जानिए मनरेगा योजना के लिए बजट घटाने के आरोप कितने सही..
देश-विदेश: केंद्र सरकार ने 2005 में जब मनरेगा योजना की शुरुआत की थी, यह असंगठित श्रमिकों के बीच बहुत लोकप्रिय हुई थी। अपने घर के आसपास काम के अवसर पाने के कारण श्रमिकों में इसे लेकर बहुत उत्साह देखा गया। आरोप यहां तक हैं कि शहरों और पंजाब जैसे राज्यों में काम करने के लिए श्रमिकों की कमी होने लगी, क्योंकि श्रमिकों ने अपने घरों के आसपास अपेक्षाकृत कम पारिश्रमिक में भी काम करने को ज्यादा बेहतर समझा।
लेकिन समय के साथ परिस्थितियां बदल रही हैं और एक बार फिर रोजगार की तलाश में श्रमिक शहरों की ओर रुख करने लगे हैं। संभवतः यही कारण है कि मनरेगा योजना के अंतर्गत आवेदन करने वाले श्रमिकों की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है।
राष्ट्रीय स्तर पर मनरेगा योजना के अंतर्गत रजिस्टर्ड श्रमिकों में से केवल आधे श्रमिक ही सक्रिय रह गए हैं। कई राज्य आवंटित धनराशि का उपयोग तक नहीं कर पा रहे हैं। इसके कारण सरकार ने इसके लिए आवंटित धनराशि को कम कर दिया। आरोप है कि मनरेगा योजना के कम लोकप्रिय होने के पीछे मुख्य वजह इसके फंड का सही तरीके से अमल में न लाया भी है। श्रमिकों की शिकायत है कि 15 दिन में पारिश्रमिक मिल जाने के बाद भी उन्हें समय से पारिश्रमिक नहीं मिल रहा है।
श्रमिकों की कितनी संख्या सक्रिय..
द महात्मा गांधी नेशनल रूरल एम्प्लॉयमेंट गारंटी एक्ट 2005 की आधिकारिक वेबसाइट पर दर्ज आंकड़ों के अनुसार देश में कुल 27.74 करोड़ श्रमिकों ने इस योजना के अंतर्गत रजिस्ट्रेशन कराया है। लेकिन इस समय केवल 14.26 करोड़ श्रमिक ही सक्रिय हैं। यह कुल श्रमिकों की लगभग आधी संख्या है। राज्यों के स्तर पर भी लगभग यही अनुपात देखने को मिलता है। उत्तर प्रदेश में कुल 2.87 करोड़ रजिस्टर्ड श्रमिकों में 1.50 करोड़ सक्रिय हैं, तो पश्चिम बंगाल के 2.61 करोड़ श्रमिकों में 1.39 करोड़ श्रमिक सक्रिय हैं।
बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान भी मनरेगा के अंतर्गत रजिस्ट्रेशन कराने वाले श्रमिकों के मामले में सबसे आगे हैं, लेकिन इन राज्यों में भी सक्रिय श्रमिकों की संख्या लगभग आधी ही है। चूंकि, जब श्रमिकों के पास बाजार में अन्यत्र काम उपलब्ध नहीं होता है, तब वे इसके अंतर्गत कार्य करने के लिए आवेदन करते हैं, सक्रिय श्रमिकों की संख्या घटती-बढ़ती रहती है।
श्रमिकों का प्रदर्शन
असंगठित कामगार कर्मचारी कांग्रेस (KKC) के नेशनल कोऑर्डिनेटर प्रबल प्रताप शाही का कहना हैं कि देश भर से आए हजारों मनरेगा श्रमिकों ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर 25 अप्रैल को प्रदर्शन किया। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार मनरेगा योजना के अंतर्गत आर्थिक सहायता कम कर रही है। श्रमिकों को केवल 25-30 दिन का औसतन काम दिया जा रहा है। उनका आरोप है कि सरकार इस योजना को धीरे-धीरे बंद करना चाहती है।
प्रबल प्रताप शाही ने कहा कि मनरेगा योजना कोरोना काल में श्रमिकों के लिए वरदान की तरह साबित हुई। शहरों से घरों को लौटे श्रमिकों ने इसके माध्यम से धन कमाया और अपना परिवार चलाने में सफलता पाई। 2020-21 की महामारी के दौरान इस योजना के लिए 1,11,500 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। वर्ष 2021-22 के लिए 73,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे और यह 20-21 के संशोधित अनुमान 1,11,500 करोड़ रुपये से 34.5 फीसदी कम था। अनुमान है कि इस योजना से करीब 15 करोड़ परिवार जुड़े हुए हैं। आरोप है कि फंड की भारी कटौती के कारण इन परिवारों को 100 दिन का अधिकार नहीं मिल पा रहा है। मौजूदा बजट पूरे साल में औसतन 26 दिन का ही काम दे सकता है।
मनरेगा श्रमिकों की तीन मांगें..
1- मनरेगा श्रमिकों का दैनिक पारिश्रमिक बढ़ाकर 450 रुपये प्रतिदिन किया जाए।
2- मनरेगा श्रमिकों को वर्ष भर में 100 दिन के स्थान पर 150 दिन न्यूनतम कार्य करने की अनुमति दी जाए।
3- मनरेगा योजना के अंतर्गत केंद्र द्वारा स्वीकृत धनराशि 60 हजार करोड़ रुपये से बढ़ाकर तीन लाख करोड़ किया जाए।
सहायता कम नहीं हुई- भाजपा
आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ और भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल ने कहा कि सच्चाई यह है कि पिछले वर्ष के बजट अनुमान की तुलना में सरकार ने इस योजना के लिए ज्यादा धन आवंटित किया है। कोविड काल में इस योजना के लिए अतिरिक्त 34 हजार करोड़ रुपये की व्यवस्था की गई थी। चूंकि, यह एक आपातकालीन सहायता थी, कोरोना काल के बाद इसे बंद कर दिया गया। लेकिन यह कहना सही नहीं है कि इस योजना के अंतर्गत आर्थिक सहायता कम की गई।
केंद्र सरकार ने मनरेगा योजना का लाभ लेने के लिए श्रमिकों के लिए बायोमेट्रिक पहचान अनिवार्य कर दिया है। श्रमिकों का पैसा सीधे उनके खातों में डालने की सुविधा दी गई है। इससे फर्जी श्रमिकों की संख्या में तेजी से कमी आई है। फर्जीवाड़ा कर श्रमिकों के नाम पर पैसा लेने वाले अनेक लोगों पर सख्त कानूनी कार्रवाई की गई है और कई लोगों को जेल जाना पड़ा है। इससे भी श्रमिकों की कुल दिखने वाली संख्या में कमी आई है, जबकि इसका लाभ असली और इसके हकदार श्रमिकों को मिल रहा है।