद विधानसभा चुनावों का बिगुल बज जाना है, इसलिए कोई भी इस आंदोलन का लाभ लेने से पीछे हटने के लिए तैयार दिखाई नहीं दे रहा है।
केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों को लेकर जो विरोध हो रहा है, वह साधारण लोगों के लिए तो क्या कृषि विशेषज्ञों व प्रगतिशील किसानों के लिए भी समझ से बाहर की बात है। कुछ राजनीतिक दल व विघ्नसंतोषी शक्तियां अपने निजी स्वार्थों के लिए किसानों को भड़का कर न केवल अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं, बल्कि वे खुद नहीं जानते कि ऐसा करके वह किसानों का कितना बड़ा नुक्सान करने जा रहे हैं। कितना हास्यास्पद है कि पंजाब के राजनीतिक दल उन्हीं कानूनों का विरोध कर रहे हैं जो राज्य में पहले से ही मौजूद हैं और उनकी ही सरकारों के समय में इन कानूनों को लागू किया गया था। इन कानूनों को लागू करते समय इन दलों ने इन्हें किसान हितैषी बताया था और आज वे किसानों के नाम पर ही इसका विरोध कर रहे हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह किसानों के इसी आक्रोश का राजनीतिक लाभ उठाने के उद्देश्य से पंजाब विधानसभा में केंद्र के कृषि कानूनों को निरस्त भी कर चुके हैं और अपनी ओर से नए कानून भी पारित करवा चुके हैं। परंतु उनका यह दांवपेच असफल हो गया क्योंकि प्रदर्शनकारी किसानों ने पंजाब सरकार के कृषि कानूनों को भी अस्वीकार कर दिया है।
संघर्ष के पीछे की राजनीति समझने के लिए हमें वर्ष 2006 में जाना होगा। उस समय पंजाब में कांग्रेस सरकार ने कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम (एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्किट एमेंडमेंट एक्ट) के जरिए राज्य में निजी कंपनियों को खरीददारी की अनुमति दी थी। कानून में निजी यार्डों को भी अनुमति मिली थी। किसानों को भी छूट दी गई कि वह कहीं भी अपने उत्पाद बेच सकता है। साल 2019 के आम चुनावों में कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणापत्र में इसी प्रकार के कानून बनाने का वायदा किया था, जिसका वह आज विरोध कर रही है। अब चलते हैं साल 2013 में, जब राज्य में अकाली दल बादल व भारतीय जनता पार्टी गठजोड़ की स. प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में सरकार सत्तारूढ़ थी। बादल सरकार ने इस दौरान अनुबंध कृषि (कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग) की अनुमति देते हुए कानून बनाया। कृषि विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री स. सरदारा सिंह जौहल अब पूछते हैं कि अब जब केंद्र ने इन दोनों कानूनों को मिला कर नया कानून बनाया है तो कांग्रेस व अकाली दल इसका विरोध किस आधार पर कर रहे हैं।
पंजाब में चल रहे कथित किसान आंदोलन का संचालन ढाई दर्जन से अधिक किसान यूनियनें कर रही हैं। कहने को तो भारतीय किसान यूनियन किसानों का संगठन है, परंतु इनकी वामपंथी सोच जगजाहिर है। दिल्ली में चले शाहीन बाग आंदोलन में किसान यूनियन के लोग हिस्सा ले चुके हैं। किसान आंदोलन को भड़काने के लिए गीतकारों से जो गीत गवाए जा रहे हैं, उनकी भाषा विशुद्ध रूप से विषाक्त नक्सलवादी चाशनी से लिपटी हुई है। ऊपर से रही सही कसर खालिस्तानियों व कट्टरवादियों ने पूरी कर दी। प्रदेश में चल रहे कथित किसान आंदोलन में कई स्थानों पर खालिस्तान को लेकर भी नारेबाजी हो चुकी है। सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर एक नहीं, बल्कि भारी संख्या में पेज ऐसे चल रहे हैं जो इस आंदोलन को खालिस्तान से जोड़ कर देख रहे हैं और युवाओं को भटकाने का काम कर रहे हैं।
सच्चाई तो यह है कि केंद्र के नए कृषि अधिनियम अंतत: किसानों के लिए लाभकारी साबित होने वाले हैं। इनके अंतर्गत ऑनलाइन मार्केट भी लाई गई है, जिसमें किसान अपनी फसल को इसके माध्यम से कहीं भी अपनी इच्छा से बेच सकेगा। इस कानून में राज्य सरकारों को भी अनुमति दी गई है कि वह सोसायटी बना कर माल की खरीददारी कर सकती हैं और आगे बेच भी सकती हैं। नए कानून के अनुसार, किसानों व खरीददारों में कोई झगड़ा होता है तो उपमंडल अधिकारी को एक निश्चित अवधि में इसका निपटारा करवाना होगा। इससे किसान अदालतों के चक्कर काटने से बचेगा। हैरत की बात यह है कि किसानों को नए कानून के लाभ के बारे में कोई भी नहीं जानकारी दे रहा। एक और हैरान करने वाला तथ्य है कि केंद्र सरकार ने हाल ही में पंजाब में धान की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर की है। परंतु इसके बावजूद MSP को लेकर प्रदर्शनकारियों में धुंधलका छंटने का नाम नहीं ले रहा और उन बातों को लेकर विरोध हो रहा है, जिनका जिक्र तक नए कृषि कानूनों में नहीं है। (विश्व संवाद केंद्र)
- कुमार नारद
फ्रांस में जिहादी मानसिकता के एक मुस्लिम युवक ने एक शिक्षक की गला काटकर हत्या कर दी. उसके कुछ दिन एक बार फिर मुस्लिम जिहादी युवक ने चर्च में एक महिला सहित तीन लोगों की गला काटकर हत्या कर दी. इन घटनाओं की विश्व में कड़ी निंदा की जा रही है. लेकिन दुर्भाग्य से इस्लामिक देश इन घटनाओं की निंदा करने की अपेक्षा इस्लामिक जिहाद को समर्थन दे रहे हैं. और इसके लिए वे फ्रांसीसी उत्पादों के बहिष्कार का अभियान चला रहे हैं. आतंकवाद और इस्लाम के बारे में बुद्धिजीवी लाख सफाई दें कि आतंकवाद का इस्लाम से कोई संबंध नहीं है, लेकिन देखे हुए, जाने हुए, अनुभव किए तथ्यों को कोई कैसे झुठला सकता है.
हर पंथ और मजहब यदि समय के अनुसार खुद को बदलता नहीं है तो उसमें लगा जंग, असल में भी जंग में बदल जाता है. और पिछली कई सदियों से यह देखने और अनुभव करने को मिल रहा है. भारत तो कई शताब्दियों से झेल रहा है, लेकिन उदारवाद और बहु-संस्कृतिवाद की बात करने वाला यूरोप भी पिछले कई दशकों से इस्लामिक चरमपंथ का शिकार बन रहा है. फ्रांस का उदाहरण ताजा है. फ्रांस यूरोप का वह देश है, जहां मुस्लिमों की संख्या बहुतायत में है. फ्रांस ने सीरिया और अन्य मुस्लिम मुल्कों से भगाए या भागे मुस्लिमों को उस समय शरण दी थी, जब मुस्लिम मुल्क भी उन्हें अपने यहां शरणार्थी बनाने के लिए तैयार नहीं थे. यह इस्लाम का एक अलग ही तरह का चेहरा है.
बहरहाल, राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में अत्यधिक उदारवाद हमेशा नुकसान का कारण होता है. फ्रांस इसे भुगत रहा है. और आने वाले कुछ वर्षों में यूरोप के ज्यादातर देश इसका शिकार होंगे. भारत भी रोहिंग्याओं से इसी तरह जूझ रहा है और संभव है आने वाले दिनों में वे लोग भारत के लिए नासूर बन जाएं.
भारत ने आतंकवाद से लड़ाई में फ्रांस का समर्थन किया है. भारत सरकार का यह कदम स्वागत योग्य है. लेकिन दुर्भाग्य से देश की सबसे पुरानी पार्टी के किसी नुमाइंदे ने इस घटना की निंदा नहीं की है. निंदा करने के लिए उनके फेफड़ों में दम भी नहीं है. भारत में मुस्लिम पर्सनल बोर्ड ने हत्या की निंदा करने के स्थान पर फ्रांस की आलोचना की है. यही उनका इस्लामिक धर्म है. वह अपनी कौम को नई दुनिया से साक्षात ही नहीं करवाना चाहते. उन्हें इस्लाम की जड़ों में चेतना लाने की कोई चिंता नहीं है.
भारत के इस्लाम मतावलंबियों के लिए फ्रांस की घटना एक अच्छा अवसर हो सकती थी कि वे इस्लाम में आतंकवाद और चरमपंथ का विरोध करते हुए फ्रांस का समर्थन करते, लेकिन इस्लामिक ब्रदरहुड में वे इतने अंधे हैं कि उन्हें इस्लाम के आगे गला रेतने, दुष्कर्म करने, बम फोड़ने जैसी घटनाएं नजर नहीं आतीं. भारत के मुंबई और भोपाल में हजारों की संख्या में मुस्लिम फ्रांस और वहां के राष्ट्रपति के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. लेकिन शिक्षक की गला रेत कर हत्या करने की घटना को लेकर उन्हें कोई अफसोस नहीं है. क्या उन लोगों को मित्र देश के खिलाफ इस तरह का सार्वजनिक प्रदर्शन करने की अनुमति दी जानी चाहिए? इस्लाम की दुर्दशा का अंदाजा उनके नेताओं की जुबान से पता चलता है. मलेशिया के उम्रदराज पूर्व प्रधानमंत्री महाथिर मोहम्मद जैसे लोग कहते हैं कि मुस्लिमों को लाखों की संख्या में फ्रांस के लोगों को सबक सिखाने की जरूरत है. वह भूल जाते हैं कि खराब दिनों में इस्लामिक मतावलंबियों को शरण देने वाला देश फ्रांस ही है.
क्या इस्लाम इतना खोखला हो गया है कि उन्हें कोई इंसानियत के पहलुओं के बारे में बताने वाला लीडर नहीं मिल रहा है. दुर्भाग्य की बात है कि महाथिर मोहम्मद को नहीं पता कि वे अपने बयानों से इस्लाम का कितना नुकसान कर चुके हैं. बांग्लादेश की ख्यात लेखिका तस्लीमा नसरीन सच ही कहती हैं कि इस्लाम में रिफॉर्म यानि सुधार की जरूरत है. आज से चौदह सौ साल पहले की परिस्थितियों और आज की परिस्थितियों में हजारों साल का अंतर आ गया है, लेकिन इस्लाम के अनुयाइयों का रवैया अभी भी जस का तस है. जिस मजहब की नींव ही दूसरों के धर्म, देवताओं और ईश्वरों के अपमान पर आधारित है उसको मानने वाले दूसरों को सिखा रहे है कि हमारे ईष्ट का अपमान न करो.
इस्लाम का कलमा क्या कहता है – ला इलाहा इल्लल्लाह यानि नहीं है कोई ईश्वर/ देवता सिवाए अल्लाह के. इस्लाम का पहला ही स्टेटमेंट सारे धर्मों, सभी पंथों, सभी मान्यताओं का अपमान है. अगर इसी तरह हिन्दू, सिक्ख, जैन या बौद्ध अपना कलमा बनाएं और कहें कि नहीं है कोई ईश्वर सिवाय राम के या नहीं है कोई ईश्वर सिवाय नानक के…. आपको कैसा लगेगा. आपके हिसाब से तो अल्लाह के सिवाय कोई ईश्वर ही नहीं है. इसका अर्थ हुआ कि आप किसी अन्य धर्म की किसी भी मान्यता को नहीं मानते हैं और उसे अस्वीकार करते हैं. लेकिन आप कहते हैं कि हमारा सम्मान करो. यह कैसा अजीब विरोधाभास है? पहले दूसरों का सम्मान करना तो सीखिए. आपको पैगम्बर मोहम्मद की तस्वीर पर आपत्ति है, लेकिन इस्लाम के अनुयायी जो दिन रात दूसरे धर्मों के देवी-देवताओं का अपमान करते हैं, उस पर चुप्पी क्यों साध लेते हैं.
अगर पूरी दुनिया में इस्लामिक चरमपंथ के खिलाफ लामबंदी हो रही है और इस्लाम को इंसानियत के लिए खतरा बताया जा रहा है तो इसमें सबसे ज्यादा दोष इस्लाम के मतावलंबियों और उनके उन धार्मिक नेताओं का है, जिन्होंने समय के अनुसार इस्लाम को बदलने का प्रयास नहीं किया. यदि यही चलता रहा तो फ्रांस से उठी क्रांति आने वाले समय में पूरे संसार को इस्लाम के खिलाफ लामबंद कर देगी.
(विश्व संवाद केंद्र)
